नदी
हँस समुद्र ने पूछा यूँ
मुझसे प्रश्न कई बार-ज्यूँ
वाह से आह तक ..तू
आह से वाह तक.. क्यूँ
नदी-धारा-मीठी-सी-तू
अपने गीले-मीठे-होठों को यूँ
क्यूँ नमकीन करने चली आती तू ..?
अपने प्रेमी-पर्वत को छोड़ यूँ
अल्लहड़-अठखेलियां करती ज्यूँ
पगली-सी विलय हो मुझ में क्यूँ
खुदकुशी करने चली आती तू..?
लहरों की तरह चैन नहीं तुझे
सपन-पँख लगा बह कर यूँ
यादों की गठरी-सी बंध क्यूँ
खुद को शांत गंभीर कर ज्यूँ
अपने में ही समेटने क्यूँ
चली आती मुझमें ही तू ..?
मैंने भी बस हँस कर कहा यूँ..
समुद्र बिलखने की तुम्हारे ज्यूँ
आवाज आती है मुझे यूँ
हजारों मीलों तक फैला मैं हूं
बह नहीं सकता फ़िर भी क्यूँ ..?
मेरा इश्क ऐसा क्यूँ
इतना जल फ़िर भी प्यासा क्यूँ..
प्यास किसी की भी यूँ
अपने जल से बुझा न संकू
ऊपर से खामोश यूँ
अंदर इतने तूफान छुपाए हूं क्यूँ
यह तुम्हारी वेदना यूँ
तुम्हारी प्यास-प्रेम-पीड़ा-क्यूँ
पौरुष-पीड़ा-पर-न-रुदन-यूँ
तुममें छिपा इतना दर्द-मैं-समझूं..!
इसीलिए तुम्हारे जख्मों को सहलाने यूँ
तुमको मीठा करने आती मैं हूं
पर देख तुम्हारा अथाह दुःख क्यूँ
मै खुद भी तेरे जैसी हो जाती हूं..!
तुम्हारे इश्क में, मैं कहीं यूं
डूब कर जैसे उबर जाती हूं..
प्रेम-पर्वत-हृदय में जीवित यूँ
नाम-निर्मल-जल-सलील-ज्यूँ
ऐसे कहीं जिन्दा रह जाती हूं..!
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-सुनीता शर्मा