गिरमिटियों की व्यथा

– सुभाषिनी लता कुमार

पात्र परिचय :
अमर सिंह- (अमरु) 19 या 20 साल का युवक
माँ- अमरु की माँ, लगभग 50 साल की महिला
सेठ कड़ोरीमल- गाँव का जमीनदार, लेनदार
मौसी- गाँव की लगभग 50 साल की एक महिला
शांति- गाँव की 15 साल की युवती
लीला- 30 साल की दुखियारी महिला
पीटर- अंग्रेज अफसर
कर्मचन्द- गिरमिटिया मजदूर
रतनलाल- गरीब मजदूर
सूत्रधार- कथाकार

भूमिका

सूत्रधार- यह एकांकी फीजी के प्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय श्री जोगिन्द्र सिंह कंवल के उपन्यास ‘सवेरा’ से लिया गया है। यह गिरमिट काल में स्थित है जब भारत के विभिन्न प्रान्तों से भोले-भाले लोगों को बहला फुसलाकर अलग-अलग उपनिवेषों में शर्तबंधी प्रथा के अंतर्गत भेज दिया जाता था। वे नहीं जानते थे कि ये उपनिवेश कहाँ हैं। प्रस्तुत नाटक की कहानी यू पी के राजपुर गाँव जो आगरा शहर से दो मील की दूरी पर है जहाँ नाटक के नायक अमरू का घर है। बड़ी बहन की शादी हो जाती है। मगर इस बीच चार बीघा जमीन बहनों की शादी में सेठ करोड़ीमल के पास गिरवी रख दी जाती है। पिता की मृत्यु के बाद अमरु कर्ज़ उतारने के लिए नौकरी की खोज में निकलता है।

दृश्य एक

( दिन भर नौकरी ढूंढने के बाद शाम को अमरु मंच के बीचों-बीच थका हारा घुटनों में सर दबाकर बैठ जाता है।

माँ- अरे बेटा, लगता है आज तू बहुत थक गया है?

अमरु- (दुखी भाव से) हाँ माँ, मैं दिन भर नौकरी के लिए मारा-मारा फिरता रहा पर कहीं भी कोई छोटी-मोटी नौकरी नहीं मिली। अब सेठ करोड़ीमल का कर्जा हम कैसे उतारेंगे माँ ? जमीन कैसे छुड़ा पाएंगे? (परेशानी की हालत में खड़ा होकर फिर माँ से कहता है।) आधे से अधिक अनाज तो वो सूद में ही ले लेता है और हमें मुश्किल से खाने को रोटी मिलती है।

माँ- बेटा अगर हम करोड़ीमल के पास जाए तो शायद वह किसी महाजन से कह कर तुझे कोई काम दिलवा दे। मेरा दिल कहता है कि वो हम लोगों की मदद ज़रूर करेगा।

अमरु- लगता तो नहीं माँ। ऐसा न हो कि वो पैसों की लालच में मुझे किसी और मुसीबत में न डाल दे।

माँ- हाँ, हो भी सकता है… मगर तुझे बेच तो नहीं देगा ना ही बाँध कर रख लेगा।

अमरु- अच्छा ठीक है माँ, कल सवेरे ही हम उसके पास चलेंगे।

सूत्रधार- अमरु और उसकी माँ सेठ करोड़ीमल के पास मदद के लिए जाते हैं।

दृश्य दो

(सेठ करोड़ीमल बड़े से पोश पर विराजमान है। ऐनक लगाए मोटी सी किताब लेकर हिसाब किताब देखता है। तभी अमरु और उसकी माँ पहुँचते हैं)

माँ- पाय लागी सरकार। सेठजी, अमरु को यहाँ शहर में कोई नौकरी मिल जाए तो आपकी बड़ी कृपा होगी।

सेठ- कौन सा धन्धा करेगा तू अमरु?  हमारी जमीन का क्या होगा जिस पर तुम लोगों ने इतना पैसा कर्ज लिया है?

