
एक पक्षी की डायरी
-अमरेन्द्र कुमार
(१)
जब मेरा जन्म हुआ तो मैं अपनी प्रजाति के अन्य पक्षियों के जैसा ही दिखता था, मेरे माता-पिता ने मुझे ऐसा बतलाया और सदैव इसमें विश्वास भी किया। वह एक चमकता-दमकता वसंत था जो एक भीषण शीतकाल के बाद आया था। मेरा जब जन्म हुआ तो मौसम असमान्य रूप से गर्म था वसंत के प्रारंभ के हिसाब से, ठीक अफवाहों के बाज़ार की तरह। अमेरिका के मिशीगन प्रांत के एक छोटे से शहर में हमारा बसेरा था। आपको बता दूं कि मिशीगन की सर्दी जहां हड्डियाँ गलाने वाली होती है वहां गर्मी सुहावनी होती है। ऐसे में वसंत सर्दी और गर्मी के बीच हिंडोले की तरह आता और झूलता हुआ लापता हो जाता है। तो मैं बात कर रहा था अफवाहों की। कुछ ही महीनों के अपने सीमित अनुभव और दूसरों से सुने के आधार पर मैं सोचता हूँ कि यह ‘असामान्य’ तो प्रायः ही होता है। चिड़ियों में गप्पे लड़ाने की आदत भी बहुत है। कभी कम सर्दी, तो कभी अधिक गर्मी, असली वसंत तो नकली वसंत, कभी सूखा तो कभी बरसात, जल प्रदूषण तो कभी वायु प्रदूषण, आप गिनाएं और वे उनके गप्पों में न आयें! धृष्टता क्षमा हो लेकिन यह हमारे बुजुर्गों में अधिक प्रचलित है। वे अपने अनुभव को बढ़ा-चढ़ा के बताने में सिद्धहस्त हैं। ‘ये उन दिनों की बातें हैं’ अथवा ‘जहां तक मुझे स्मरण है’ अथवा ‘हमारे दिनों में’ ये सब नमूने हैं उनके वक्तव्यों के आरंभिक वाक्यांश के चाहे वे सोने से पहले के कथा वाचन हो अथवा पंचायत या कोई सामान्य बैठक या फिर आधुनिक ‘टॉक शो’। खैर, आपको यह भी बताता चलूँ कि ‘टॉक शो’ सिर्फ मनुष्यों के बीच ही नहीं हमारे यहाँ भी प्रचलन में है। अस्तु, जैसा कि मैंने पहले भी बताया कि कुछ समय तक तो सब सामान्य ही था। यह तब औरों को स्पष्ट हो गया और मेरे माता-पिता की चिंता का बहुत बड़ा कारण बना जब मैंने उड़ान का पहला-पहला प्रशिक्षण लेना शुरू किया। आरम्भ में सबने सोचा कि यह कठिन होगा जिसकी भरपाई थोड़े अधिक श्रम से की जा सकेगी लेकिन धीरे-धीरे यह ग्रंथि आकार लेने लगी कि यह छोटे-छोटे पक्षियों के बीच पाए जाने वाली उड़ान कौशल के सामान्य अंतर से कहीं अधिक था। शीघ्र ही यह बात आग की तरह फैलने लगी और जैसा कि अपेक्षित था बुजुर्गों के बीच कुछ अधिक ही। लेकिन मेरे माता-पिता का मेरे ऊपर विश्वास बना रहा। अंततः वह दिन भी आया जब मेरी कक्षा के सभी प्रशिक्षु अपने प्रशिक्षण के समापन के बाद पहली स्वतन्त्र उड़ान पर गए तब हम तीन – मेरे माता-पिता और मैं ही अकेले रह गए थे। वे सभी वसंत के चमकीले- गहरे नीले गगन में तुरंत ही अदृश्य हो गए। पहली बार मुझे आभास हुआ कि सफलता का रंग कैसा होता है – पारदर्शी, चटक, सघन और विस्फोटक भी, ठीक तरुण वसंत की तरह। उसी क्षण मुझे यह भी अनुभव हुआ कि विफलता क्या होती है – मेरे माता-पिता और मैं थे तो साथ-साथ लेकिन सहस्रों मील दूर कटे और बंटे हुए। हम तीन पास के वन में गए, दाना चुगने के लिए, भविष्य के बारे सोचते हुए, थोड़े चिंतातुर, कुछ उदास और टूटे हुए से…
वह दिन बहुत ही लम्बा साबित हुआ। सूरज था या अंगारा और उसकी चमक किसी को भी अंधा कर देती। हम तीन अँधेरे से बहुत पहले अपने घोंसले लौट आये थे – संभवत: किसी का सामना नहीं करना चाहते थे। मेरे माता- पिता धीमे-धीमे बतियाते रहे; मैं ठीक से सुन नहीं सका। मेरा अनुमान है कि वे मेरे बारे में ही बात कर रहे हों लेकिन क्या वह मेरी समझ और श्रवण शक्ति से परे ही रहा। संभव है मेरे भविष्य के बारे में। तभी मैंने सुना एक तेज शोर-गुल, बाहर की तरफ जब बाकी पक्षी लौट कर आये। अँधेरा घिरने लगा था। शोर के सुर में सुर मैं भी मिलाना चाहता था सदैव की तरह तभी मेरी दृष्टि मेरे माता-पिता पर पड़ी – उन्धते हुए, आँखें झिपझिपाते हुए। पता नहीं वे सो भी रहे थे कि मात्र सोने का उपक्रम अथवा दिखावा। मैंने देखा अचानक उनके ऊपर उम्र का साया जैसे गहरा गया हो। मेरा कंठ अवरुद्ध हो गया और उत्साह अचानक कुंद। धीरे-धीरे मैं अपने आप में लौटने लगा – मेरे ऊपर आशावाद फिर छाने लगा। एक पल ह्रदय में उत्साह और उमंगों के हिलोरे उठते तो दूसरे पल मैं सोचने लगता कि मुझे और व्यावहारिक होने की आवश्यकता है। ऐसे ही परस्पर विरोधी भाव न जाने कब तक आते रहे, जाते रहे कि मुझे याद भी नहीं कि कब मेरी आंख लगी।
अगली सुबह, सभी नए दिन के लिए तैयार थे। मेरे माता-पिता भी दाना-पानी और टूटते घोंसले की मरम्मत के लिए तिनके और लकडियाँ लाने चले। बर्फीली सर्दी के बाद घोंसलों को ठीक करना प्राथमिकता बन जाती है। मेरे कुछ मित्र नयें घोंसले बनाने की सोच रहे थे क्योंकि वे शीघ्र ही एक सो दो बनने वाले थे। मैं इस मोर्चे पर भी अन्य चीजों की भाँति ही अनिश्चित था। ऐसा नहीं कि मैं इसके लिए उत्साहित और तत्पर नहीं था लेकिन मेरा अनुमान है कि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था। सक्षमों का पलड़ा सदैव भारी रहा है।
मेरे माता-पिता जब निकले तब तक पूरी बस्ती खाली हो चुकी थी। मैं अपने घोंसले और पेड़ से नीचे उतर आया। मैं थोड़ी दूर तक उड़ सकता था। इस लिहाज से मेरी सीमायें थीं कि मैं कितनी दूर जा सकता था। लेकिन अब तो मुझे एकांत में आनंद आने लगा था। अरे, लेकिन एक मिनट, मैं कोई निपट अकेला नहीं था… वहां कितने ही खरगोश, गिलहरियाँ, चूहे, यहाँ तक कि सांप, तितलियाँ और कुछ तो हमारे अतिथि अप्रवासी पक्षी, कितना कुछ तो था वहां पर। मैं तो जंगल में जैसे खो ही गया। मुझे नहीं पता वह मेरा युवा उत्साह था अथवा वन का कोइ जादुई चमत्कार। जब मुझे प्यास लगी तब पास के एक झरने के पास मैं गया। तब तक दोपहर हो चुकी थी। शीघ्र ही, मेरा अनुमान है कि उस अलसाई दोपहर में मैं भी बेसुध हो गया हूँगा क्योंकि मेरी तन्द्रा तब भंग हुई जब मुझे चारों ओर चिड़ियों का शोर-शराबा सुनाई दिया। अँधेरा घिरने लगा था तो मैं अपने घोंसले की ओर लौट पड़ा। लौटते हुए मुझे जल्दी थी तब जाकर मुझे पता लगा कि मैं कितनी दूर निकल गया था। रात हो चुकी थी जब तक मैं लौटा। मैंने अपने माता-पिता को लौटा हुआ नहीं पाकर अचानक चिंतातुर हो गया। फिर थोड़े ही पलों में बहुत से ‘यह हुआ होगा’ अथवा ‘वह हुआ होगा’ के उहापोह में देर तक प्रतीक्षा करता रहा। मुझे लगा कि अब काफी देर हो चुकी है – यह सोच कर हृदय एक पल तो बैठने लगता फिर दूसरे ही क्षण मेरा मन आशावान हो जाता जब मैं अपने सक्षम माता-पिता और मेरे प्रति उनके स्नेह के बारे में सोचता। मुझे स्मरण नहीं रहा कि मैंने कितने समय तो आँख खोले उनकी प्रतीक्षा की होगी इसके पहले कि नींद ने मुझे सुला दिया। अगली सुबह जब मेरी ऑंखें खुलीं तो मुझे पहली बार अपना अमूल्य खो देने की अनुभूति हुई। कल रात वे लौटकर नहीं आये थे। बाकी सभी सुबह होते ही निकल पड़े थे। मुझे नहीं पता कि उनके साथ वस्तुतः क्या हुआ लेकिन मैं सदैव यही विश्वास के साथ जीता रहूँगा कि वे मुझे अकेले छोड़ कर कहीं यों ही नहीं चले जाते। मुझे उन्हें ‘विदा’ कहने का अवसर भी नहीं मिला।।
