स्वाति शुरू से ही जानती थी कि इवा उसकी अपनी माँ नहीं है। मगर जबसे तेरह की हुई तो उसके अवचेतन मस्तिष्क में सुप्त पड़े कुछ प्रश्न नई चेतना पा कुलबुलाने लगे: ‘वह कहाँ से आई है? वह आखिर कौन है? किशोरावस्था में होता शारीरिक व मानसिक बदलाव उसके मन में अजीब से भाव जगा रहें थे। मस्तिष्क अजीब-अजीब से ख्यालों में डूब रहा था। फिर उसके जीवन का जो इतिहास है…वर्तमान में उसका प्रभाव न पड़े यह नामुमकिन है। उस दिन उसकी स्कूल की डेनिश अध्यापिका ने अनायास ही उससे पूछ लिया कि उसके नाम का अर्थ क्या है। स्वाति नहीं बता पायी। डेनिश अध्यापिका बोली कि उन्होंने कहीं पढ़ा था कि सभी भारतीय नामों के कुछ अर्थ होते हैं। स्वाति का क्या अर्थ है?
स्वाति का क्या अर्थ है? किसने उसका नाम स्वाति रखा? तमाम प्रश्न उसके दिलोदीमाग में हिलोरे मचाने लगे। अपने अतीत के विषय में जानने के लिये सहसा वह बैचेन हो उठी। किसने उसे पैदा किया? उसकी असली माँ कौन है? उस दिन वह भारी मन से घर लौटी। दरवाजा खोल कर जैसे ही घर में घुसी, इवा के शब्द उसके कानों में पड़े, “हनी, तुम आ गयी हो?” कहते हुए वह बेडरूम से बाहर निकल आई, एक हाथ में चश्मा पकड़े व दूसरे में किताब।
“कैसा रहा तुम्हारा दिन?” उसने प्यार से पूछा।
“जैसा रोज रहता है,” उसने बेरुखी से जवाब दिया।
“क्या बात है, स्वाति?” इवा ने अचरज से पूछा।
“कुछ नहीं, थकी हूँ।”
“तो आराम करो, बेटा। कुछ चाहिए खाने के लिये?”
“नहीं, भूख नहीं,” कहते हुए स्वाति अपने कमरे में जाने के लिये सीढ़ियाँ चढ़ने लगी कि हठात रूक गयी।
इवा ने प्रश्नात्मक निगाहों से उसे देखा।
“मुआ, एक सवाल पूछ सकती हूँ?’ इवा की तरफ उन्मुख हो वह बोली।
“एक नहीं हजार सवाल पूछो, मेरी स्वीटी।”
“स्वाति का क्या मतलब होता है?”
असमंजस के भाव इवा के चेहरे पर छा गये। खेदजनक स्वर में बोली, “मुझे नहीं मालुम, स्वीटी। मैंने कभी तुम्हारे नाम के अर्थ के बारे में सोचा ही नहीं।”
“मेरी माँ कौन है?”
इवा उसे तुरंत अपनी बाँहों में भरते हुए बोली, “मैं हूँ तुम्हारी माँ…” स्वाति ने उसकी गोरी चमड़ी के विपरीत अपनी काली चमड़ी को निहारा। हमेशा की तरह वे सनकी ख्यालात उसके जेहन में मचलने लगे, और भी गहरे इस बार। इवा को परे झटकते हुए वह बोली, “तुम मेरी माँ नहीं हो। देखो, हमारे रंगों में कितना अंतर है। तुम गोरी हो, मैं काली हूँ। मेरी माँ मेरी तरह ही काली-कलूटी होगी।”
इवा हताश, शून्य में कहीं खो गयी। इन परिस्थितियों के लिये उसने स्वयं को तैयार नहीं किया था। कभी सोचा नहीं था कि गोद ली हुई बच्ची एक दिन अपने जैविक माता-पिता के विषय में पूछेगी।
स्वाति का मन एक पल विद्रोह कर रहा था तो दूसरे पल प्रयाश्चित से भरा जा रहा था। इवा के चेहरे पर छा गये व्यथित भाव देख वह सहम भी गयी। उसने इवा को आहत कर दिया है। उसके अपने बच्चे नहीं हो सके थे, इसलिए उसने उसे गोद लिया था। उसकी माँ बन कर उसे नाज है। जब भी कोई बात होती है तो हर किसी को हिदायत देती है: तुम्हारा बच्चा तुम्हारा लिये सर्वोपरी है। उसके स्कूल की ‘पेरेंट्स इवनिंग’ वह कभी मिस नहीं करती। उसके स्कूल में वह फण्डरेजिंग का वालंटियर काम भी करती है। कहती है, वह स्कूल की मदद इसलिए भी करती है कि उसे अपनी बेटी के करीब रहने का मौका भी मिल जाता है।
स्वाति उसके सम्मुख अधिक देर तक खड़ी न रह सकी। मेज पर अपना बस्ता पटक कर उसने दराज से अपनी साइकिल की चाबी निकाली और आँगन में भाग गयी। साइकिल पर पैडल मारते हुए बाहर सड़क पर आ गयी।
इतनी बड़ी दुनिया में वह कहाँ जाए? किस्से अपने प्रश्नों के जवाब मांगे? ‘एडोप्टड डॉटर…’ ‘दत्तक लड़की…’ ‘अनाथालय की लड़की…’ ‘गोद ली हुई लड़की….’ ये वाक्यांश पिछले सात सालों से उसके कानों में चीत्कार मचा रहें हैं। वह सात साल की ही तो थी जब इवा और जॉन उसे लेने सेवालय आये थे।
….एक निरीह व भीरु लड़की, फटे-पुराने वस्त्रों से ढका उसका तन, चेहरे पर सहमे भाव, सेवालय के छब्बीस बच्चों में उसका अस्तित्व न के बराबर था। गायत्री उसके हमउम्र बच्चों की वार्डन हुआ करती थी। सेवालय के बच्चों की तरह उसके बदन पर भी गंदी साड़ी झूलती थी, बाल बिखरे रहते. ऊपर से कर्कश स्वभाव, बात-बात पर बच्चो को डांटना-डपटना, उनकी मार-पिटाई करना उसके लिये अति सहज था। आनाथ थे जो वे, कितने ही सुख-साधनों से वंचित बच्चे। जिनके माता-पिता ने ही उन्हें ठुकरा दिया तो अन्य को क्या कहे। सुनामी जैसे भूकम्पों की विभीषिका ने उन्हें अनाथ बनाया या उन्हें जन्म देने वालों की निजी मजबूरियों ने, उन्हें नहीं मालूम। उन्होंने तो जबसे आँखे खोली अपने को सेवालय में पाया। सेवालय की इमारत ही उनकी एकमात्र आश्रयस्थली है, और इसकी चारदीवारी से बाहर निकल किन्हीं निःसन्तानों की दत्तक सन्तान बन जाना उनकी एकमात्र उम्मीद ।
तुम्हें औलाद चाहिए और हमें माता-पिता! आओ मिलकर एक-दूसरे का गम दूर करें!