अमरु- सरकार कोई भी काम मिल जाए, मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। अब तो हमें दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से मिलती है।

सेठ- ठीक है, ठीक है। किसी और के पास नौकरी है कि नहीं यह हम नहीं जानते पर हाँ हमें एक नौकर की जरुरत है। लेकिन तलब दस रुपये महीना होगा। तेरा काम होगा पंखा झलना, बैठक की सफाई करना, बरामदे में पानी छिड़कना और नल से पानी भर कर लाना। बोलो, काम करना है तो आज से ही शुरु कर दो।

अमरु- (माँ से इशारों में काम के लिए स्वीकृति लेता है। फिर सेठ को जवाब देता है।) ठीक है मालिक, जो आपका हुकुम।

माँ- सरकार, भगवान आपको बनाए रखे। अमरु मैं जा रही हूँ। तू जी-जान से सरकार की सेवा करना।

अमरु- अच्छा माँ।

( माँ का प्रस्थान। अमरू काम में लग जाता है। वह पंखा झलता है, उसी समय रतनलाल का प्रवेश होता है।)

रतनलाल- पाय लागी सरकार।

सेठ- इतनो दिनों बाद सेठ की याद आई है। अभी तक तुमने अपनी रक्म अदा नहीं की है। लगता है तुम्हारे घर सरकारी आदमी भेजना ही पड़ेगा। अब हमें तुम्हारा घर और बैल  हल निलीम करवाने पड़ेंगे।

रतनलाल- ( दुखीमन से) नहीं माई-बाप ऐसा न करें। सरकार अगर बैल और हल निलाम हो गए तो मेरा परिवार भूखा मर जाएगा। सरकार विनती करता हूँ, मुझे पाँच छे महीने की मोहलत दे दीजिए।  मेरा लड़का ईश्वर लाल परदेश जा रहा है। वहाँ जाकर जल्दी ही वह पैसे भेज देगा।

सेठ-कहाँ जा रहा है?

रतनलाल- हजूर ‘फीजी’ जा रहा है। ईश्वरी वहाँ काम करेगा।

सेठ- कहीं तू उस बिहारी के जाल में तो नहीं फस गया। पिछले साल सलीम खान भी यही कहता था कि उसका बेटा काम के सिलसिले में परदेश जा रहा है, और उसकी कमाई से कर्जा उतारेगा। लेकिन आज तक फूटी कौड़ी नहीं भेज सका।

रतनलाल- सरकार, मुझ गरीब पर दया कीजिए।

सेठ- (गुस्से में) मैं कुछ नहीं जानता । जाओ जाओ, तुझे तीन महीने की मोहलत देता हूँ। बस मेरा कर्जा उतार दो।

रतनलाल- सरकार, मुझ गरीब पर रहम कीजिए। तीन महीनों में क्या होगा?

( सेठ नहीं मानता और रतनलाल भारी मन लेकर चला जाता है।)

अमरु- सेठजी, यह बिहारी कौन है?

सेठ- वही लखमीपुर का छलिया। बहुत से लोगों को बहका कर बाहरी टापुओं में भिजवा रहा है।

अमरु- वो ऐसा क्यों करता है?

सेठ- अरे अमरु, तू कितना भोला है। जानते नहीं क्या कि उसे जाने वाले हर आदमी और स्त्री के लिए कमीशन के पैसे जो मिलते हैं। अच्छा तू इन बातों में मत उलझ, चल अपना काम कर।

सूत्रधार- उसी गाँव में शांति और उसकी मौसी रहती है। शांति एक अनाथ लड़की है। अमरु ने शांति की जान जंगली जानवर से बचाई है। शांति और मौसी, अमरु के घर जाते हैं।)

दृश्य तीन

(अमरु आँगन में बैठा है। उसी समय शांति और मौसी का प्रवेश)

अमरु- राम राम मौसी! आओ आओ। अन्दर आओ। (माँ को आवाज लगाता है) देखो माँ, मौसी आई है।

मौसी- जुग जुग जियो बेटा।

माँ- अरे आओ बहन! सब कुशल मंगल है न?