(२)
मुझे सब कुछ फिर नए सिरे शुरू करना था। मुझे दूसरों का तो पता नहीं लेकिन मैं एकदम तैयार था। मैं उनमें से नहीं जो अपनी कमियों के लिए भाग्य अथवा दूसरों को उत्तरदायी ठहराने में लगे रहते हैं। मुझे पता है मेरे अन्दर कई नैसर्गिक क्षमताएं थीं जिनकी कोई कामना करता है। मैं स्वस्थ था, भरपूर सांसें लेता था, चारो ओर देख सकता था, अच्छा खाता और पचाता था, दो पैरों पर भाग सकता था, क्या हुआ अगर जो मैं बहुत दूर तक और बहुत ऊँचें उड़ नहीं पाता था। जब मैं अपने चारो ओर घूम कर देखता हूँ तो मुझे ऐसे सूक्ष्म और नगण्य प्राणी दिखते हैं जिनका सारा अस्तित्त्व आपकी एक फूंक, चुटकी अथवा गलत कदम से खतरे में पड़ जाता है। मेरे पास बहुत कुछ था – यह मेरा विश्वास था और संतोष भी। अगली रात और फिर सुबह भी मैंने अपने घोंसले के अन्दर और बाहर देर तक प्रतीक्षा की कि शायद मेरे माता-पिता लौट आये।
लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी बताया कि कुछ चीजें कभी वापिस नहीं लौटतीं, कुछ पल कभी नहीं दोहराते। मैंने तथ्य को स्वीकार कर लिया था लेकिन भाग्य को नहीं। मैं घोंसले से नीचे उतर आया।
फिर क्या था – चारो तरफ मैं ही मैं था और मेरे ही इर्द-गिर्द सब-कुछ था। मैं हर तरफ निहारता, नया-नया पता करता, नए मित्र बनाता, पुराने से दुआ-सलाम, ग्रीष्म की वसंत से टकराती साँसों को अपनी छाती में भरता, लम्बे, और चमकीले दिनों का आनंद लेता विचरता रहता। समय बीतने लगा, दिन गुजरने लगे। अपने वय के मित्रों से मेरी अच्छी बनती थी। वे जब यहाँ होते तो मैं उनके साथ होता। जब वे बाहर चले जाते तो मैं अपनी दुनिया में मगन हो जाता। इस तरह मैंने दोनों प्रकार के प्राणियों के बीच मैत्रिक संतुलन बनाये रखा – एक जो उड़ सकते थे और दूसरे वे जो नहीं। इसके पीछे मेरी अपनी सीमा थी जिसका मुझे कृतज्ञ होना पड़ा ताकि मैं दोनों तरह के संसार से परिचित हुआ और जुड़ा रहा।
एक दिन सुबह, मेरे मित्रों ने मुझे पहले तो प्रेरित किया फिर दबाव दिया उड़ने के एक और प्रयास के लिए। यह नहीं कि मैं कोई डरता था लेकिन मुझे पता था कि मैं उसके लिए तैयार नहीं था उस समय। लेकिन आप तो जानते हैं कि जहाँ चार यार मिल जाए तो क्या कमाल होता है। मैंने भी सोचा कि बहुत दिन हुए। हम कुल ग्यारह थे और हमने लोगों के पास की बस्ती तक उड़ने का लक्ष्य तय किया।
एक-दो-तीन-।।और हम सब कुछ ही पलों में आसमान में थे। मैं हर्षित और अचंभित दोनों ही था कि सब कुछ शानदार रहा जब तक कि मैं एक बड़ी खिड़की के कांच से टकरा कर औंधे मुंह न गिर पड़ा। मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया और मैं अचेत हो गया। मेरी तो आँखें मुंद गयीं थीं और सर चक्कर खा रहा था, मित्रों ने ही दुर्घटना के बारे में मुझे बताया भी। जब मुझे होश आये तो मैंने घर के अन्दर किसी को घबराहट में कहते सुना –
“कोई पक्षी खिड़की से टकरा कर गिर पड़ा है, सिद्धार्थ जागो।।” एक महिला अपने पति को जगा रही थी। खिड़की खुली और एक आदमी का चेहरा बाहर झांका।
कुछ ही पलों में वह युवक अपने रात के लिबास में चलता हुआ आया। पहली ही झलक पाकर मेरे मित्र उड़ गए। मैं उन्हें क्या दोष दूं, मैं जो अगर उनके स्थान पर होता तो मैं भी यही करता। अगर मुझे थोड़ा भी आभास होता तो मैं उन्हें ऐसा ही करने के लिए कहता।
वह युवक मेरी ओर शीघ्रता से और सावधानी के साथ आगे बढ़ रहा था। मैं झाड़ी में फंसा हिलने-डुलने से भी लाचार था। वह आया और उसने अपनी दोनों हथेलियों में मुझे पकड़ लिया। पहली बार, मुझे किसी मनुष्य ने छुया था। वह छुअन सच में कोमल, स्नेहिल और उष्णता लिए था। मैंने औरों से मनुष्यों के बारे में बहुत ग़लत बातें सुनी थीं कि वे पक्षियों को पकड़ते हैं और हत्या कर खा जाते हैं। लेकिन एक मिनट, लेकिन बहुत ऐसे भी हैं जो चिड़िया को भोजन देते हैं, उनका और अन्य वन्य जीवों का ध्यान रखते हैं, पालन-पोषण करते हैं। ओह, गलत बातों का ही याद रह जाना कितना सामान्य है !
जब वह मुझे घर के अन्दर लाया तब तक मैं आदी हो चला था।
“लगता है यह कोई अमेरिकन कबूतर है” उसने अपनी पत्नी से कहा जो मुझे देखने के लिए बिस्तर से अचानक उठ बैठी।
उनका बेटा अभी तक बेख़बर सो रहा था। मेरी आँखों के सामने मेरे माता-पिता और हमारा घोंसला अचानक जैसे कौंध गया। यह आदमी का घोंसला था जिसे वे घर कहते हैं।
उन दोनों ने जब मेरा निरीक्षण किया, मैं उस आदमी की हथेली में ही पड़ा था। उसकी पत्नी ने मेरी आँखों के पास कुछ खरोंच के निशान देखे जिन्हें उन्होंने तुरंत ही खारिज़ कर दिया। उन्होंने वह सब नहीं देखा जहाँ मुझे चोट लगी थी, मेरे पंख, बाजू और गर्दन के पास। थोड़ी देर में निकटता से देखने पर मेरे तुड़े-मुड़े पंखों को देखकर उन्हें इसका भी पता चल गया। मेरी मुंदती आँखों को देखकर उसकी पत्नी ने घबड़ा कर पानी लाने को कहा।
“नैना, इसे रसोई में ले चलते हैं।” कहते हुए वह एक लम्बे हॉल और गलियारे को पार कर रसोई में ले आया, अपनी हथेली में हिफाज़त से मुझे रखते हुए।
“ मैं इसके ह्रदय की धड़कन को अपनी हथेली में महसूस कर रहा हूँ।” सिद्धार्थ ने अपनी पत्नी से कहा यह सोचते हुए कि आगे क्या करना है।
नैना एक कटोरे में जल लेकर आयी और सिद्धार्थ ने मेरे मुंह को उसमें डाल दिया। मैंने जल पीने का प्रयास किया लेकिन मेरा सर चकराने लगा।
“इसे फर्श पर रख दो और थोड़ा आराम करने दो।”, नैना ने जब कहा तो सिद्धार्थ ने मुझे टाइल के ठंढे फर्श पर धीरे से रख दिया। उन्होंने जल के कटोरे को मेरे तरफ धीरे से सरका दिया। मैं वहीं आँखें बंद किये फर्श पर पड़ा रहा।
मैं तो फिर बेहोश होने लगा था कि मैंने एक नरम हाथ का आत्मीय स्पर्श महसूस किया। इस बार वो नैना थी। मेरी आँखें खुल गयीं। मैंने उसकी आँखों में जो देखा उसे ही मानवीय संवेदना कहते होंगे।
“इसे दर्द हो रहा होगा, हमें क्या करना चाहिए?” नैना से सिद्धार्थ से पूछा।
“मुझे तो कुछ पता नहीं। हम इसे कुछ खाने को दे सकते हैं। यह क्या खा सकता है, नैना?”
मैं तो दोतरफा और आगे पीछे चल रहे संवाद को सुनता रहा।
“चावल अथवा और कोई अनाज?”
