मॉरीशस और फीजी : विश्व हिंदी सम्मेलन के झरोखे से

डॉ. सुभाषिनी लता कुमार

लेखक कृपाशंकर चौबे की हिंदी भाषा एवं साहित्य लेखन, पत्रकारिता और संपादक के रूप में अंतरर्राष्ट्रीय पहचान है। उनकी नवीनत्म उपलब्धि ‘मॉरीशस और फीजी: विश्व हिंदी सम्मेलन के झरोखे से’ प्रलेख प्रकाशन द्वारा इसी वर्ष प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने ग्यारहवें और बारहवें विश्व विश्व हिंदी सम्मेलन जो 2018 में मॉरीशस और 2023 में फीजी में आयोजित हुए थे की महत्वपूर्ण गतिविधियों, चर्चाओं, पारित प्रस्तावों के साथ ही इन देशों से जुड़े अपने अनुभवों को पाठकों के साथ साझा किया है।

                    यह विदित है कि भारत से दूर बसे इन देशों में रह रहे हिंदुस्तानियों की अपनी जड़ों को लेकर पाई जाने वाली तड़प को कृपाशंकर जी ने अपनी यात्रा के दौरान देखा और महसूस किया। इसलिए वे मॉरीशस और फीजी को छोटा भारत मानते हैं। जड़ों से दूर जाकर और कई पीढ़ियों से अलग थलग रहते हुए सुदूर देशों में बसे इन प्रवासी भारतीय परिवारों की अपनी मातृभूमि भारत के लिए उनकी रंगातात्मकता ने लेखक को कई स्तरों पर प्रभावित किया है।  फीजी और मॉरीशस के भारतवंशियों को लेखक कृपाशंकर जी गिरमिटिया भारतवंशी पुकारते हैं। हिंदी  साहित्य एवं पत्रकारिता आदि विषयों में सक्रिय लेखक कृपाशंकर  जी ने मॉरीशस और फीजी द्वीप के लोक रंग और वहाँ की चुनौतियों का यथार्थ चित्रण किया हैं। साथ ही, वे यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता का बेदह सटीक शब्दचित्र पाठकों के समक्ष रखने में भी सफल हुए हैं। दोनों देशों की प्राकृतिक चित्रण लुभावनेदार हैं जो पाठकों के मन में यह लालच उत्पन्न करता है कि वे कभी जाकर इन देशों की यात्रा करे और वहाँ के लोगों से संपर्क स्थापित करें।

       यह पुस्तक बिलकुल समसामयिक है क्योंकि यह पछले दो विश्व हिंदी सम्मेलनों की गतिविधियों पर व्याख्या प्रस्तुत करती है। आज हिंदी का प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में प्रवासी भारतीयों के माध्यम से फैला हुआ और लोगों के मन में यह जिज्ञासा रहती है कि अंतरर्राष्ट्रीय फलक पर हिंदी में क्या विकास हो रहा है। अतः इस पुस्तक में लेखक ने संबंधित जानकारी को तीन भागों में विभक्त किया है। पहला भाग है खिदिरपुर घाट से आप्रवासी घाट, दूसरा है नागपुर से नादी, और तीसरे भाग में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार रामदेव धुरंधर तथा फीजी के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुब्रमनी से संवाद को शामिल किया गया है।  

               अपने लेखन में कृपाशंकर जी ने मॉरीशस और फीजी के प्रवासी भारतीयों की पुरानी और नई पीढ़ी का सुंदर शब्दचित्र भी खींचा हैं। मॉरीशस और फीजी के इतिहास,  हिंदी परंपरा, इन देशों में हिंदी पत्रकारिता संबंधी रोचक जानकारियों को लेखक ने क्रमिक रूप से ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ एक शोधपरक दृष्टि डाली है, जो अत्यंत मूल्यवान है। जहाँ इन देशों के नामकरण, राजनैतिक सत्ता, आर्थिक गतिविधियों, साहित्यिक विकास और हिंदी भाषा से जुड़ी गतिविधियों के द्वारा पाठकगण को दोनों देशों को करीब से जानने का अवसर मिलता है। अतः यह कहा जा सकता है कि चौबे जी ने अपनी इस पुस्तक में वर्तमान के साथ-साथ अतीत की घटनाओं का सामावेश सुगमतापूर्वक किया है।

