खत लिखने का वो ज़माना चला गया

सुकुन से बैठ कर खत लिखने का, वो ज़माना चला गया;
चलता था कुछ धीरे, मलाल है, वो वक़्त पुराना चला गया।

तेज रफ़्तार ने हर घडी, मौसम से, उसकी खासियत छीन ली;
प्रातःकाली, फाग, कजरी, हर मौके का अलग गाना चला गया।

दौर-ए-रफ़्तार में, पल भर का इंतज़ार, अब तकरार का सबब है;
भरता था बहुत देर से पहले, सब्र का वो बड़ा पैमाना चला गया।

आराम मिलता था, तन-मन को, रोज दिन एक मुकाम पर;
फौरी आवेगों की अनवरत घुसपैठ से वह ठिकाना चला गया।

पल-पल उमड़ती, इल्म-ओ-उपदेश की बेशुमार भीड़ में;
खो गया विवेक तो. एक चेहरा जाना-पहचाना चला गया।

लगता नहीं, ध्यान देर तक कहीं अब, मौजूं चाहे कितना गंभीर हो;
टुकड़ों में बँट गया वजूद इस कदर, कि दिल का लगाना चला गया।

छोटे सफ़े, छोटे जुमले, अब छोटी किस्तों, छोटी यादों का दौर है;
औरन-फ़ौरन के इस युग में वर्षों याद आये, वो अफसाना चला गया।

बातें कहे कुछ असली, जो काम की हो, मगर थोड़ी;
इस दौर में, न जाने कहाँ, वो शख्स सयाना चला गया।

नशे की लत लग गयी है बुरी हमको, पल-पल बेशुमार छोटे पैगामों की;
मशरूफ हैं, पर एहसास नहीं कि, इसमें वक़्त कितना रोज़ाना चला गया।

जीने-मरने की जंग में यूँ लगी है, ख़यालों की फौज रात-दिन;
कि चिंतन-मनन में, सुकून का थोड़ा वक़्त बिताना चला गया

गहरी सोच में डुबकी लगाकर, जो कभी गूढ़ ज्ञान ले आते थे बाहर;
खो गयी वो हुनर तो, मौका-ए-हासिल-ए-नायाब खज़ाना चला गया।

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-अवधेश प्रसाद

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