“क्या यह बासमती चावल खायेगा? भारत में तो पक्षी सब खाते हैं, यहाँ अमेरिकी पक्षियों का तो कुछ पता नहीं।”
“ओह, सच में। हो सकता हैं इन्होंने कुछ भी ऐसा देखा ही न हों यहाँ, फिर भी लेकर आओ थोड़ा।”
सिद्धार्थ हथेली में एक मुठ्ठी भर चावल लेकर आया और वहीं फर्श पर उसने उसे बिखेर दिया। मैंने वह सब देखा लेकिन मैं क्या करूँ यह मेरी समझ में न आया।
“मुझे लगता है इसे एक कटोरे में देना चाहिए तो इसे चुगने में आसानी होगी।”
“सही बोल रही हो”, कहते हुए सिद्धार्थ ने एक कटोरे में चावल और शायद दाल लाकर मेरी ओर सरका दिया। लेकिन मेरा कोई ‘मूड’ नहीं था। मैं आँखें बंद किये वैसे ही बैठा रहा।
वे मुझे लगातार घूरते रहे और जैसे-जैसे समय बीता चिंतित हो गए
“क्या यह ठीक है? मुझे तो डर लग रहा है।” नैना घबरा गयी थी, “यह हमारा नया घर है। मैं नहीं चाहती कि यहाँ ऐसा वैसा कुछ हो“
सिद्धार्थ ने मुझे देखा, फिर नैना को लेकिन कहा कुछ नहीं।
अंततः मैंने थोड़ा जल पिया। यह देख उनके चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी और वे आनंदातिरेक में एक दूसरे से लिपटने लगें। मैंने सोचा भी नहीं था कि मेरी एक पहल से उन्हें इतनी आश्वस्ति मिलेगी। स्थिति उतनी गंभीर नहीं थी जितना कि वे सोच रहे थे।
“पता है यह जब पूरी तरह से स्वस्थ हो जाये तो हम इसे शीघ्र ही जाने देंगे।”
“सही, इसे यहाँ रखने का कोई मतलब नहीं।” अब वे थोड़े स्थिर और निश्चिन्त लग रहे थे। अब मुझे उनके लिये चिंता होने लगी।
इस बीच, उनका एक छोटा बच्चा दौड़ता हुआ आया और सिद्धार्थ की बाँहों में चढ़ बैठा। सिद्धार्थ ने उसके गाल को चूमा। नैना ने पास जाकर दोनों को गले से लगा लिया। मैं यह सब देख रहा था और सोच रहा था उन बीते दिनों के बारे में जब मेरे माता-पिता मेरे साथ थे…
“देखो बेटा, यह क्या आया है हमारे पास।” सिद्धार्थ ने मेरी ओर ईशारा करते हुए कहा।
उनका बेटा चकित था। वह तेजी से सिद्धार्थ के कन्धों से उतरकर अपने पिता की उंगली पकड़े मेरे समीप आया।
मैं थोड़ा पीछे हट गया।
“ओह, तो यह अब चल सकता है” नैना ने खुश होते हुए कहा।
“अंकुर, क्या इसे छूना चाहते हो?” सिद्धार्थ ने बेटे से पूछा।
अंकुर जिज्ञासु और भयातुर दोनों था।
“क्या मैं छू लूं”
“हाँ” सिद्धार्थ ने उसे मेरे आगे कर दिया।
उसने अपनी छोटी हथेली को हिचकते हुए मेरी ओर आगे बढाया, लेकिन मैं तनिक पीछे हट गया। उसने मुड़कर अपने पिता को देखा।
“नहीं, लगता है यह मुझसे डर गया।” कहते हुए वह फिर सिद्धार्थ की गोद में चढ़कर बैठ गया।
“इसका नाम क्या है, डैडी?” बच्चे ने पूछा।
“हम्म, अच्छा सवाल है। मुझे वास्तव में पता नहीं। हो सकता है कि इसका कोई नाम हो ही नहीं।
“यह कैसे हो सकता है, डैडी? हर किसी का नाम होता है, आपका, मम्मी का, और मेरे स्कूल में सभी दोस्तों के नाम हैं।”
“तो हमें इसका कोई नाम देना होगा।”
“ठीक है, क्यों न हम इसे ‘बर्डी’ बुलाएँ।” बच्चे ने गोद में बैठे हुए मेरी तरफ बड़ी सी मुस्कान के साथ देखते हुए कहा।
“बहुत अच्छा।” सिद्धार्थ ने उसे गोद से नीचे उतारते हुए कहा। बच्चा मेरी ओर सावधानी के साथ दबे पावँ आने लगा, मैं जानते हुए कि वह सब उत्सुकता और स्नेहवश था। मैं रसोई के एक कोने की ओर दुबकने लगा। वहां बैठने के लिए एक बेंच जैसा था। मैं वहीं देर तक खड़ा रहा।
कुछ समय के बाद उनकी दिनचर्या शुरू हुई।
माँ ने बच्चे को खिलाया और सिद्धार्थ टेलीविजन देखने लगा। रह-रहकर वे मुझे देख जाते। मैं कभी सोता कभी जागता रहा लम्बे समय कि मैंने सुना
“जब तुम्हारी पूजा हो जाय तो सिद्धार्थ साईं बाबा की ‘उदी’ लाकर इसके शरीर पर लगा देना जहाँ इसे चोट लगी है।” नैना रसोई में खाना बनाते हुए कह रही थी।
थोड़ी देर के बाद मैंने देखा सिद्धार्थ और उसके पीछे उसके बेटे को मेरी ओर आते देखे। उसने शीघ्र ही एक हाथ से मुझे पकड़ कर दूसरे हाथ से मेरी गर्दन और दाये पंख पर ‘उदी’ लगा दी। मुझे पता भी न चला कि वह क्या था।
“हमलोगों को उदी की शक्ति का भान है। बर्डी जल्दी ही ठीक हो जायेगा। हम लोग कभी जान भी न पाएंगे कि यह बाबा के किसी भक्त के पास क्यों आया था।”
“बाबा कहते हैं कि सबके साथ समान और आदर के साथ व्यवहार करो चाहे वह कोई चींटी, अत्यंत निर्धन अथवा एक राजकुमार ही क्यों न हो। और उन्हीं के अनुसार अगर यह हमारे पास आया है तो हमारा पिछले जन्मों का कोई न कोई सम्बन्ध रहा होगा।”
“आज के समय में कोई भी इन बातों पर विश्वास करेगा भला, खासकर अमेरिका में!”
“सच, लेकिन हर देश और काल में विश्वास की कितनी परंपरायें रही हैं। फिर भी एक दूसरे के प्रति सभी अनजान रहे। हालाँकि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। देखो तो अमेरिका और कई अन्य देशों में लोग किस तरह ‘हैलोवीन’ मनाते हैं।”
एक लम्बा वार्तालाप चला। अंकुर वहीं खेलता रहा और रह रहकर मुझे देख भी जाता। वह तेज गरमी की बीत रही एक सुबह थी। घर के ‘पैटियो डोर’ और चारो ओर फैली बड़ी खिडकियों से धूप छन कर आ रही थी। ओह, वे बड़ी खिडकियां और उन पर लगे पारदर्शी कांच अभी कुछ घंटों पहले घटी दुर्घटना की याद दिला रहे थे।
नैना ने खाना बनाने के बाद पति को कहकर अंकुर को नहलाने के लिए ले गयी। इस तरह मुझे कुछ एकांत मिला और मेरी आँख लग गयी। मुझे पता नहीं आखिर कितना समय बीता, सोता तो कभी जागता, उन्निन्दा सा मैं पड़ा रहा कि मुझे उनके बातचीत के स्वर सुनाई दिए, जब वे खाने की मेज पर बैठे थे। मुझे अपने माता-पिता और उनके साथ बिताये पलों की स्मृति हो आयी जब मैं बच्चा था। मुझे आश्चर्य नहीं होता यह सोचकर कि कितना कुछ हमारे बीच समान है चाहे वे मनुष्य, पक्षी, अथवा कोई पशु हो।
अंकुर,”मम्मी, बर्डी क्या खायेगा?”
सिद्धार्थ, “ हमने कुछ चावल और जल दिए हैं इसे।”
अंकुर, “ लेकिन यह तो कुछ भी नहीं खा रहा।”
“हमें स्टोर से पक्षियों के लिए कुछ खाना लाना होगा। मुझे नहीं लगता कि ये अमेरिकी पक्षी चावल और गेहूँ से परिचित हैं। अगर ये भारत के होते तो अब तक इन अनाजों पर टूट पड़ते और चट कर गए होते।” नैना ने अपने विचार प्रकट किये।
वे खा रहे थे और बात भी कर रहे थे। यह हम पक्षियों में उतना आम नहीं। मुझे लगता है कि आदमी अधिक बातूनी होता है अथवा यह अमेरिका का असर हो!
मैं थकने और अलसाने लगा था, या फिर वह एक गर्म दोपहर का असर, जब सब कुछ उन्धने लगता है, एक प्रकार के नशे में, गरम हवा अथवा तेज रोशनी। मैं सोते से जाग पड़ा जब मैंने पूरे परिवार को मेरे चारो ओर खड़े और मुझे घूरते पाया।
सिद्धार्थ ने प्रस्ताव दिया, “दरवाज़ा खोल कर देखें कि अगर यह बाहर जाना चाहे?”