          किसी भी समाज के वर्तमान को देखने के लिए आवश्यक है कि उसके भूत एवं इतिहास को देखे क्योंकि इतिहास का प्रभाव वर्तमान पर अवश्य ही पड़ता है। हमेशा यह कहा जाता है कि वर्तमान भूत का फल है और भविष्य का बीज है। हम वर्तमान परिदृश्य की चर्चा कर रहे हैं पर भूत की बात भी थोड़ी उठानी होगी। प्रवासी भारतीय उस भारतीय समुदाय से मिलकर बना है, जो इतिहास के विभिन्न काल खंडों में अलग-अलग व्यवस्थाओं के अंतर्गत भारत से विश्व के अनेक स्थानों के लिए प्रवासित हुए और वहीं रच बस गए। 19 वीं सदी और 20 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भारत के आंचलिक क्षेत्रों से लोग रोजी-रोटी की तलाश में विदेशों में गए। मॉरीशस, सुरीनाम, त्रिनीडाड, फीजी भी ऐसे देश है जहाँ गिरमिट प्रथा के अंतर्गत प्रवासी भारतीय गए। फीजी को आधिकारिक रूप से फीजी द्वीप समूह गणराज्य के नाम से जाना जाता है जहाँ सन् 1879 से 1916 के बीच कुल 60,553 भारतीय मजदूरों का पंजीकरण हुआ।  भारत की इमपिरियल लेजिस्लेटिव कॉन्सिल के प्रस्ताव पर 20 मार्च 1916 में गिरमिट प्रथा का अंत हो गया और भारतीयों ने स्वतंत्रता की सांस ली।

          इसीलिए आज की उपलब्धियों पर गौर करने से पहले लेखक ने अतीत की ओर झांका है जो पाठकों को वर्तमान की परिस्तिथियों को समझने के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार करता है कि आज की उन्नति के पीछे गिरमिटिया भारतवंशियों का खून पसीन और सोच है। लेखक गिरमिटियों के इतिहास को नमन करता है। नादी से नागपुर भाग में उन्होंने पं. तोताराम सन्नाढ्य की पुस्तक ‘फिजी में मेरे 21 वर्ष’ को समाहित किया है। ‘फिजी में मेरे 21 वर्ष’ में पं तोताराम ने गिरमिट के अनुभव हेतु कई पहलुओं पर प्रकाश डाला जिनमें शामिल हैं औपनिवेशिक सरकार की हिंसा, प्रवासियों के बीच नैतिक और धार्मिक मूल्यों का पतन, भारतीय महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, तथा मजदूरों की विवशता जो हर एक भारतीय के दिल को छू देने वाले हैं।

            11वां विश्व हिंदी सम्मेलन जो 2018 में मॉरिशस में आयोजित हुआ था के बारे में लेखक ‘खिदिरपुर घाट से आप्रवासी घाट’ शीर्षक के अंतर्गत विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं- “कोलकाता में हुगली नदी के किनारे स्थित खिदिरपुर घाट से भारत के लाखों अनुबंधित मजदूर मॉरिशस, फीजी जैसे कई देशों में गए। इसलिए खिदिरपुर घाट को गिरमिटिया घाट कहा जाता है (पृष्ठ 11)।“ इसी घाट से प्रवासी भारतीयों की दुखद गिरमिट यात्रा का आरंभ हुआ और इस पुस्तक का आरंभ भी इस घाट के वर्णन से होता है। खिदिरपुर घाट में गिरमिटिया मज़दूरों के सम्मान में 2011 में जहाजरानी मंत्रालय पश्चिम बंगाल सरकार और कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के सहयोग से एक स्मारक बना है जिसकी यात्रा लेखक ने स्वयं की और उस जगह से संबंधित जानकारीयों को अपने लेखन में शामिल किया। कलकत्ता में बने इस स्मारक का वर्णन वे इन शब्दों में करते हैं-स्मारक के ठीक पीछे का बरगद का बूढ़ा पेड़ आप्रवासन की स्मृतियों को अपने अंग में दबाएँ निःशब्द खड़ा है। प्रवासी व्यक्ति अपने जन्म-स्थान, देश और मिट्टी से अलग होकर एक नए देशकाल तथा परिवेश में चला जाता है। परिवेश बदल जाने से प्रवासी व्यक्ति के जीवन में विषमताएं और जटिलताएं आती हैं जिसे कृपाशंकर  जी महसूस करते हैं। उन्होंने लेखन में जगह-जगह पर अपने अनुभवों को चित्रों और रोचक तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है जिससे पढ़ते समय सजीवता बनी रहती है। और लेखक की स्मृतियों के साथ एक जुड़ाव महसूस होता हैं।

        लेखक की कलात्मक दृष्टि भी हमारे सामने उभरकर आती है जब वे मॉरीशस के आप्रवासी घाट का वर्णन करते हैं। आप्रवासी घाट के बारे में लेखक लिखते हैं- आप्रवासी घाट की सीढ़ियां देखते हुए मुझे अमर उजाला के 16 मार्च 2013 के अंक में प्रकाशित वरिष्ठपत्रकार आशुतोष चतुर्वेदी के आलेख की याद आई। मॉरीशस से लौटकर आशुतोष जी ने लिखा था। इसमें आशुतोष जी लिखते हैं, सीढ़ियां अद्भुत होते हैं ही एक जगह ठहरी हुई होती है, किंतु कभी ऊपर की ओर जाती हैं, तो कभी नीचे की ओर। सीढ़ियां अक्सर दो जगहों को मिलाती हैं। वे स्वप्न को हकीकत सी या फिर धरती को आसमान से मिलाती हैं! कभी-कभी दो सभ्यताओं को भी दो संस्कृतियों को भी। और जहाँ से शुरू होती है सीढ़ियां, वहीं बनती है घाट। आस्था के घाट! अतीत के घाट! या फिर इतिहास के घाट (पृष्ठ 48)।“

