
प्रकृति
जब प्रकृति लय छेड़ती,
स्वर ताल देता है पवन।
मुक्त स्वर से विहग गाते,
मुदित मन होते सुमन,
झूमके आते हैं वारिद,
तड़ित चमकाती गगन।
वृक्ष हो आनंदमय
झूमते होकर मगन।
मेघ गाते हैं मल्हारें,
निरख वसुधा की फबन।
फिर पपीहा पूछता,
पी हो कहाँ बोलो सजन,
वारि देकर मेघ करता
सप्तरंगी सा गगन।
है क्षितिज कितना सुहाना,
पा कर के दिनकर किरन।
हैं प्रकृति के रूप कितने
वायु धरती जल गगन।
है प्रकृति की देन सारी
कमल में अलि की गुंजन।
प्रकृति तो अनवरत करती
प्रलय में भी है सृजन।
हैं कहीं पर नवग्रह, तो
कहीं ध्रुव चमके गगन।
हृदय मन रंजन है करता
सुनके खंजन के वचन।
बोलती मधुभाष मैना
तितलियाँ उड़ती चमन,
पीर पीकर पर हृदय
की मुस्कुराते है नयन।
सुन प्रकृति के, गीत
शांति बजाता है ये मन।
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– भगवत शरण श्रीवास्तव ‘शरण’