अंकुर, “या फिर हम इसे हाथ में लेकर बाहर चलें।”
“नहीं, इसकी हालत ठीक नहीं है। तुम लोग इसे बाहर ले जाने अथवा इसे हमेशा के लिए जाने देने की बात सोच भी कैसे सकते हो?” नैना से हस्तक्षेप करते हुए कहा, “देखो तो यह अपने आप खड़े होने की स्थिति में भी नहीं है।” अंकुर अत्सुकतावश लगातार देखे जा रहा था।
तो उन्होंने खुद ही निश्चय कर लिया। खैर, मैं तो कुछ सोचने और करने की स्थिति में था भी नहीं सिवाय बैठे रहने अथवा सोने के। मैं अगर थोड़ा झटक कर चलता अथवा दौड़ता तो मुझे पीड़ा होने लगती।
वह तपिश भरी चमकीली दोपहर थी।
मेरी तन्द्रा जब-तब भंग होती रही। जहाँ तक मैं ‘पैटियो डोर’ से देख पा रहा था, मैंने देखा सिद्धार्थ और अंकुर पीछे के लॉन में चले गए थे, वे भटकते रहे, खेलते, कूदते, एक दूसरे के पीछे भागते रहे। उन्होंने ताज़ा हवा के लिए दरवाज़ा खुला छोड़ दिया था शायद। नैना घर को सम्भालने में लग गयी। बहुत देर के बाद वह सोफे पर बैठ किसी पत्रिका के पन्नों को पलटते हुए सो गयी। वह एक लम्बी और अन्निंदी दोपहर थी। हर तरफ जैसे सन्नाटा पसरा था। मुझे कभी अच्छा, ठीक तो कभी बुरा लगता रहा।
“सिड, मुझे कुछ करना होगा, बर्डी ने सुबह से अन्न का दाना भी खाया नहीं है। स्टोर जाकर इसके खाने के लिए कुछ लेकर आओ।” नैना फिर से रसोई में आ चुकी थी।
मैं यह सुनकर नींद से जगा उठा।
घर के बाहर अभी उजाला था, सूरज पहले से भी अधिक चमकीला था लेकिन तपिश धीरे धीरे कम होने लगी थी। यह मध्य-पूर्व के राज्यों में से एक था।
“किसी ‘पेट-स्टोर’ से पूछ लें अगर उन्हें कोई आईडिया हो कि किसी घायल पक्षी का ध्यान कैसा रखना चाहिए।” सिद्धार्थ ने जवाब दिया।
अंकुर अब घर के अन्दर रसोई में खाने बनाने में व्यस्त अपनी माँ के साथ खेलने लगा। क्या यह सारे आदमियों में सामान्य है? इतना धोना, पोछना और पकाना या फिर यह सब नैना के साथ ही था? ओह, मुझे अपनी प्रजाति के बारे में यह संतोषजनक लगा कि सिर्फ खाने के लिए इतना कुछ नहीं करना पड़ता। हम बाहर जाते, खाते, पीते और लौट आते हैं। मैं तो सोचता था कि मनुष्य इतने विकसित हैं कि उन्होंने कुछ तो उपाय निकाल लिया होगा जीवन को सरल बनाने के लिए। अब मुझे लगता है कि यह सब इतना सरल नहीं, कम से कम इस परिवार के लिए तो नहीं ही। मैं जब से इस घर आया, दिन भर का यह सबसे श्रमसाध्य कार्य रहा, कम से कम नैना के लिए। ऐसा भी नहीं कि इनके पास पैसों अथवा किसी अन्य चीज की कोई तंगी थी। इस इलाके में इनका घर सबसे बड़ा था। मैं जिस क्षण इस घर में आया, मैं तो चकित रह गया था। यहाँ तक कि एक पल के लिए मैं अपना सारा दर्द भी भूल गया था। हो सकता है कि यह उनकी अपनी जीवन शैली थी।
कुछ मिनटों के बाद सिद्धार्थ कह रहा था,
“मैंने अपने शहर के पेट-स्टोर को फोन किया था। वहां की एक महिला ने कहा कि उनका पशु-चिकिस्तक किसी जंगली घायल पक्षी को नहीं देख सकता। लेकिन उसका कहना था कि वन्यजीवन विभाग वाले इस मामले में मदद कर सकते हैं। उसने मुझे कुछ व्यक्तियों के नाम भी दिए जो वन्य पक्षी के पुनर्वसन के विशेषज्ञ हैं।”
“ओह, तो उन्हें जल्दी फोन करो न।”, नैना ने मेरी तरफ देखते हुए कहा, “यह न तो पर्याप्त रूप से चला है और इसने खाया तो कुछ भी नहीं। इसे देखकर मुझे इतना बुरा लग रहा है।”
सिद्धार्थ फिर से फोन पर बात करने में लग गया। कुछ देर के बाद वह हताश सा लौटा।
“मैंने फोन करके सन्देश छोड़ दिया। मुझे लगता है कि शुक्रवार की दोपहर को किसी का मिलना कठिन है। लगता है सब लोग सप्ताहांत के लिए पहले ही जा चुके हैं। कोई नहीं, मैं जाकर इसके खाने के लिए कुछ ले आता हूँ इसके पहले की रात हो जाये।”
इसके पहले कि वह जाता, अंकुर दौड़ता हुआ उसके पास आया, सदैव की तरह उत्साहित,
“डैडी, मैं भी आपके साथ आता हूँ।”
दोनों जा चुके थे और नैना रात का खाना बनाने में व्यस्त होते हुए भी यदा-कदा मुझे भारी हृदय से देख लेती।
कुछ देर में मैंने घंटी की आवाज सुनी, यह न तो दरवाजे से आई थी और न ही किस दूर के चर्च से। मैंने जब घूम के देखा तो नैना पूजा गृह में एक हाथ में घंटी और दूसरे हाथ में दिया लिए खड़ी दिखी। वह वहां खाड़ी, गाती, घंटी बजती और देवताओं की मूर्तियों और फोटो के आगे दिये को गोल-गोल घुमाती रही। इस बीच सिद्धार्थ और अंकुर स्टोर से लौटकर लाये भोजन और बिस्तर को दिखाने लगे।
“जैसा तुमने कहा था कि पिंजरा नहीं लाना तो मैं यह बिल्ली वाला बिस्तर ले आया, यह बहुत मुलायम और आरामदायक है साथ में पक्षियों का खाना भी।”
“ठीक है, हम किसी को पिंजरे में कैद कर रखना नहीं चाहते। मुझे यह अच्छा नहीं लगता। बर्डी एक स्वतन्त्र पक्षी है। यह घायल होने के कारण यहाँ पर है।” नैना ने पूजा में व्यस्त होते हुए भी कहा।
“बर्डी को यहाँ ले कर आना ज़रा, मैं इसे आरती देना चाहती हूँ। भगवान इसे शीघ्र स्वस्थ होने में मदद करेंगे।” नैना ने कहा।
फिर मुझे पूजा कक्ष की ओर हांका गया। मैं तेजी से भागता हुआ एक कोने में जाकर खड़ा हो गया था। वहां मैंने देखा, सुन्दर सा उद्यान, हरे भरे पेड़, फूल, रंगीन पत्ते, चिड़ियों का झुण्ड, फूलों का गुलदस्ता, सभी नकली पर असली जैसे सुन्दर। मुझे तो लगा या तो मैं स्वर्ग में हूँ अथवा स्वप्न देख रहा हूँ। शीघ्र मुझे अनुभव हुआ कि मैं अभी भी कमरे के एक कोने में ही हूँ। वहां एक सजा हुआ झूला भी था। नैना ने एक मूर्ति, सुन्दर बच्चे की पोशाक में सजे जिसे वे बाल गोपाल कहते थे, को झूले पर बिठा कुछ गीत गाये जैसे कि लोरी गाकर छोटे बच्चे को सुलाया जाता है। उसने मूर्ति को उठाकर उसके कान में मेरी ओर लगातार देखते हुए कुछ कहा मानों मेरे स्वास्थ्य-लाभ के लिए पार्थना कर रही हो। मैं भावुक हो उठा, फिर भी उस कोने के अंतिम सिरे तक सरक आया। मनुष्य के सभी सुन्दर मंतव्य और कृत्य के बाद भी हमें उनसे दूर रहने की सलाह दी गयी थी। यह हमारे मन और मस्तिष्क में जैसे अंकित हो गयी हो।
नैना ने सबको प्रसाद बांटा और अंकुर की नन्ही हथेली में मेरे भोजन के ऊपर भी छिड़क दिया। उसके बाद उसने मुझे फिर पूजाकक्षा के उस कोने से रसोई को ओर भेज दिया। वहां मेरा नया बिस्तर तैयार था। पहले तो मेरी समझ में कुछ भी न आया पर जब सबने मुझे घेर लिया तो मैं घबड़ा कर उस पर कूद कर चढ़ बैठा। ओह, वह कितना नर्म, आरामदायक और गर्म था उस रसोई के ठंढे और कठोर फर्श की तुलना में।
“अच्छा लग रहा है।” नैना ने अपनी मुहर लगाते हुए कहा तो सिद्धार्थ और अंकुर उसे देखने लगे। मेरे बिस्तर के समीप एक कटोरा भर के वन्य भोजन एवं छोटी प्याली में जल रखे गए। अब बाहर अँधेरा होने लगा था। मैं भी थक के चूर हो गया था। मैं उस समय बस सोना चाहता था भोजन और जल के परे। लेकिन घर और रसोई के अन्दर इतना प्रकाश फैल रहा था कि पूछो मत।
रात का खाना समाप्त करने के बाद पूरे परिवार ने कुछ समय साथ बिताया, बातें करते, खेलते और टेलीविजन देखते हुए। यह सब देख मुझे मेरे बीते दिन याद आये, सोने के समय की कहानियाँ, बातें, सोच, चिंता, उत्साह, उमंग, सब कैसे अचानक तिरोहित हुए और सपने बन कर रहे गए। मैं सोने की कोशिश करता रहा लेकिन असफल ही रहा। फिर देर रात हर तरफ अँधेरा हो गया। मेरे आसपास बड़ी गहरी भुतैली छाया सदृश कई मूर्तियाँ खड़ी दीखीं। मैं तो एक बार डर के मारे चिल्लाना चाहता था कि सोचा वे तीनों ही होंगे। वे दबे स्वर में बातें कर रहे थे।
“लगता है कि यह सो गया था।” मेरी आँखें तो एकदम से खुली थीं। लगता है अँधेरा होने के कारण उन्हें ही देखने में मुश्किल हो रही हो।
“श।।श।।बोलो मत।” नैना ने सबको चेताया इसके पहले कि अंकुर कुछ बोले।
“अफसोस कि इसने आज कुछ भी खाया नहीं।” नैना फुसफुसा रही थी।
“परेशां मत हो। इसे जब भूख लगेगी तो यह खा लेगा। यहाँ पर सब पड़ा है।” वे जाते-जाते बातें करते रहे।
“क्या मैं बर्डी को ‘गुडनाईट’ बोल दूं, मम्मी?” अंकुर ने पूछा।
“क्यों नहीं” और सबने अत्यंत धीमे स्वर में कहा, “गुडनाईट, बर्डी!” और वे धीरे-धीरे ओझल हो गए।
वे दूसरे तल पर अंकुर के कमरे में गए। वे अब भी बतियाते रहे, शायद अंकुर के बिस्तर पर बैठे। मैं कुछ तो सुन और कुछ कल्पना कर रहा था। फिर मैंने सुने, कुछ किलकारियां, सोने के पहले के गीत – मधुर और कर्णप्रिय जैसे ग्रीष्म की रात में वसंत के मंद-मंद झोंके। अंकुर कह रहा था,
“मैंने बर्डी के लिए एक गीत रचा है, क्या मैं गाकर सुनाऊँ?”