यद्यपि वह बहुत अबोध थी, लेकिन उसे वह दिन बहुत अच्छी तरह याद है, जब इवा और जॉन उसे लेने सेवालय आये थे। गायत्री उसकी बाँह पकड़ कर उसे प्रशासक के कक्ष में ले गयी थी। “चल री तुझे देखने आयें हैं।
“कहाँ?” उसने पूछा था।
“श्रीनिवास अप्पा के दफ्तर में। वे वहीं बैठे हैं…।”
सभी बच्चे सेवालय के प्रशासक को अप्पा पुकारते थे और गायत्री को अम्मा। रास्ते भर गायत्री उसे समझाती रही थी कि वह आगुन्तकों के सम्मुख कैसा व्यवहार करे। उन्हें ‘गुड मार्निंग’ कहे। अगर वे उसे कुछ दे तो ‘थैंक यूँ’ कहे।
स्वाति अचंभे में! सिर्फ इतना ही उसे मालूम था कि श्रीनिवास अप्पा के कमरे में उसे तभी ले जाया जाता है जब कोई बच्चा कुछ ऐसी जबरदस्त शरारत कर दे कि सेवालय की सम्पत्ति का नुकसान हो जाये, या किसी का खून बहा दे, या फिर नियमों को जबरदस्त उल्लंघन हो जाये। उसने ऐसा क्या किया? अनिता और सीमा से उनकी लड़ाई हुई है। मगर वह तो उनसे रोज होती है। गायत्री के ही सामने उन्होंने कितनी बार एक-दूसरे के बाल खींचे हैं। एक-दूसरे पर मुक्के बरसाए हैं। हर बार गायत्री ही उन्हें डांट-फटकार कर खुद ही मामला उनके बीच सुलझा देती है। इससे पहले कभी उसे अप्पा के कमरे में ले जाने की नौबत नहीं आई।
वहाँ इवा और जॉन को बैठे देख स्वाति के चेहरे पर बहुत सारे भाव आ गये। अपरिचित, अनजान लोग उसे किसी अन्य ही आकाशगंगा से आये प्रतीत हुये। उनके व्यक्तित्व का जो ओज पूरे कमरे में बिखरा हुआ था, उसे सहमा गया। उसे देखते ही वे खड़े हो गये थे, चेहरे पर मुस्कान लिये। यह एक बनावटी नहीं सच्ची स्निग्ध मुस्कान थी, इतना वह समझ गयी।
प्रशासक तमिल में उससे बोला, ”इवंगे उन्नूड्या पुडिया अम्मा-अप्पा – ये तुम्हारे नये माता-पिता हैं।”
अम्मा-अप्पा! अम्मा-अप्पा तो उसके गायत्री और प्रशासक है। उसकी असमंजसता समझ प्रशासक उसे समझाते हुए बोला- “हम तो सभी बच्चों के अम्मा-अप्पा हैं। मगर ये सिर्फ तुम्हारे अपने अम्मा-अप्पा हैं।”
अपने अम्मा-अप्पा! इन शब्दों की गरिमा से वह अभी तक अनभिज्ञ थी। निरीह-सी वह उन्हें देखती ही रह गई। वह नन्हीं-सी जान, वे लम्बे-चौड़े इंसान…! इवा ने आगे बढ़ कर उसे अपने आलिंगन में लिया। सात साल की जिन्दगी में पहली बार कोई उसे इतने स्नेह से अपनी बाँहों में भर रहा था। उसे खुश होना चाहिए था। मगर उसने इवा के सुनहरे बाल व नीली आँखों को देखा। उसके पहने वस्त्रों को निहारा – नीली जींस, काला फर्र वाला कोट व गले में झूलता गुलाबी स्कार्फ। फिर अपनी बाँह के ऊपर उसकी बाँह देखी। उसकी काली बाँह के सापेक्ष इवा की गोरी बाँह एक जबरदस्त विषमता उत्पन्न कर रही थी। घबड़ा कर वह रोने लगी। इवा अन्यमनस्क हो गयी। उसे तत्काल छोड़ दिया। प्रशासक व गायत्री से प्रश्न करने लगी, यह क्यों रो रही है?”