मौसी- सब ठीक है बहन। आज अमरु ने मेरी शान्ति की जान बचा ली।

अमरु- अरे नहीं, मौसी। मैंने कुछ नहीं किया। बचाने वाला तो भगवान है। मैंने तो सिर्फ अपना फर्ज़ पूरा किया है।

मौसी- कहीं तुझे चोट तो नहीं लगी बेटा। आजकल ये जंगली जानवर भी न…

अमरु- नहीं मौसी, मैं ठीक हूँ। अरे शांति तुम वहाँ क्यों चुपचाप खड़ी हो? आओ मैं तुम्हें अपने बछड़े से मिलाता हूँ।

( अमरु और शांति का प्रस्थान। मौसी और अमरु की माँ पास-पास बैठी हैं)

मौसी- (अमरु और शांति को जाते हुए देखती है। हिचकिचाते हुए धीरे से अमरु की माँ से कहती है) पाली बहन, मैं सोचती हूँ कि शांति के हाथ पीले कर दूँ। बिन माँ-बाप की बच्ची है। अगर तुम्हारे अमरु जैसा लड़का मिल जाए तो भाग्य चमक उठे। बहन इस बारे में तुम क्या सोचती हो?

माँ- तुम्हे तो पता है कंचन बहन कि हमारी क्या हालत है। घर में एक पैसा नहीं है। मुश्किल से घर में दो जून खाना मिलता है और ऊपर से कर्ज का बोझ …

मौसी- कोई बात नहीं पाली, तुम्हारा लड़का तो बहुत होनहार है। कभी न कभी तो अच्छा काम मिल जाएगा।

माँ- अच्छा मैं अमरु से बात करुँगी। चलो चाय बनाते हैं।

(मंच पर अमरु और शांति का प्रवेश)

शांति- (शरमाती हुई) अमरु, मौसी और तेरी माँ हमारी शादी की बात कर रहे हैं।

अमरु- मैं यह शादी नहीं कर सकता।

शांति- क्यों? क्या मैं तुझे अच्छी नहीं लगती?

अमरु- यह बात नहीं है शांति। मैं किसी और रास्ते का राही हूँ।

शांति- फिर मुझे भी अपने साथ ले चलो।

अमरु- वह रास्ता बहुत कठिन है, काँटों से भरा है।

शांति- अगर मैं तेरे साथ रहूँगी तो काँटे भी फूल बन जाएंगे। मुझे महल की जरूरत नहीं, सिर्फ एक साहसी साथी की जरूरत है। मैं झोपड़ी में भी रह सकती हूँ।

अमरु- देखें। भगवान को क्या मंजूर है।

(शांति और मौसी का प्रस्थान)

सूत्रधार- कुछ दिन बाद सेठ करोड़ीमल पैसे वसूलने अमरु के घर आता है। वह अमरु की माँ से कहता है कि उसके पति ने जमीन के साथ उनका घर भी गिरवी रखा था। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। अमरु को जब सेठ की धोखेबाजी का पता चलता है तब वह गुस्से से भर जाता है।

 दृश्य चार

(सेठ अपनी गद्दी पर बैठा पैसों का हिसाब-किताब लगा रहा है।)

सेठ- आज इतनी देर हो गई तुझे अमरु। कहाँ था तू…चल आ। आज बहुत गर्मी है, आ यहाँ और पंखा झल। काम का न काज का दुश्मन अनाज का।

अमरु- सेठ, आज से तेरा नौकर अमरु मर गया। मेरा नाम अमर सिंह है। अब मैं तेरा कोई काम नहीं करूँगा।

सेठ- क्या कहा? होश में तो है तू?

अमरु- जो कुछ तूने मेरी माँ से कहा मैं सब सुन चुका हूँ। बता वो कागज़ कहाँ है?

सेठ- कौन सा कागज़?

अमरु- वही जिस पर मेरे बाप ने अंगूठा लगाया था।

सेठ- बहुत बोल रहा है तू। इससे आगे और कुछ बोला तो धक्के मार कर बाहर निकाल दूँगा।

अमरु- मैं ने तेरी इतनी सेवा की और तूने हमे ही लूँटने की कोशिश की। मुझे कागज़ देखने हैं। बता वो कागज़ कहाँ है?