“ओके” एक पारिवारिक आल्हाद और उन्माद हवा में तैर गया।
अंकुर अपने पञ्च वर्षीय सुमधुर स्वर और लय में गाने लगा।
“Hi Birdy, hello Birdy/हाय बर्डी, हेलो बर्डी
Get well Birdy/गेट वेल बर्डी…
God bless Birdyyy…/गॉड ब्लेस बर्डी…”
बच्चो के समुचित एक इच्छापूर्ण सुन्दर गीत, जो किन्हीं एकान्तिक क्षणों में किसी सुदूर चर्च के घंटे के स्वर से मेल खाता था। अंत एक जोरदार तालियों और उत्साह के साथ हुआ और वह सब बिस्तर के ऊपर और रात की नीरव घड़ी में। पहले तो बातचीत धीमी हुई फिर पूरा घर एक लम्बी शांति में डूब गया। मैं भी क्लांत और उन्निन्दा सा था, सो मैं भी सो गया…
(3)
अगली सुबह मैं जल्दी ही उठ गया। उस समय घर के बाहर और भीतर दोनों तरफ अँधेरा था। मुझे अच्छा महसूस हो रहा था। मुझे भूख और प्यास दोनों लगी थी। मैंने कुछ खाया और पानी पी लिया। मैं घर के अन्दर घूम रहा था, उधर परिवार अब तक सो ही रहा था। मैं अपने स्थान पर लौट आया और उनके जगने का इंतजार करने लगा। एक मिनट, क्या मैंने कहा कि मैं इंतजार कर रहा था?
जी, हाँ।
मेरे और उनके बीच एक संवाद स्थापित हो चला था। हम जाने अनजाने एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं, कभी सतही तो कभी गहरे तौर पर। ऐसा प्रायः होता है।
वह सप्ताहांत था, ऐसा मैंने सुना और वे देर से उठे उस दिन। मनुष्यों में सप्ताहांत होता है पर हम पक्षियों में ऐसा कुछ नहीं। मुझे लगता है कि अगर सप्ताह को अंत करना ही है तो शुरू ही क्यों करते हैं भला! मुझे पहले ही पता लग गया जब वे उठे और मुझे देखने के लिए मेरी ओर आने लगे। वे उठकर पहले पूजा के कमरे में गए और हाथ जोड़े खड़े रहे। उसके बाद वे मेरे पास आये। मैं अपने स्थान पर स्थिर उनकी गतिविधियों को गौर से देख रहा था। वे बात करने लगे।
“अरे, देखो कितना अच्छा है। बर्डी ने कुछ खाया, देखो यह कटोरा!”
“वाह, सच में। लगता है इसे यह खाना पसंद आया। और पानी की प्याली देखो, अब उसमें उतना पानी नहीं, इसका मतलब तो ये हुआ कि इसने पानी भी पिया।”
हर तरफ उत्साह, हर्ष और आशा का वातावरण बन गया, जब एक और आलोकित प्रात एक दूसरे चमकीले दिन की ओर अग्रसर हुआ।
इसके पहले मैं किसी मनुष्य के घर को अन्दर से देखा नहीं था लेकिन उस घर के खुलेपन, प्रकाशित और हवादार होने की प्रसंशा किये बिना मैं नहीं रह सका। मुझे जंगल के उस खुलेपन और उन्मुक्तता की स्मृति हो आई, अपना घोंसला, चारो ओर की हरीतिमा, और ऊपर आकाश की नीलिमा। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि आंधी, बरसात और तूफ़ान के समय कितना कठिन हो जाया करता था वहां। लेकिन इस घर की विशेषता थी, खुलेपन की विलासिता और ख़राब मौसम से सुरक्षा दोनों ही एक साथ। यह है मनुष्य का अदम्य कौशल! काश, हम पक्षी भी मानव से यह सब सीख पाते! आदमी को देखो, इन्होने हमसे ही उड़ना सीख लिया। यही नहीं इन्होने मछलियों से तैरना और जल में सैर करना भी सीखा। और हाँ, ये दो पैर से चलते और दौड़ते तो तेज़ हैं ही, फिर भी इन्होने रेल, सड़कें और कार बनायीं आदि, कितना गिनाया जाये।
मैं रसोई, पैटियो डोर, और अपने बिस्तर के आस पास घूमता रहा, जब उन्होंने अपने दिन की शुरुआत की, नैना ने अंकुर को नाश्ता कराकर और सिद्धार्थ ने चाय की चुस्की के साथ।
“हमलोग आज साईं बाबा के मंदिर जाने की सोच रहे हैं। मुझे चिंता हो रही है कि बर्डी हमारे बिना यहाँ कैसे रहेगा।”
“क्या मतलब है तुम्हारा? वह बिल्कुल ठीक रहेगा।” सिद्धार्थ ने जवाब दिया, “कुछ ही घंटों की तो बात है।”
“अच्छा, हम दोपहर को जायेंगे और लौटते लौटते आधी रात के करीब हो जाएगी। यह कुछ घंटे से तनिक अधिक है।”
अंकुर वहीं कागज, रंगीन पेन्सिल, और खिलौने से खेलने लगा तो नैना ने उसे नाश्ता समाप्त करने को कहा।
टेलीविजन खोलकर सिद्धार्थ ने मौसम का हाल जानना चाहा। थोड़ी देर के बाद, नैना तैयार होने चली गयी तो सिद्धार्थ अंकुर को उसके कमरे में तैयार करने ले गया।
कुछ समय के बाद वे सब पूजा कक्ष में एकत्रित हुए। पूरा परिवार भगवान के आगे खड़ा था, मुझे देख अच्छा लगा। प्रार्थना, भजन, गायन और भी बहुत कुछ पर सब साथ-साथ। मुझे भी आरती दी गयी और जल में मिलाकर उदी। कुछ घंटों में लंच के बाद वे जाने को तैयार थे।
निकलने से पहले सिद्धार्थ ने सुझाया,
“क्यों न हम बर्डी को उड़ाकर कर देखें? हमारा लिविंग रूम दो मंजिला ऊंचाई वाला, लम्बा और चौड़ा भी है और मुझे विश्वास है कि यह इसके उड़ने के लिए पर्याप्त होगा।”
अंकुर तो उत्साहित हो गया था जब तक कि नैना इसके बारे में सोचती रही। फिर सिद्धार्थ मुझे दूसरी मंजिल पर ले गया। अंकुर भी अपने डैडी के साथ-साथ दौड़ता हुआ आया।
नैना पहली मंजिल पर देखते हुए खड़ी रही। सबने एक बार फिर तय किया और भगवान का जयकारा लेते हुये मुझे वहां से उड़ा दिया।
“१-२-३” और मैं हवा में मंडराने लगा। मैंने घबड़ा कर नीचे देखा और अपने पंख को तेज़ी से हिलाने लगा। अचानक और कुछ ही पल में मैं सामने की ऊँची दीवार से टकराने के बाद धम्म से आ गिरा।
वे तीनों भागते हुए मेरे पास आये। मैं वहां किन्कर्तव्यविमूढ सा पड़ा रहा। मेरा हृदय लगातार बल्लियों उछल रहा था। मेरे पास आकर सिद्धार्थ ने मुझे फिर से हाथों में उठा लिया,
“ओह, यह तो बिल्कुल ही सही नहीं रहा। यह उड़ा तो जरूर पर थोड़ा सा ही। भगवान का शुक्र है कि यह फिर से घायल नहीं हुआ।
नैना चुप रही वहीं अंकुर दहशत में था। वे तीनों ही एक साथ निराश और किन्कर्तव्यविमूढ से थे।
सिद्धार्थ ने मेरी ओर देखते हुए कहा, “मैं इसके हृदय की तेज़ धड़कन को महसूस कर रहा हूँ। क्षमा करना, बर्डी।”
नैना और अंकुर दोनों ने पास आकर मेरी गर्दन और कंधे पर अपने हाथ रखे। मैं धीरे धीरे सामान्य हो रहा था।
नैना ने अचानक अचरज में कहा, “इसके पैर तो देखो जरा, धागे या और कुछ उलझा हुआ है। “अंकुर, जाकर एक कैंची लेकर आना तो।”
अंकुर भागकर गया और अपने नन्हें हाथों में एक छोटी सी कैंची लेकर आया और उसने डैडी के हाथ में थमा दी। घर का हॉल इतना बड़ा था कि वे हरदम दौड़ते-भागते रहते थे अगर कुछ लाना अथवा ले जाना हो तो, खासकर छोटा अंकुर…
सिद्धार्थ ने एक हाथ में मुझे थामे दूसरे हाथ से गुच्छे को काटने को था कि नैना ने अचानक घबड़ा कर कहा,
“सावधानी से”
सिद्धार्थ एक पल के लिये रुका, फिर सावधानी के साथ गुच्छे को काट कर उसने अलग कर दिया।