प्रशासक बोला, “ख़ुशी के मारे।”
गायत्री उसे चुप कराते हुए बोली, “यह तुम्हारी मम्मी है…मम्मी.. मम्मी को हैलो कहो…!”
स्वाति कुछ समझ नहीं पायी, किन्तु उसे उस पल गायत्री अपनी अधिक लगी। उसके सांवले तन के चिरपरिचित स्पर्श में अपनेपन का आभास हुआ। वह उससे लिपट कर रोने लगी। इवा और अधिक अन्यमनस्क हो गयी। उसे अपने से परे हटाते हुए गायत्री ने उसे एक सख्त नजर दी। प्रशासक ने एक पल उसे गुस्से से घूरा, फिर स्वर मृदुल बनाते हुए बोला : “रोओ मत बेबी। यह तुम्हारी मम्मी है। मम्मी को हैलो कहो…!”
स्वाति का रुदन और बढ़ गया। इवा और अधिक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी…।
प्रशासक ने गायत्री को इशारा किया कि वह उसे वहाँ से ले जाए। गायत्री उसका हाथ पकड़ कर उसे खिंचते हुए उस कमरे में ले आई, जहाँ अन्य बच्चे भिन्न-भिन्न कार्यकलापों में सलंग्न थे। आँसू पोंछते हुए वह भी एक समूह के साथ लग गयी — जासमीन व क्रोसान्दारा के सुगन्धित पुष्पों को धागे में पिरो कर गजरे बनाने, जिन्हें वे कंडी में सजा कर शाम को मंडी में बेचने जाते थे।
सेवालय से जाने से पहले इवा उसके पास आई। उसके सम्मुख घुटनों के बल बैठ कर वह कई पलों तक उसे मंत्रमुग्ध निहारती रही, फिर उसे प्यार से फुसफुसाते हुए बोली, “स्वाति, मैं तुम्हारी माँ हूँ! तुम मेरी बेटी हो!” जल्दी ही हम तुम्हें यहाँ से ले जायेंगे। एक बार हम साथ रहने लग जाएँ तो सब कुछ हमारे बीच ठीक हो जाएगा।”
उसे कुछ समझ में नहीं आया कि वह विदेशी महिला क्या बक रही है। अजनबी निगाहों से वह उसे देखती रही। इवा ने उसके माथे को चूमा। वह तटस्थ खड़ी रही, बिना किसी प्रतिक्रिया व्यक्त किये। जाते वक्त इवा ने उसे बाय किया। उसने अपना हाथ नहीं उठाया।
“बेबी, मम्मी को बाय करो,” गायत्री ने उसे कहा। उसने गर्दन हिलाकर मना कर दिया।
“कोई बात नहीं,” कहते हुए इवा मुस्कुराते हुए चली गयी।
“मूर्ख लड़की!” गायत्री बड़बड़ाई। “इतना अच्छा अवसर मिल रहा है इस नरक से बाहर निकलने का, और तू अपनी हरकतों से उसे गंवाने में लगी है।”
खैर पाँच दिन उपरान्त इवा और जॉन सेवालय में फिर प्रकट हो गये, उसे वहाँ से हमेशा के लिये ले जाने के लिये। गायत्री ने उस दिन उसे अपने हाथों से नहलाया। उसे नई पोशाक पहनाई, जो उसके नये मम्मी-पापा उसके लिये खरीद कर लाये थे। उसके काले रेशमी बालों को गायत्री ने बड़े आकर्षक तरीके से संवारा। सारा अनाथालय उसे विदाई देने के लिये एक स्थान पर जुट गया। इवा और जॉन ने सभी को चॉकलेट बांटी। तदुपरान्त उसके सात वर्षों के जीवन का समस्त व्यय का सेवालय को भुगतान कर, अनिवार्य दस्तावेजों को समेत वे उसे लेकर गेट की तरफ बढ़ गये, जहाँ एक महंगी गाड़ी खड़ी थी। अनिता, सीमा मानसी और गौरव, उसके सभी साथी सेवालय के अन्य जनों के साथ खड़े उसे जाते हुए एकटक मूक निहार रहे थे। उनके चेहरों पर ईर्ष्या के भाव थे या फिर उससे बिछुड़ने का दुःख, वह नहीं पढ़ पायी। सुरभि, उसकी कट्टर दुश्मन, जिससे अक्सर उसकी लड़ाई होती थी, और उनकी भिड़त गाली-गलोज, मार-पिटाई व एक-दूसरे के बाल खींचने-नोचने में हो जाती थी, वह भी उसे निहार रही थी। उसके चेहरे के भाव स्पष्ट बता रहे थे कि उसे उसका सेवालय छोड़ना अच्छा नहीं लग रहा।
गायत्री उसके करीब आई। उसे अपने से चिपकाते हुए बोली, “तू बहुत दूर जा रही है—डेनमार्क, एक दूसरे लोक में। हम तुझे अब शायद कभी न देख पाये। मगर हमें खुशी है कि अब तू अनाथ नहीं है। भगवान करें, यहाँ के सभी बच्चों को मम्मी-पापा मिल जाये,” कहते हुए गायत्री की आँखें डबडबा गयी। हौले से उसने उसके दोनों गालों को चूमा। स्वाति को पहली बार महसूस हुआ कि वह इतनी खराब औरत नहीं है जितनी कि वह उसे समझती थी।
सभी के हाथ उसे बाय करने के लिये हवा में तैर गये। उसने भी हौले से अपना हाथ हिलाया। फिर वह इवा के साथ कार की पिछली सीट पर बैठ गई। जॉन ड्राइवर के साथ आगे की सीट पर। कार चल पड़ी, उसे एक नई दुनिया, एक नये जीवन में ले जाने के लिये। उसके नये मम्मी-पापा… डेनमार्क… उसके कानों में जबरदस्त गूँजने लगा। वह समझ चुकी थी कि वह इन विदेशियों के साथ बहुत दूर जा रही है। सेवालय को उसने आखिरी बार उदास नजरों से देखा। वह रोने लगी। सेवालय छोड़ने का मतलब—न कोई कठोर परिश्रम, न आधा पेट भोजन, न कोई डांट-फटकार, न कोई गायत्री जीवन में। फिर भी वह बेतहाशा रो रही थी। जॉन व इवा ने एक-दूसरे को देखा। उसे रोने दिया जाए, उन्होंने सोचा। इवा मुलायम टिशू से उसके गालों में ढुलकते आँसुओं को लगातार पोंछती जा रही थी।