            यह कहना गलत ना होगा कि यह पुस्तक विश्व हिंदी सम्मेलन का रचनात्मक के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान निकलने वाली विश्व समाचार पत्रिका की भी दिलचस्प प्रक्रिया हमारे साथ साझा की है। इसके अलावा 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि को कृपाशंकर जी रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि “ 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि उसमें 20 देशों के 2000 से अधिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया इससे स्पष्ट था कि विश्व हिंदी सम्मेलन ने एक अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त कर लिया है।“ इस तरह 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन का मूल विषय ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’ को सफल करार दिया। इसके अलावा पुस्तक में लेखक ने मॉरीशस और फीजी में अपने प्रवास के दौरान जीवन प्रकरण से जुड़ी कई सच्ची घटनाओं को उकेरा है। स्पष्ट है कि ऐसी चित्र बड़े जीवंत बन पड़े ओर लेखक ने वहाँ की संस्कृति को बेहतर रूप से हमारे सामने रखा है। इन रेखाचित्रों को पढ़कर मौसम, परिवेश, लोगों का रहन सहन, संस्कारों आदि की भारत के साथ तुलना की जा सकती है। इस तरह लेखक ने पुस्तक में फीजी और मॉरीशस की लोक संस्कृतियों का प्रासंगिक रूप दर्शाया है।

                  नागपुर से नादी भाग के अंतर्गत लेखक ने 15 से 17 फरवरी 2023 तक फीजी गणराज्य में आयोजित 12वें विश्व हिंदी सम्मेलन को केंद्र में रखा है। वे लिखते हैं कि “विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में पारंपरिक स्वागत कार्यक्रम देर तक चला। फीजी के काईवीती आदिवासियों ने नैसर्गिक शक्तिओं का आह्वान किया। उस अह्वान में विश्व के सुख-शांति देने की कामना की गई। एक प्रकार का साधना क्रम है जिसमें सामूहिक रूप से प्रार्थना की जाती है। यह प्रकृति संरक्षण सुन्दर विधान है, जो फीजी के पारंपरिक जीवन का अभिन्न अंग है (पृष्ठ 54)।“  उद्घाटन समारोह में भारत के विदेश मंत्री आदरणीय सुब्रह्मण्यम जयशंकर का नंगोना से पारंपरिक स्वागत किया गया था। लेखक कृपाशंकर जी ने उद्घाटन समारोह की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है।

             इस पुस्तक में एक तरफ विश्व हिंदी सम्मेलन से जुड़ी गतिविधियों का वर्णन है तो वहीं दूसरी ओर अंतिम खंड में इन देशों के प्रमुख साहित्यकारों के साक्षात्कार भी सम्मिलित हैं। बहुचर्चित उपन्यास ‘पथरीला सोना’ के उपन्यासकार रामदेव धुरंधर मॉरीशस के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। कृपाशंकर जी से संवाद के दौरान उपन्यासकार रामदेव धुरंधर जी ‘पथरीला सोना’ के सृजन के संबंध में कई रोचक जानकारी साझा करते हैं। फीजी हिंदी साहित्य के अंतर्गत प्रो. सुब्रमनी का नाम भी अग्रीम श्रेणी में लिया जाता है। प्रो. सुब्रमनी ने  ‘डउका पुरान’ और ‘फीजी माँ-हजारों की माँ‘ फीजी हिंदी औपन्यासिक कृतियों का सृजन कर अंतर्रारष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त की है। उन्हें  फीजी हिंदी साहित्य का अग्रदूत कहा जाता है।

            पाठकों को ‘मॉरीशस और फीजी: विश्व हिंदी सम्मेलन के झरोखे से’ पुस्तक में फीजी और मॉरीशस के विश्व हिंदी सम्मेलन की गतिविधियों और वहाँ के लोकरंग पर विस्तृत जानकारी प्राप्त होगी। इस पुस्तक में पाठकों को ग्यारहवें और बारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हुई चर्चाओं, उसमें पारित प्रस्ताव, अनुशासनों और दिए गए सुझावों की जानकारी के साथ ही लेखक की दृष्टि से पाठकों को मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुई और फीजी के नादी शहर के पर्यटन स्थलों का रोचक परिचय भी पढ़ने को मिलता है। यह पुस्तक बेहद सहजता से पाठकों के अंतर्मन में दाखिल हो जाता है। यह आपको एक ऐसी ज्ञानवर्धक यात्रा पर ले जाती है जहाँ आप विश्व हिंदी सम्मेलन व्यवस्था और उद्देश्य को नजदीक से समझ पाते हैं। लेखक कृपाशंकर चौबे तथा प्रकाशक को इस पुस्तक के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं बधाई।

संदर्भ ग्रंथ

कृपाशंकर चौबे. 2024. मॉरीशस और फीजी- विश्व हिंदी सम्मेलन के झरोखे से. प्रलेक प्रकाशन. मुम्बई, महाराष्ट्र।

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