ओह, मुझे ऐसा लगा कि वर्षों की पड़ी बेड़ी से मुक्ति मिल गयी हो। मैं अपना पंजा अब पूरी तरह से खोल सकता था जो कितना आरामदायक था। मैं कोटिशः धन्यवाद इस परिवार को देना चाहता था कि मैंने सिद्धार्थ को कहते सुना
“देखा, गुच्छा कटने के बाद यह कैसे अपने पंजे को खोल पा रहा है।”
“सच!” नैना और अंकुर ने खुश होते हुए एक साथ कहा। वे एक बार फिर प्रसन्नचित्त हो गए थे।
दूसरे शहर निकलने से पहले वे तीनों मुझे देखने एक बार फिर आये, हर दरवाजा, खिड़की, चूल्हे को बंद करते हुए, मेरे लिए भोजन और पानी के प्रबंध को समझते हुए। मुझे लेकर वे चिंतित थे…
“पता नहीं, बर्डी इतने समय कैसा महसूस करेगा और रहेगा।”
अंकुर का बालसुलभ सुझाव कि इसे कार में लेकर चलते हैं पर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया। मैं वहां स्थिर बैठा सब देखता-सुनता रहा।
जाने के ठीक पहले वे पूजा कक्ष के पास गए, हाथ जोड़े, सुरक्षित लौटने, घर की और मेरी रक्षा के लिए प्रार्थना की। मैं चकित था उस छोटे परिवार की बड़ी निष्ठा और प्रेम को देखकर, अपने और अपने भगवान से लेकर घर-द्वार और मुझ तक…
फिर मैंने सुना दरवाजा बंद होते हुए, कार के चलने की आवाज और फिर एक अंतहीन सन्नाटा, एक ऐसा सन्नाटा जो मेरे अनुमान से अधिक देर तक पसरा रहा। गर्म दिन का अंत बाहर तेज हवा के चलने के साथ हुआ, मैं पैटियो डोर के पारदर्शी शीशे से बाहर देख सकता था।
मैंने घर के कई चक्कर लगाये, पता नहीं मैं उनकी कमी महसूस कर रहा था अथवा मुक्त, यह कहना मुश्किल था। फिर अँधेरा घिर आया, वे अब तक लौटे नहीं थे। मुझे नहीं पता जब उन्होंने ‘लम्बा समय’ कहा था तो सच में वह समय कितना लम्बा होना था। जैसे-जैसे बहार अँधेरा बढ़ने लगा मैं अन्दर से अधिक उदास महसूस करने लगा। जाने से पहले उन्होंने कुछ स्थान पर बत्तियां जलती छोड़ दी थीं, इसलिए मैं घर के अन्दर भटका तो नहीं। मैंने कुछ खाया और जल पी लिया, आप मनुष्य की समझ के लिए वह मेरा ‘डिनर’ रहा। मैं थक गया था इसलिए मुझे याद नहीं रहा कि मैं कब सो गया…
मैं जगा जब वे लौटे, कितनी देर से मुझे अनुमान नहीं। लेकिन जब आये तो सीधे मेरे पास। उन्होंने सारी बत्तियां एकसाथ जला दीं। मैं इतना सारा प्रकाश अचानक देख औचक्क रह गया।
“ओह, लगता है हमने सोते हुए बर्डी को परेशान कर दिया।”
“हाय, बर्डी, कैसे हो?” यह अंकुर के सिवा कौन हो सकता था?
“ओके, बर्डी अब और परेशान न करें हम।” सिद्धार्थ ने कहते हुए बत्तियां बुझा दीं। ओह, बड़ी राहत मिली। “ऐसे ही बहुत रात हो चुकी है। चलो चलें अपने अपने बिस्तर पर। मुझे भी कल आफिस जाना है।”
“ओह, सप्ताहांत समाप्त हो गया।” नैना ने लम्बी सांस लेते हुआ कहा। मेरे अनुमान से वह आफिस जाती तो थी नहीं और अंकुर का स्कूल गर्मी के समय बंद था। जब वे चले गए, एक बार फिर पूरा घर अँधेरे और सन्नाटा में डूब गया। मैं बाहर देख रहा था खिड़कियों से, हवा ने तेज़ आंधी का रूप ले लिया था, जिसमें पेड़ और झाड़ियाँ हिचकोले खा रहे थे। रात के उस ढलते पहर में चमकते सफ़ेद बादल टिमटिमाते तारों पर तैर रहे थे। और उसके आगे मुझे कुछ भी याद नहीं…
(4)
लगता है मैं सुबह देर तक सोता रहा था। मैंने सिद्धार्थ को नैना से कहते सुना, “प्लीज, पुनर्वसन वाले का फोन आये तो उठा लेना।”
“ज़रूर, मैं बात कर लूंगी।” नैना ने कहा, “ लगता है बर्डी रात को ठीक से सो नहीं पाया।”
“सही कह रही हो। पता है, हम लोग देर रात आये और इसको बत्ती और शोर करके हमने इसे सोते से जगा दिया।”
जहाँ वे दोनों सहमत लगे मैं सोच रहा था कि यह हम पक्षियों के लिए इस तरह टुकड़ों में सोना और जागना आम बात है। हमें जंगल में हरदम चौकन्ना जो रहना पड़ता है। इस घर में कम से कम इस तरह का कोई खतरा तो नहीं। उस पर और अच्छी बात कि इनके पास और कोई पालतू जीव नहीं, जैसे कुत्ते, बिल्लियाँ आदि। कदाचित मैं उन्हें यह सब बताकर आश्वस्त कर पाता!
जाने से पहले नैना ने सिद्धार्थ को गले लगाया तो बदले में सिद्धार्थ ने उसे चूम लिया। मुझे लगा अंकुर के अब तक बिस्तर में होने के कारण ऐसा संभव हो पाया। यहाँ इतने कम समय में ही मैं पूर्व और पश्चिम के सांस्कृतिक अंतरों को महसूसने लगा था।
‘बाई’, ‘स्योर’, ‘हनी’ आदि के एक लम्बे सिलसिले के बाद ही मैंने इंजन के चलने की आवाज सुनी और नैना को मुख्य दरवाजे से हाथ हिलाकर विदा करते देखा।
कुछ समय के बाद, नैना घर संभालने, सफाई, और खाना बनाने में व्यस्त हो गयी। मेरा पैटियो डोर तक चक्कर लगाना नैना के दृष्टी में छुपी न रही। ऐसा नहीं कि मैं बोर हो रहा था या कुछ और पर मैं बाहर जाने के लिए बेचैन हो रहा था। कुछ समय के बाद मैंने घूम के देखा तो नैना और अंकुर दोनों को मुझे घूरते हुए पाया। मैं वापिस अपने बिस्तर के ऊपर आकर चुपचाप बैठ गया।
इसके बाद यह एक प्रकार का ‘रूटीन’ हो चला। नैना हर सुबह रसोई की सफाई करती। वह हलके से मेरे बिस्तर से मुझे भगाती ताकि मुझे बुरा न लगे। वह फर्श साफ़ करने के बाद मेरा बिस्तर भी साफ करती और संभालती। मैं तब तक पैटियो डोर के पास खड़ा सफाई की समाप्ति का इंतज़ार करता। जब सब हो चुका होता तो वह मेरे पास आती और मुझे फिर बिस्तर तक जाने के लिए बाध्य करती। उसने मेरे बिस्तर को धोने और सुखाने की मशीन में भी डालती ऐसा उसने सिद्धार्थ को कुछ दिनों के बाद बताया।
फोन बज उठा, ओह वह आवाज इतनी ऊँची न थी फिर भी वहां हर कुछ जो पहली बार होता मुझे दहला देने वाला लगता, फिर मैं धीरे उसका अभ्यस्त होने लगता।
“हेलो, मैं नैना”, नैना ने एक हाथ में फोन लिए दूसरे हाथ से अंकुर को नाश्ता कराते हुए कहा।
“मैम, आपके फोन के जवाब में फोन कर रहा हूँ। इस नंबर से किसी ने वीकेंड में एक सन्देश छोड़ा था। हमलोग उत्तर के जंगल में गए थे।” एक बहुत ही गंभीर और भारी आवाज नैना के हैंडसेट से आ रही थी।
“बहुत धन्यवाद आपका वापिस फ़ोन करने के लिए। क्या आप कुछ कर सकते हैं? क्या सिड ने बताया कि हमारे घर एक घायल कबूतर आया हुआ है।” नैना थोड़ी घबरा उठी थी संवाद के अंतिम छोड़ पर।
“ओह, हाँ उन्होंने ऐसा कहा था। दुर्भाग्यवश, मैं कबूतर के पुनर्वास का जानकार नहीं। मैं बाज के पुनर्वास का विशेषज्ञ हूँ और अभी कुछ हमारे संरक्षण में हैं।” दूसरी तरफ की आवाज ने कहा, “लेकिन, मैं आपको मिस लिंडा का संपर्क फ़ोन दे सकता हूँ जो अभी कबूतर के पुनर्वास के हमारे क्षेत्र के जानकारों में अग्रगण्य हैं।
“ओह, यह तो सच में बहुत बढ़िया है।” नैना ने नंबर लिख लिया।
कुछ ही मिनटों के उपरांत उसने लिंडा को फ़ोन करके सन्देश छोड़ दिया।