सबसे पहले वह उसे लेकर एक अस्पताल में आये, एक ऐसा स्थान जहाँ वह पहले कभी नहीं आई थी। यहाँ उसका पूरा शारीरिक परीक्षण हुआ। डाक्टर ने उसे विटामिन की टेबलेट्स सुझाए। फिर वे उसे लेकर एक भव्य रेस्टोरेंट आये, यह भी एक ऐसा स्थान जिसे वह दूर से ही ताका करती थी। बर्गर, आइसक्रीम, चॉकलेट… न जाने क्या-क्या इवा और जॉन ने उसके लिये ऑर्डर कर दिया। लेकिन वह उन व्यंजनों को बस निहारती रही। इवा व जॉन के काफी आग्रह पर उसने अनिश्चतता से उन्हें बस थोड़ा बहुत खाया। भूख पता नहीं कहाँ गायब हो गयी थी!
दो दिन उपरान्त विमान उसे लेकर जब चेन्नई एयरपोर्ट से उड़ा तो उसे महसूस हुआ कि उसने सिर्फ सेवालय ही नहीं, बल्कि अपना देश भी छोड़ दिया है। विमान में उसके एक तरफ इवा व दूसरी तरफ जॉन बैठा था। रह रह कर उनकी नजरें उससे टकरा रही थी। उनकी नजरें उसे एक आश्वासन दिला रही थी—सब कुछ हमारे बीच ठीक हो जायेगा। तुम हमारी बेटी हो और हम तुम्हारे माता-पिता, यह बात हम जितनी जल्दी स्वीकार कर ले, उसी में हम सबकी भलाई है।
कोपनहेगन एयरपोर्ट से जैसे ही बाहर निकली, ठंडी-ताजी हवा उसके पतले नाजुक बदन को बेधने लगी। चेन्नई की चिपचिपी गर्मी की तुलना में यह शीतल वायु…। भूमण्डल के सभी भागों में मौसम व हवा एक समान नहीं होता, पहली बार वह समझ पायी थी। अनजाना, अपरिचित भाव उसे डस गया। घर तक की दूरी टैक्सी द्वारा तय की। एक बड़े, आलीशान घर के आगे वह खड़ी थी। इवा ने ताला खोला। वह सभी अंदर आये। इवा और जॉन उसे एक कमरे में ले गये। दीवार से दीवार तक रंगीली कालीन, गुलाबी पर्दे, मुलायम तकियों से सजा सलोना बिस्तर, कितने सारे टेडीबियर…। कक्ष उसके पहुंचने से पहले ही सजा दिया गया था।
“यह तुम्हारा कमरा है,” इवा मुस्कुराते हुए बोली।
“वेलकम टू होम…” जॉन उसे बाँहों में भरते हुए बोला।
उसे यह सब देख कर कुतूहलता तो हुई, मगर वह खुश नहीं थी। जबसे अपना सेवालय छोड़ा था, नये मम्मी-पापा के साथ कोई बातचीत नहीं हुई थी। वह डरी व सहमी हुई तो थी ही, फिर वे एक-दूसरे की भाषा भी नहीं जानते थे। इवा और जॉन संकेतों-इशारों द्वारा उससे बात करने का निरंतर प्रयास कर रहे थे, मगर सफलता नहीं मिल रही थी। हाँ, इवा उसे अपनी गोरी बाँहों में बार-बार भर रही थी। उनकी त्वचा का रंगभेद उसके जेहन को और उद्देलित करता जा रहा था। “गायत्री अम्मा…। गायत्री अम्मा….। नी इंगे इरके…।” वह गायत्री को याद कर जोरों से रोने लगी। वह अपने देश भारत, अपने शहर चेन्नई, अपने निवास सेवालय चले जाना चाहती थी। वहाँ अनिता, मानसी और सीमा के साथ खेलना चाहती थी। सुरभि से लड़ना चाहती थी। गायत्री की मार खाना चाहती थी।
नया देश, नया घर व नये माता-पिता को अपनाने से उसका मन इनकार कर रहा था। बड़ी विचित्र सी स्थिति इवा और जॉन के सम्मुख उत्पन्न हो गयी। एक छोटी सी बच्ची के सम्मुख वे स्वयं को अति असहाय महसूस करने लगे। भाषा उनके मध्य दीवार बनी हुई थी। बच्ची के साथ वार्तालाप स्थापित करने की नितांत आवश्यकता थी। हाथों व नजरों के इशारे प्रयाप्त नहीं थे। उन्होंने भारतीय दूतावास से सम्पर्क किया। उनसे अनुरोध किया कि भारतीय दूतावास उनकी कुछ मदद कर सके। उन्होंने एक भारतीय बच्चे को गोद लिया है। बच्ची बहुत रो रही है। कुछ खा-पी नहीं रही। वे बहुत परेशान हैं।
एम्बेसी ने तीन भारतीय मूल के लोग जो उस इलाके में रहते थे, उनके घर भेजे। मगर अफ़सोस… कोई भी बच्ची के साथ सीधा संवाद स्थापित नहीं कर सका। बच्ची तमिल भाषी थी, जबकि उनमें से एक बंगाली था, एक महाराष्ट्रियन व एक दिल्ली का हिंदी भाषी। वे बगैर कोई मदद किये चले गये। स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही।
“ये इंडियंस भी….!” इवा क्रोध में भुनभुनाई। जॉन से बोली, “एक भाषा भी नहीं बोल सकते ये। कितनी हैरत की बात है एक देश को होने के बावजूद बच्ची से दो शब्द बात न कर सके। बस हैलो बेबी… हैलो बेबी ही बोलते रहें।”
बहरहाल स्थिति से निपटने की इवा ने स्वयं ही प्रयास किये। वह खुद से बोली, केवल माँ बन जाने से ही ममत्व पूरा नहीं हो जाता, बच्चे के प्रति माँ को दायित्व की कई भूमिकायें निभानी पड़ती है, तभी वह उसकी माँ कहलाने की हकदार होती है। एक सगी माँ को भी एक अच्छी माँ बनने के लिये काफी जतन करने पड़ते हैं, फिर वह तो….