सेठ- कोई कागज़ नहीं है। चला जा यहाँ से।

अमरु- तू झूठ बोल रहा है, बेइमान कहीं का।

(सेठ उठकर अमरु को चाँटा मारता है।)

सेठ- (क्रोध में) नमक हराम। तू इतना बढ़ गया है।

अमरु- मैं जानता हूँ तू कितना बेइमान है। कैसे-कैसे किसानों का खून चूसता है। इतने महीने हो गए तेरा काम करते हुए। मैंने पंखा झला, तेरे परिवार के लिए पानी भरा। देख मेरे हाथों में छाले पड़ गए हैं लेकिन तुझे जरा भी दया नहीं आई। मेरा घर नीलाम करने की धमकी देता है।

सेठ-घर तो तेरा नीलाम होगा ही, तू देख लेना।

( अमरु का गुस्सा आपे से बाहर हो जाता है और वह सेठ को खूब पीटता है। सेठ बेहोश हो जाता है। अमरु घर के कागज़ लेकर वहाँ से भाग निकलता है।)

सूत्रधार- अमरु बिहारी से मिलता है। बिहारी उसे कलकत्ता डिपो में पहुँचा देता है। डिपो में लीला नाम की एक स्त्री  को आराकाटी उसे अपने पति और पुत्र से मिलने के बहाने डिपो में छोड़ जाता है।

दृश्य पाँच

(कलकत्ता का डिपो मजदूर इधर-उधर भागते हैं। )

सूत्रधार- गिरमिटिया मजदूरों को विदेश भेजने से पहले कलकत्ता के डिपो में रखा जाता था। एक दिन डिपो में भगदड़ मच जाती है और मजदूर वहाँ से भागने की कोशिश करते हैं।

( एक स्त्री की रोने की आवाज आती है।)

लीला- (रोती हुई) कोई है..भगवान के लिए मुझे मेरे घर जाने दो। मुझे अपने पति और बच्चों से मिलना है। कोई तो मेरी मदद करो…मुझे परदेश नहीं जाना। कोई है?

अमरु- (दरवाज़ा खटखटाता है।) बहन दरवाज़ा खोलो। बहन, मैं तुम्हारी मदद के लिए आया हूँ। देर न करो, जल्दी करो।

(लीला दरवाज़ा खोलती है।)

अमरु- मेरे पीछे-पीछे लगती आओ। जरा भी देर हुई तो पुलिस आ जाएगी। मैं तुझे छुड़वाने आया हूँ।

( दोनों छिपते-छिपाते बाहर निकलते हैं।)

अमरु- (कुछ दूर जाकर) ये लो बहन पाँच रूपये। इसी सड़क पर चलती जाओ। थोड़ी दूर पर रेलवे स्टेशन है। ये पैसे दिल्ली तक का टिकट खरीदने और आगे जाने के लिए काफी होगा।

(लीला अमरु के पैर छूती है।)

अमरु- ये क्या कर रही हो? बहन, अब यहाँ से जल्दी भाग जाओ।

लीला- ( भावुक होकर) भईया, तूने मेरे लिए इतना कुछ किया। बिना तेरा नाम पूछे कैसे जाऊँ। मैं अपने पति और बेटे को क्या बताऊँगी कि किसने मुझे इस नरक से छुड़ाया है।

अमरु- मेरा नाम अमर सिंह है। लोग मुझे अमरु बुलाते हैं।

लीला- गाँव

अमरु- राजपुर

लीला- जो आगरा के पास है न…

अमरु- हाँ वहीं।

लीला- वहाँ तो मेरी बहन रहती है। मैं उससे मिलने जाया करती हूँ।

अमरु- हाँ, हाँ ठीक है। अब तुम यहाँ से जाओ। अगर राजपुर जाना हो तो मेरी माँ से जरूर मिल लेना और कहना कि अमरु ठीक है और जल्दी ही तुमसे मिलने आएगा।

लीला- अच्छा भईया। भगवान तुम्हें खुश रखे।

सूत्रधार- अमरु वापस डिपो लौट आता है। वह अन्य मजदूरों के साथ जहाज में बैठकर कठिनाइयों का सामना करते हुए सात समुद्र पार फीजी पहुँचता है। रारावाई लाइन नम्बर पच्चीस में अमरु, कर्मचन्द और रतनलाल अपना गिरमिट काटते हैं। ये जहाजी भाई बन जाते हैं। सुबह चार बजे से शाम तक कड़ी धूप में काम करते हैं और आराम करने पर कोलम्बरों के अत्याचार भी सहते हैं।