एक गहरे उहापोह, अनिश्चिन्ताताओं और चिंतातुरता में मैं पैटियो डोर के आस पास मंडराने लगा। मैं डोर पर अपनी चोंच से ताबड़तोड़ प्रहार करने लगा कि कहीं कोई कोना खुला मिल जाए। नैना और अंकुर दोनों ने मेरी तरफ तनिक उदास और तनिक आशंका में देखा। मैं वापिस अपने स्थान पर आ गया।
जैसे समय बीता, दिन का तेवर बदल गया। एक तेज आंधी से पूरा वातावरण जैसे हिल गया। जल्दी ही बिजली की चमक और बादलों की कड़क के साथ तेज़ बारिश होने लगी। अंकुर और नैना दोनों चिंतित दिखे। मैं तो उस घर के आरामदायक वातावरण में निश्चिन्त हो बैठा रहा जब तक कि अंकुर ने बाहर जाने की जिद में दरवाजा न खोला। नैना ने उसे थोड़ी प्रतीक्षा करने के लिए कहा। मौसम का यह प्रकोप कुछ समय तो चलता रहा। जंगल में रहते हुए यह सब देखना और झेलना हमारे नित्यकर्म में था। यहाँ तक कि हमारे घोंसले उड़ जाया करते थे। और, और हम घोंसले से निकल उसके एक एक तिनके को उड़ते, बिखरते और लुप्त होते बेबस हो देखते रहते। कई रात बेघर हो डालियों पर बितानी पड़ती, ऐसा हमने बुजुर्गों से कई कहानियाँ सुनीं। मैं इस अर्थ में भाग्यवान निकला कि मुझे ऐसे किसी निज के अनुभव से अब तक नहीं गुजरना पड़ा। मैं तो इसकी कल्पना से काँप जाता हूँ। पर वो क्या कहते हैं कि हौसला हो तो चिड़ियों सा, हम तिनके-तिनके जोड़कर, बार बार बिखर कर भी संवर जाते हैं। खैर, बाहर सब कुछ सामान्य होने से पहले एक डरावने अंधेरे में डूब गया था। औरों की तरह मैंने भी थोड़े समय के बाद धीरज को प्राप्त किया।
सिद्धार्थ के शाम को घर लौटते ही वह संवाद फिर लौट यया।
“क्या पुनर्वसन वाले ने फोन किया था?”
“हाँ, एक ने फोन किया था लेकिन वह बाज का जानकार निकला। उसने कबूतर के लिए मिस लिंडा का फोन दिया। मैंने कई बार फोन किया बाद में एक सन्देश छोड़ दिया।”
“ओह, मेरा अनुमान है मिस लिंडा का अब तक जवाब नहीं आया, है न?”
अंकुर दौड़ता हुआ सिद्धार्थ के पास आया और लैपटॉप का बैग लेकर जाने लगा, जिसे उसने लिविंग हॉल के मध्य में ही अधिक भारी होने के कारण छोड़ दिया।
“बर्डी बहुत विचलित रहा आज दिन भर। वह आज दिन भर इधर उधर भागता रहा, पैटियो डोर से टकराता हुआ मानो बाहर जाना चाहता हो। मुझे ख़राब लगता है। यह अपनों को याद कर रहा है, यह मेरा विश्वास है। तुम्हें पता है न, हम में से हर कोई अपनों के साथ रहना चाहता है।”
सिद्धार्थ चुपचाप सुनता रहा वहीं अंकुर अपने खिलौने से खेलता रहा। मैं नैना की भावनाओं और सोच से भावुक हो उठा। हालाँकि, मुझे मालूम है मैं किसी सम्बन्धी अथवा मित्र से मिलने के लिए विचलित नहीं था। मेरे माता-पिता के जाने के बाद कोई ऐसा निकट का नहीं था जो मेरे बारे में सोचे या जिसे मेरी चिंता हो। इसका मुझे पूरा विश्वास था। फिर भी, एक अच्छी सोच और अपनापा कहीं आपको अन्दर तक छूती है, यहाँ तक कि उसका वास्तविकता से दूर दूर तक का सम्बन्ध अगर न भी हो।
नैना ने कहना जारी रखा, “हम मनुष्य सोचते हैं कि हम ही बुद्धिमान है पर ऐसा नहीं है। सभी जीवों में भावनाएं, अपनत्त्व और बुद्धिमत्ता, होती है, कम या अधिक, कौन जाने”
मैं अधिक सहमत नहीं हो सकता था।
मैं पैटियो डोर तक गया देखने के लिए कि बाहर अब कैसा होगा।
“देखो, बर्डी अभी भी वही कर रहा है।”
“मैं मिस लिंडा को अभी फ़ोन करता हूँ।” सिद्धार्थ ने कहते हुए फ़ोन उठाया फिर इशारे से बताया कि दूसरी ओर भी किसी ने फ़ोन उठा लिया है, एक फीकी मुस्कान और चिंता के रेखाएं दोनों एक साथ उसके चेहरे पर उभर आयीं।
“हेल्लो, मिस लिंडा, मैं सिड बोल रहा हूँ। मेरी पत्नी ने आपको कई बार फोन किया था और सन्देश भी छोड़ा था।” वह फोन पर संजीदा था जितना कि हो सकता था। हालांकि, दूसरी तरफ मामला कुछ और ही लग रहा था और एक अप्रत्याशित उत्तर ने संवाद के सारे दरवाजे बंद कर दिए।
“आप फिर से फोन न करें। मैंने यह काम करना अब बिल्कुल ही बंद कर दिया है।” सिड चुप हो गए फोन हैंडसेट को देखता रहा जबकि नैना और अंकुर किसी अच्छे समाचार की आशा में उसे देखते रहे।
“ओह, तो उन्होंने मेरे मुंह पर ही मना कर दिया।” सिद्धार्थ ने उस वैचित्र्य से उबरते हुए कहा। “मैं तो हत्प्रभ रहा गया जिस तरीके से उसने व्यवहार किया।”
“लेकिन उन्होंने ऐसा किया क्यों, सिड?” नैना ने प्रश्न किया तो अंकुर देखने लगा। मैं अब तक इससे उदासीन हो चला था।
“खैर, अब मैं जब गहराई से सोच रहा हूँ तो मुझे लगा रहा है उन्होंने ऐसा क्यों किया। तुमको मालूम होना चाहिए कि आज की तारीख में धन ही सब कुछ है। वे दिन बीत गए जब लोगों को हर काम के लिए अनुदान मिला करता था, वैज्ञानिक अनुसन्धान, शोध, कला से लेकर परोपकार तक। इन दिनों, आर्थिक अनिश्चितताओं के बीच कोई किसी के बारे में सोचता तक नहीं। ऐसे में, किसको पड़ी है जंगल, वन्यजीव, पशु-पक्षी, पर्यावरण आदि की। जब आदमी ही को कोई पूछता नहीं तो बाकी चीजों के बारे में भूल ही जाओ। दसों लाखों नौकरियां पिछले कुछ सालों में जो गयीं वे कभी लौटकर आयीं नहीं। मेरा अनुमान है कि मिस लिंडा को अनुदान मिलना बंद हो गया होगा तो उनकी रूचि भी इन सबसे अब जाती रही। मैं गलत भी हो सकता हूँ कौन जाने।” सिद्धार्थ का तर्क और विश्लेषण कारगर रहा और नैना निर्निमेष देखती-सुनती रही। अंकुर अपने खेल में लौट आया था।
“यह दुर्भाग्यपूर्ण है, पर जो है सो है।” सिद्धार्थ ने सोफे पर बैठते हुए अपनी टाई ढीली कर ली। कुछ मिनटों के बाद नैना और सिद्धार्थ ने साथ बैठकर चाय पी। यह सब सुनकर मैं भी उतना ही निराश हुआ जितना कि वे। अब मैं यहाँ से निकल जाना चाहता था, पता नहीं क्यों आवेशवश मैंने अपनी चोंच, शरीर और पंजों से पैटियो डोर पर प्रहार करना शुरू कर दिया। वे चिंतातुर हो मेरी ओर देखने लगे।
“मेरा तो यह अनुमान है कि अब कोई अधिक आशा नहीं बची है हमारे लिए। बर्डी भी बहुत बेचैन है। इसे अब जाने देते है।” सिद्धार्थ ने निर्णयात्मक स्वर में कहा।
ऐसा सुनते ही अंकुर भागता हुआ उनके पास आ पहुंचा।
“डैडी, बर्डी क्या हमलोगों को छोड़कर जा रहा है?” अंकुर ने पूछा। उसकी नन्ही आँखों में चिंता की रेखाएं स्पष्ट हो गयीं और चेहरा उदास।
“आर यू स्योर, सिड, क्या बर्डी अपने आप बाहर जाने में सक्षम है? मुझे तो डर है इसे कुछ हो गया तो। कोई जानवर, जैसे कुत्ते और बिली अगर हमला न कर दे। यह तो उड़ पायेगा नहीं।” नैना ने कहा लेकिन जब उसने मुझे इतना ही न विचलित देखा कि उसका स्वर अंततः बदल गया।
“अच्छा तो अगर बर्डी यहाँ रहना ही नहीं चाहता तो हम कर ही क्या सकते हैं? मैं सोचती हूँ कि यह अपने सम्बन्धियों के पास जाने के लिए बेचैन है और किसी भी कीमत पर यहां से जाना चाहता है।”