जब-तब स्वाति को बाँहों में भरकर इवा अपने सुरीले कंठ से गुनगुनाती: “मैं तुम्हें निरन्तर प्यार करूंगी, तुम्हें हमेशा प्यार करूंगी। जब तक मैं जीवित रहूंगी, मेरी बच्ची तुम भी रहोगी…।”
बच्ची का अशांत मन शांत करवाने में, उसे नये परिवेश से परिचित करवाने में व नई परिस्थितियों में ढालने में इवा निरंतर प्रयत्नशील रही। अंततः वह अपने व बच्ची के बीच प्रेम व स्नेहमय रिश्ता कायम करने में सफल हो गयी।
समय बीतने लगा और स्वाति धीरे-धीरे नये परिवेश से अभ्यस्त होने लगी। इवा और जॉन को वह अपना माता-पिता समझने लगी। इवा को मुआ व जॉन को फार पुकारने लगी। अपनी तमिल भुला कर डेनिश सीखने लगी। इधर इवा और जॉन भी भारतीय संस्कृति, खानपान व भारतीयों को जानने में जिज्ञासा ले रहे थे। भारतीय संस्कृति, परम्पराएं व भोजन को जानने के लिये वे पुस्तकें वगैरह पढ़ रहें थे। एक भारतीय बच्चे को उन्होंने गोद लिया था, उसके मूल परिवेश को जानना उनके लिये महत्वपूर्ण था।
डेनमार्क में आयोजित होते भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वे खुल कर जाने लगे। डेनिश-भारतीय संस्था, जो दो भिन्न समुदाय के लोगों को करीब लाती है, के सदस्य बन गये। संस्था के समय-समय पर आयोजित होते कार्यक्रमों में स्वाति को लेकर वे पहुँच जाते। इवा सबसे पहले उसे बाथरूम में ले जाकर उसकी जींस-टॉप उतार कर उसे लंहगा-चौली पहनाती। उसके माथे पर बिंदी लगाती। उसे भारतीय पोशाक में सजा इवा कुछ पल उसे मूक मंत्रमुग्ध निहारती, फिर उसका चुम्बन लेते हुए कहती: “इंडियन गर्ल!”
कार्यक्रम के उपरांत वह उसे फिर से बाथरूम ले जाती। उसके कपड़े बदल कर कहती, “डेनिश गर्ल!”
भारतीय राष्ट्रीय दिवसों पर वे उसे लेकर भारतीय दूतावास पहुँच जाते। यह सब वह स्वाति को उसके देशीय वातावरण से जोड़ने के लिये, उसे नये माहौल में सहूलियत प्रदान करने के लिये कर रहे थे, ताकि वह डेनमार्क को अपना घर समझ सके। उसे यहाँ परायापन का अहसास न हो। मगर स्वाति को इन भारतीय जलसों में अपरिचितता का आभास और अधिक होता। उसे गोरे माता-पिता के साथ देख कर लोग उसे घूरने लगते, कुछ खुसुर-फुसर करने लग जाते। ‘अडोप्टड गर्ल’ उसके कानों में बजने लगता।
दरअसल वह जहाँ भी जाती, शब्द ‘अडोप्टड’ उसका पीछा करता। स्कूल के संगी-साथी भी उसे गोरे अभिभावकों के साथ देख कौतुकता से भर जाते। इवा और जॉन के परिवार वाले भी मिलने पर उसे अजीब नजरों से देखते। बहरहाल समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था, और स्वाति अपनी नई जिन्दगी से तालमेल बिठाते हुए तेरह की हो गयी।
अनुत्तरित रह गये प्रश्न उसके जेहन में कोलाहल मचा रहे थे : वह कौन है? वह भिन्न क्यों है? उसकी असली माँ कौन है? वह कहाँ है? क्या वह वास्तव में इतनी विवश थी कि उससे छुटकारा पाने में ही उसने अपनी बेहतरी समझी! उसका नाम स्वाति किसने रखा? इसका क्या अर्थ है? कुछ दिनों बाद इवा और जॉन से उसका मुकाबला फिर हुआ।
उसने उनसे फिर पूछा: “मेरी माँ कौन है? क्या आपके पास मेरी माँ की कोई फोटो है?
