आईना हमसे उम्र का हिसाब मांगता है
रहा नहीं जो वक़्त, एक लम्हा कभी काबू में हमारे,
आईना हमसे रोज, उस उम्र का हिसाब मांगता है।
हम औरों की तरह मुकम्मल क्यों नहीं, है एक सवाल।
मगर हर रिश्ता हमसे, इसका अलग जवाब मांगता है।
फूल ख़ूबसूरत भी चाहिए, और खुशबूदार भी सबको।
फिर कैसे कोई हमसे, बिन-काँटों वाला गुलाब मांगता है?
हमारी खासियत नहीं, अपनी तरह से सब देखना चाहते हैं हमको।
इसीलिए, मौके के मुताबिक चेहरा, हर बार नया नकाब मांगता है।
नामुमकिन शर्त क्यों रख देते हैं, हमें प्यार करने वाले?
कोई हमसे चाँद, तो कभी कोई आफताब[1] मांगता है।
जिसको इंसानी जज़्बों की कभी कोई क़द्र नहीं;
वो शहर हमसे, तहज़ीब का खिताब मांगता है।
हमारी सूनी आँखें काफी नहीं दर्द साबित करने के लिए।
बेहिस[2] जमाना हमसे, अश्कों का बहता सैलाब मांगता है।
ज़ालिम ख्यालों का हुजूम कभी अगवा कर लेता है नींद को।
फिर फिरौती में तब वह हमसे, रातों को शराब मांगता है।
हम क्या करेंगे जहाँ में, ऐसी दौलत लेकर, ऐ अवध
कीमत में जिसकी, कोई हमारा ख्वाब मांगता है।
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-अवधेश प्रसाद
[1] सूरज
[2] असंवेदनशील