दृश्य छः

( कड़ी धूप में अमरु, कर्मचन्द और रतनलाल खेत में गन्ना काटते काटते थक जाते है और खेत की मेड़ पर सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं।)

रतनलाल- ( चहरे से पसीना पोछते हुए) हे भगवान! हमें न दिन को चैन है न रात को। से कैसी जिंदगी है। (अपने हाथ-पैर खुजलाते हुए) कोठरियों के इर्द-गिर्द बड़ी-बड़ी घास , गन्दगी और मैल के कारण इतने मोटे-मोटे मच्छर हैं क्या कहे। रात को जब काटते हैं तो लगता है कि कोई दुश्मन शरीर में सूइयाँ चुभो रहा है।

अमरु- ( व्यंग भाव से) अरे तुम्हें नहीं मालूम कि जब दिन को हम काम से थक जाते हैं तो रात को ये फीजी के बड़े-बड़े मच्छर हमारे कानों के पास आ-आकर हमें लोरी सुनाते हैं।

रतनलाल- अरे यार! दोस्त हो तो तेरे जैसा, जो दुख की उस घड़ी में भी हँसाता है। (कर्मचन्द की ओर देखकर) इसे क्या हुआ आज, बड़ा गुमसुम बैठा है।

कर्मचन्द- भाई, कल से बहुत कमजोरी लग रही है। रात भर सर दर्द के कारण सो नहीं पाया। अभी भी सर पीड़ा से फटा जा रहा है। सोचता हूँ कुछ देर यहीं लेट जाऊँ।

(तभी अंग्रेज अफसर पीटर आता है।)

पीटर- ( गुस्से में) तुम साला लोग, कामचोर, इदर बैठा आराम करटा है। चलो काम करो। चलो गन्ना काटो , मोड़ी साफ करो। नहीं तो मार-मार के तुम लोगन के चमड़ी उदेड़ देगा। चलो जल्दी-जल्दी काम करो।

अमरु- नहीं साहब, इन्हें नहीं मारो। कर्मचन्द को बहुत बुखार है, वह बीमार है। हम तो सिर्फ उसका हाल पूछ रहे थे।

पीटर- यू फूल्स! ये सब बहाना नहीं चलेगा। हम जानटा है तुम लोग झूठ बोलता है। बात नहीं, चलो काम करो, नहीं तो कर्मचन्द का काम भी तुमको करना पड़ेगा। बात नहीं, वरना ई चाबुक तुम से बात करी।

कर्मचन्द- ( दर्द से कहराते हुए) नहीं साहब इनको मत मारो हम अपना काम करेगा।

पीटर- बात नहीं। चलो, चलो! काम करो। हम अभी आता है। ( पीटर वहाँ से चला जाता है।)

कर्मचन्द– हे भगवान! कब हम लोग के ई नरक से छुटकारा मिली।

रतनलाल- यह सब बिहारी की वजह से हो रहा है। वह हमें बेचकर  मौज कर रहा है और हम लोग यहाँ इतना दूर गुलामी कर रहे हैं। भाई, अगर बीच में यह समुद्र नहीं होता तो हम सब कब का अपने देश निकल चुके होते।

अमरु- धीरज रखो भाइयों। एक दिन इस गुलामी से हमें जरूर आज़ादी  मिलेगी। अच्छा चलो काम में लग जाते हैं, ज़ालिम पीटर आता ही होगा।

(सभी मजदूर काम में लग जाते हैं।)

सूत्रधार- फीजी द्वीप में प्रवासी भारतीयों का इतिहास लगभग 142 वर्ष पुराना है। सन् 1879 से सन् 1916 तक कुल 87 यात्राओं में 60,965 मजदूर फीजी ले जाए गए थे। इन मजदूरों ने शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक यातनाओं को सहते हुए अपना गिरमिट काटा।  गिरमिट प्रथा की समाप्ति पश्चात अधिकतर गिरमिटियाँ यहीं फीजी में ही बस गए। आज का फीजी उन्हीं के खून पसीने का फल है और मिट्टी के एक एक कण पर लहरा रहा है उनकी आँखों का जल।

(पर्दा गिरता है)

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