“हम नहीं जानते तुम्हारी माँ के विषय में। हमारे पास उनकी कोई फोटो भी नहीं है,” इवा सपाट शब्दों में बोली। “सेवालय के लोगों ने हमें तुम्हारे जन्म व बायोलोजिकल पैरेंट्स के विषय में काफी कम बताया।”
“क्या बताया उन्होंने?” वह अधीरता से बोली।
“बस इतना कि तुम किसी देवगौड़ा परिवार से हो। तुम्हारा जन्म 1987 में हुआ था, सम्भवतः जुलाई माह में। हमने अपनी तरफ से तुम्हारे जन्मदिवस की तिथि दस जुलाई दी। तुम अपने माता-पिता की चौथी सन्तान थी। तुम्हारी माँ तुम्हें जन्म देते हुए मर गयी थी। तुम्हारे पिता अकेले इतने सारे बच्चों की परवरिस नहीं कर सकते थे, वे बहुत गरीब भी थे। इसलिए उन्होंने तुम्हें सेवालय में छोड़ दिया। तुम सिर्फ पन्द्रह दिन की थी जब सेवालय लाई गई थी।”
“तो सेवालय के कर्मचारियों ने मेरा नाम स्वाति रखा?’
इवा कंधे उचकाते हुए बोली, “हमें नहीं मालूम किसने तुम्हारा नाम स्वाति रखा। एक क्षण की खामोशी के बाद वह बोली, “पर इससे क्या फर्क पड़ता है कि किसने तुम्हारा नाम स्वाति रखा। हम तुम्हें प्यार करते हैं, क्या इतना काफी नहीं है?” इवा की नीली, पारदर्शी आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे। मनोवेगों पर कठोर नियन्त्रण रखने के बावजूद वह सिसक पड़ी। सुबकते हुए वह वहाँ से चली गयी।
जॉन स्वाति से पूछने लगा, “यह तुम क्या कर रही हो, हनी? क्या मिलेगा तुम्हें इससे?” स्वाति ने नजरें नीचे फर्श पर गढ़ा ली। वह ऐसा क्यों कर रही है, उसे स्वयं नहीं मालूम।
“हम चाहते तो तुम्हारा नाम बदल सकते थे…” जॉन बोला। “तुम्हारा कोई डेनिश नाम रख सकते थे। लेकिन इवा ने ऐसा नहीं होने दिया। उसने कहा तुम्हारा नाम स्वाति ही रहेगा।”
कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोला, “तुम अपनी माँ को परेशान मत किया करो। उससे ऐसे आसामान्य प्रश्न मत पूछा करो। वह तुम्हारे रवैये से इतना परेशान है कि रात भर सोती नहीं। बार-बार मुझसे पूछा करती है कि तुम्हें पालने में हमसे कहाँ कमी रह गयी।”
“ये असामान्य प्रश्न नहीं है,” वह फुंकारते हुए बोली. “मैं तेरह की हो गयी हूँ। मुझे पूरा अधिकार है अपने मम्मी-पापा के बारे में जानने का।”
“हम हैं न तुम्हारे मम्मी-पापा,” जॉन बोला।
“तुम मेरे मम्मी-पापा नहीं हो,” सपाट शब्दों में बोल कर वह अपने कक्ष की तरफ भाग गयी।
दूसरे दिन दोपहर में जब वह स्कूल से घर लौटी तो इवा और जॉन को ड्राइंगरूम में बैठे हुए पाया। दोनों ने उसकी तरफ मुस्कान बिखेरी। वह उन्हें नजरअंदाज कर अपने कमरे जाने लगी कि इवा के शब्द उसके कान में पड़े : “स्वाति बड़ी हो गयी है—एक टीनएजर! अभी तक इसका कोई बॉयफ्रेंड नहीं है। अगर इसका कोई बॉयफ्रेंड बन जाये तो अपने बॉयफ्रेंड के साथ मस्त हो यह अपनी उत्पत्ति-सम्बन्धी बातों को भूल जायेगी।”
स्वाति को एकदम से इवा से नफरत होने लगी। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह सहसा रुक गयी। पलट कर उनके सामने आई, और कस कर इवा पर चिल्लाई : “लीव मी अलोन—मुझे अकेला छोड़ दो…। मेरी जिन्दगी को चलाने की कोशिश मत करो।”
इवा के चेहरे पर अपराधी भाव आ गये। क्या करे वह? वह स्वाति को लेकर चिन्तित है, वह उसकी परवाह करती है, इसी भावना से वशीभूत होकर उसने सुझाया था कि अगर उसका कोई बॉयफ्रेंड बन जाए तो उसका मन बहल जाएगा…। मगर बात सुधरने के बजाए बिगड़ती ही जा रही है।
उस दिन इवा बहुत दिनों बाद उसके कमरे में घुसी थी। स्वाति हैरीपोटर उपन्यास की पाँचवी कड़ी पढ़ रही थी। स्वाति को यह उपन्यास विशेष तौर पर इसलिए पसंद आता था कि उपन्यास का महानायक हैरी भी अनाथ था, उसी की तरह…।
स्वाति महसूस कर रही थी कैसे हैरी और हिमाईनी यौवन प्राप्त कर जवान हो गये। एक-दूसरे के प्रति आकषर्ण महसूस करने लगे हैं। उसकी साइंस टीचर ने उन्हें होमवर्क दिया था : हैरीपोटर उपन्यास सीरीज में पहली पुस्तक से लेकर पाँचवी पुस्तक तक हैरी एवं हिमाईनी में क्या-क्या शारीरिक, मानसिक व भावानात्मक परिवर्तन आये? स्वाति उपन्यास पढ़ते हुए नोट्स भी ले रही थी।
इवा ने देखा कि स्वाति उपन्यास पढ़ने में मशगूल है। वह उसके अस्त-व्यस्त कमरे को सँवारने लगी। आहट से स्वाति का ध्यान भंग हुआ और उसकी नजर इवा की तरफ उठी।
स्वाति का ध्यान अपनी ओर खिंचते हुए देख इवा उससे प्रेमपूर्वक बोली, “स्वाति मुझे तुमसे कुछ कहना है…मैं इण्डिया जा रही हूँ। सेवालय भी जाऊँगी। चलना है तुम्हें मेरे साथ?”
बहुत सारे भाव स्वाति के मन में आ गये। इण्डिया! सेवालय! सहसा वह रोमांचित हो गयी। सहमती में उसने गर्दन हिला दी। हो… वह भारत जायेगी… सेवालय जायेगी… अपने देश… अपने पुराने घर… ।
“ठीक है, हम ईस्टर की छुट्टियों में इण्डिया जायेंगे। मैं टिकट बुक कर लेती हूँ,” इवा मुस्कुराते हुए बोली और उसे बाँहों में भर लिया।
ईस्टर की छुट्टियां आने पर बड़े उत्साह से स्वाति और इवा ने अपनी पेकिंग की। इवा ने सेवालय के बच्चों से लिये ढेर सारी चॉकलेट व बिस्कुट के पैकेट खरीदे। रेड क्रास से उनके लिये पुराने कपड़े भी ले आयी। एक शाम जॉन ने माँ-बेटी को एयरपोर्ट छोड़ा और वे एसएएस की फ्लाईट पकड़ दिल्ली, फिर दिल्ली से डोमेस्टिक फ्लाईट से चेन्नई पहुंच गये।
इवा ने पहले ही से मरीना बीच पर माउंट रेजीडेंसी होटल में अपने व स्वाति के रहने की बुकिंग की हुई थी। उनके कमरे की खिड़की से लहरें मारता समुद्र स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। स्वाति के मन में हिलौरे उत्पन्न होने लगी। वह समुद्र के नजदीक गयी। डेनमार्क में समुद्र इतना ठंडा रहता है मगर यहाँ गर्म था। बड़ी देर तक वह समुद्र की गर्म मौजों पर खेलती रही।
अगले रोज तड़के सुबह वे सेवालय के लिये निकल गये। इवा ने रास्ते में टैक्सी रुकवा कर बच्चों के लिये खूब सारे फल भी खरीदे। स्वाति रोमांच से भरी थी।
कुछ दूर की यात्रा तय कर टैक्सी शहर की कंक्रीट की पक्की सड़क छोड़ एक कच्ची सड़क में घुस गयी, धूल-कंकड़ों से भरी, ऊबर-खाबर सड़क पर डेढ़-दो किमी की दूरी तय कर एक अहाते के आगे रूक गयी।
लगभग आठ साल बाद स्वाति फिर वहीं खड़ी थी, जहाँ उसके जीवन के आरम्भिक सात साल बीते थे। सेवालय को उनकी विजिट के बारे में मालूम था, सो सभी उनकी इंतजारी कर रहे थे। स्वाति ने सेवालय का परिक्रमा किया।
हाँ कोई माता-पिता नहीं, सिर्फ कार्यकर्ता, जिन्हें बच्चों की ज्यादा परवाह नहीं। वे बस अपनी नौकरी बजा रहे। बच्चों ने पुराने-धुराने कपड़े पहने हुये। उनके खिलौने पुराने और टूटे हुये। अनाथालय को कोई भी नया सामान दान नहीं करता। चार साल से पन्द्रह साल तक के बहुत सारे बच्चे, एक कमरे में छह-आठ चारपाईयां लगी हुई, कंबल नरम नहीं और गद्दे-चादर बदबूदार, टॉयलेट भी ढंग के नहीं।
सभी बच्चे उसे उत्कंठा से निहार रहे थे, उससे बातचीत करना चाह रहे थे, पर वे सभी तमिल भाषी थे और वह तमिल भूल चुकी थी।
वह ऐसी जगह से आई है…! यह है उसका अतीत…! स्वाति और भी क्षुब्द हो गयी। उसके होंठ बंद हो गये। एक निरभ्र खामोशी उसने ओढ़ ली। बहरहाल सेवालय के अधिकारी इवा का बड़ा मान-सत्कार कर रहे थे। उसे अपने रजिस्टर खोल कर दिखा रहे थे। अनाथालय में जो निर्माण कार्य चल रहा था, उसे इवा को दिखा रहे थे। इवा भी उनसे बहुत कुछ बतिया रही थी। स्वाति को उनकी बातचीत से पता चला कि इवा सेवालय को प्रतिवर्ष दान दिया करती है। पैंट-ब्लेजर पहने लम्बी, गौरी-उजली इवा का व्यक्तित्व उसे उस पल बड़ा ही गरिमामय लगा। इवा व स्वाति ने मिलकर सेवालय के बच्चों को चॉकलेट, फल, बिस्किट्स व कॉपी व पैन वितरित किये।
इवा ने सेवालय को एक नया कंप्यूटर भी खरीद कर दिया। वे सभी इवा के कृतघ्न हो गये। स्वाति मन ही मन इवा के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गयी।
चेन्नई व बंगलौर के आलावा इवा ने स्वाति को दिल्ली और ताजमहल की भी सैर करवाई। एक हफ्ता भारत में बिता वे वापस डेनमार्क आ गये। वह दुनिया अलग थी, यह दुनिया अलग है। स्वाति अब इस दुनिया की हिस्सा थी।
पाँच माह बाद वह पन्द्रह की हो गयी। फिर आया पन्द्रह अगस्त, जो उसके लिये एक अनोखा दिन बन गया। भारतीय दूतावास छप्पनवाँ स्वतन्त्रता दिवस मना रहा था। हमेशा की तरह इवा और जॉन उसे लेकर भारतीय दूतावास पहुँचे। भारतीय राजदूत ने तिरंगे का ध्वजारोहण किया। तिरंगे को सैल्यूट मारते हुए सभी ने राष्ट्रीय गीत गाया। तदुपरान्त राजदूत ने राष्ट्रपति का संदेश पढ़ा, जोकि मुख्यतय : देश के बच्चों पर केन्द्रित था।
‘राष्ट्रपति महोदय, जब हम छोटे थे तो मुस्कुराते थे, क्योंकि तब हम मासूम थे। जब हम किशोरावस्था में पहुँच कर बड़े होने लगे तो हमारी मुस्कान फीकी पड़ती गई। हम अपने भविष्य के प्रति चिन्तित रहने लगे…।’
स्वाति को लगा कि वह संदेश उसके लिये पढ़ा जा रहा है। संदेश के उपरान्त जलपान का आयोजन था। लोग चाय, समोसा जलेबी खाते हुए परस्पर मेल-मिलाप करने लगे। एक समूह भारतीय राजदूत को घेरे हुए खड़ा था। यकायक स्वाति को कुछ सूझा। वह राजदूत की तरफ बढ़ी। उनसे पूछने लगी, “आप स्वाति का मतलब जानते हो?”
राजदूत ने उसे आश्चर्य से देखा। इवा और जॉन स्वाति को एम्बेसेडर से बात करते देख तुरंत उसके पास आ गये। स्वाति ने अपना प्रश्न दोहराया, “आप स्वाति का अर्थ बता सकते हैं?
“यह हमारी बेटी स्वाति है। अपने नाम का अर्थ जानना चाहती है,” इवा एम्बेसेडर को समझाते हुए बोली।
चतुर एम्बेसेडर ने उन तीनों को निहारा, कुछ मनन किया, फिर चहकते हुए बोले, “ओह तुम स्वाति हो! बेटा, स्वाति एक नक्षत्र का नाम है—एक ऐसा नक्षत्र जो विस्तीर्ण आकाश में झिलमिलाता है। तुम एक चमकीला तारा हो, खुले आकाश में,” कहते हए उनकी ऊँगली इवा की तरफ उठ गयी।
स्वाति ने इवा को निहारा, और इवा ने उसे। फिर दूसरे ही पल इवा ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया। वह अभी भी एक छोटी बच्ची थी। उसका बालपन अपने नाम का अर्थ ढूँढ़ रहा था। उसकी वह छोटी सी चाह पूरी हो गयी थी।
स्वाति इवा की बाँहों में मौन खड़ी थी। इवा के होंठ बंद थे, मगर स्वाति के कानों में चिरपरिचित गीत के स्वर बज रहे थे, जिन्हें सुनते हुए वह बड़ी हुई थी : ‘मैं तुम्हें निरंतर प्यार करूंगी, तुम्हें हमेशा प्यार करूंगी। जब तक मैं जीवित रहूंगी, मेरी बच्ची तुम ही रहोगी…।’ उस चातक की तरह जो वर्षा की एक बूँद के लिये आकाश की ओर मुँह किये खड़ा रहता है और बारिश की एक बूँद से उसकी प्यास बुझ जाती है, उसी प्रकार स्वाति के मन की प्यास अपने नाम का अर्थ जान कर तृप्त हो गई। वह अब संतुष्ट थी। एक स्वस्थ मनस्थिति से अपनी जीवन परिस्थितियों के विषय में सोच रही थी। उसके जैविक मातापिता ने उसे अपने शरीर का हिस्सा तो बनाया मगर उसे अपने जीवन का हिस्सा वे नहीं बना पाये। इधर इवा उसके शरीर का हिस्सा न होते हुए भी उसने उसे अपने जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया। भले ही उसने उसे जन्म देने की प्रसव-वेदना नहीं सही मगर उसके लिये एक अच्छी-खासी माँ बनने में वह सदैव पूरी तत्पर रही। जब वह बीमार पड़ती है, रात भर वह उसके सिरहाने बैठी रहती है। उसके एक्जाम के दिनों वह उसे पढ़ाती है। उसके स्कूल के हर कार्यक्रम में वह उपस्थित होती है। उसके लिये पोशाके खरीदना, उसे स्पोर्ट के लिए ले जाना, उसे ब्यूटी पार्लर ले जाना… क्या नहीं करती इवा उसके लिये। अगर वह उसे गोद नहीं लेती तो सेवालय में पड़ी रहती। हमेशा के लिये अनाथ रहती। इवा वास्तव में उसके लिये एक विस्तीर्ण आकाश है, और वह उसकी ममतामय आगोश में झिलमिलाता तारा…।
धीरे से उसने अपनी बाँहें इवा के चारों ओर कस ली। आँखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ने लगा। एक-दूसरे को बाँहों में भरे दोनों एक-दूसरे की देहों का स्पंदन, गर्म स्पर्श महसूस करते रहें। यह पहली बार था जब अपनी काली कलाई के ऊपर इवा की गोरी कलाई ने उसे उद्धेलित नहीं किया… ।