यह सुनना कि ‘बर्डी यहाँ और रहना नहीं चाहता…’ मुझे अन्दर तक बींध गया और मैं धीरे-धीर थोड़ा संयत होने लगा। मैं अपने बिस्तर के पास चला गया ताकि उन्हें सोचने और निर्णय लेने का अवसर मिल पाय।
“अंकुर, बर्डी हमें छोड़ कर जा रहा है आज। कृपया आकर उसे ‘गुडबाई’ कह दो।”
अंकुर दौड़ता हुआ आया और अपनी माँ का हाथ उसने पकड़ लिया, सिद्धार्थ ने धीरे से पैटियो डोर को खोला तब तीनों मुझे लगातार देखे जा रहे थे। मैं भांप गया था कि वे क्या करने की कोशिश कर रहे थे। मैंने आगे पीछे कई बार देखा फिर धीरे धीरे दरवाजे को ओर बढ़ने लगा। वे तीनों धीमे से पीछे हट गए।
“आज लगता है यह बाहर चला जायेगा।” सिद्धार्थ ने फुसफुसाते हुए कहा।
“ओह भगवान, बर्डी की रक्षा करना!” नैना ने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहा।
मैं दरवाजे की ड्योढ़ी पर लड़खड़ा गया। सबको एक साथ कहते हुए मैंने सुना, “ सावधान बर्डी!” और वे मेरी तरफ मदद के लिए आने लगे लेकिन एक दूरी को तब भी बरकरार रखा, शायद कि मुझे निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र रहने दे कि मुझे बाहर जाना है या नहीं, बाहर यानी कि हमेशा के लिए…
मैं बाहर निकल आया, आज़ाद और ताज़ा हवा में सांस लेते हुए, दो पैरों पर ही चलते हुए जैसा कि मैंने उन्हें कहते सुना।
“बाई बर्डी, बाई बर्डी, गॉड ब्लेस यू बर्डी…” अंकुर धीमे स्वर में गा रहा था कि किसी के रुंधे गले से आता कोई स्वर सुनायी दिया जैसे कोई सुबक रहा हो। मैं मुड़कर देखना चाहता था लेकिन मैं जानता था कि मैं ऐसे में सरलता से दुर्बल पड़ जाऊँगा सो मैं अपनी कांपती टांगों पर तेज़ी से आगे बढ़ता चला गया।
वे बातें कर रहे थे।
“बर्डी जा कहाँ रहा है? देखो यह चल रहा है उड़ नहीं रहा, मैंने कहा था न।” यह कोई और नहीं नैना थी।
“सही, पता नहीं इस तरह यह कितनी दूर जा पायेगा। और देखो तो, यह झाड़ियों में ठीक से चल भी नहीं पा रहा। यह झाड़ियाँ नुकीली भी कितनी हैं।” सिद्धार्थ की चिंता एक सच और अकारण नहीं थी। वे बात कर ही रहे थे कि मैं इस बार बुरी तरह से लड़खड़ा गया और इस तरह लॉन के बीच उग आई झाड़ियों में पड़ा रहा। इस बार मैंने देखा वे बाहर निकल आये और एक बार फिर मेरी तरफ सावधानी के साथ आने लगे। मैं और दूर नहीं जा सकता था।
“मेरा विश्वास है की बर्डी को फिर इन नुकीली झाड़ियों से चोट लगी। ओह!” चिंतित नैना ने कहा।
“जाकर देखता हूँ।” कहते हुए सिद्धार्थ मेंरे पास आया। उसने हाथ बढाकर मुझे फिर से अपनी हथेली में ले लिया। मैंने कोई प्रतिरोध भी नहीं किया। मैं कर भी नहीं सकता था।
कुछ ही पलों में मैं फिर घर के अन्दर था। वे मुझे फिर ध्यान से देख रहे थे की कहीं चोट अथवा खरोंच तो नहीं लगी।
“भगवान का लाख-लाख धन्यवाद। बर्डी बिल्कुल ठीक है। मैं जानती थी कि यह अभी बाहर जाने लायक नहीं था।” नैना ने हाथ जोड़े प्रार्थना करते हुए कहा।
अंकुर की ख़ुशी के तो ठिकाने नहीं और नहीं सिद्धार्थ और नैना की। पूरा घर आनन्द निमग्न हो गया था वहीं मैं अपने इस छोटे कारनामे के बाद सोने की तैयारी में था। खैर, हर किसी को प्रयत्न करते रहना चाहिए। मुझे विश्वास है कि एक दिन मैं बाहर जाऊंगा, वहां जहाँ से मैं आया था। तब तक मुझे प्रतीक्षा करनी होगी। धैर्य और संयम के साथ प्रतीक्षा, एक पाठ जो आज मैंने सीखा…
(5)
कुछ दिन और बीत गए। मैं पहले बहुत अच्छा अनुभव कर रहा था। मैं उनके बड़े से लिविंग रूम में छोटी उड़ानें भरता। वे मुझे देखते और सोचते कि मैं अच्छा कर रहा हूँ। वे आये दिन बातें करते, पक्षियों, मनुष्य, पालतू जीवों के बारे में, यहाँ और वहां…
एक दोपहर को एक लड़का आया और उसने पैटियो डोर को जोर से पीटा। वह अंकुर की उम्र का और उसका दोस्त था। नैना ने दरवाजा खोलते हुए अंकुर को पुकारा, “अंकुर, देखो जिम्मी तुमसे मिलने आया है।”
अंकुर दौड़ता हुआ आया। जिम्मी के हाथ में प्लास्टिक का एक कप था और वह चौकन्ना हो हर तरफ देख रहा था।
अंकुर ने कप में झांकते हुए पूछा, “इसमें क्या है?”
“ये रहा मेढ़क।” जिम्मी ने कप में से निकाल कर उसे दिखाते हुए कहा।
“तुम्हें ये कहाँ से मिला?” अंकुर हमेशा की तरह उत्साहित था।
“मैंने इसे अपने लॉन के पिछवाड़े में पकड़ा।” मेढ़क हाथ से फिसलने लगा तो उसने फिर से उसे कप में डाल दिया।
“हमारे यहाँ एक बर्डी है।” अंकुर ने जिम्मी को जब एलान किया तो नैना और सिद्धार्थ ने हस्तक्षेप करना जरूरी समझा। शायद वे चाहते भी न थे कि जिम्मी को मेरे बारे में पता चले। वे जिम्मी को अच्छे से जानते थे कि वह कैसा है। वह हर मामले में अंकुर के विपरीत था, चलने, देखने, उठने-गिरने, कुछ भी करने में उतना ही उतावला, यहां तक कि कुछ करने से पहले वह किसी से कुछ पूछना जरूरी भी नहीं समझता था।
जैसे ही उसने मेरे बारे में सुना वह रसोई के उस कोने की तरफ तेज़ी से आया जहाँ मेरा बसेरा था।
नैना शीघ्रता के साथ उसका पीछा करती हुई आई, “ओह, वेल, बी केयरफुल।” और मेरे ऊपर होने वाले आक्रमण को उसने जैसे टाल दिया।
“क्या इसे मैं बाहर ले जा सकता हूँ?” जिम्मी का प्रश्न का स्वागत एक त्वरित नकारात्मक स्वर में नैना और सिद्धार्थ दोनों के ओर से हुआ,
“नहीं।” साथ ही एक निर्देश कि “अंकुर, जिम्मी को बेसमेंट ले जाकर वहां खेलो और बर्डी को परेशां मत करो।”
अंकुर और जिम्मी दोनों कुछ समय के लिए गायब हो गए।
वापिस जाने से पहले जिम्मी मेरे पास आना भूला नहीं जो नैना, सिद्धार्थ और अंकुर तीनों की गहरी सुरक्षा घेरे में था।
जैसे ही जिम्मी गया तो तीनों ने गहरी सांस लेते हुए राहत महसूस की।
“ओह, अच्छा है कि वह गया। मुझे तो डर लगा रहा था कि अब बर्डी का क्या होगा। तुमने देखा वह मेढ़क को कैसे गीज रहा था उसे छोटे और संकीर्ण प्लास्टिक कप में?” तीनों एक दूसरे से सहमत थे।
उस शाम अंकुर अपनी जिद पर अड़ गया,
“मम्मी-डैडी, हम बर्डी को यहाँ रख क्यों नहीं सकते?”
“बिल्कुल नहीं। बर्डी कोई पालतू पक्षी नहीं, यह एक जंगली पक्षी है और यह अपने जंगल के अपने समूह में ही खुश रहा सकता है। इसलिए हम उसे यहाँ कभी नहीं रखेंगे, समझे अंकुर।” नैना ने दृढ़ता के साथ समझाते हुए कहा।
सिद्धार्थ लैपटॉप पर कुछ देखने में व्यस्त था वहीं अंकुर वहां खेलता हुआ एक के बाद दूसरा प्रश्न कर रहा था।
“तो क्या हम पिल्ला रख सकते हैं?” अंकुर मोल-भाव करने लगा था।
“उसके बारे में हम सोचेंगे, अंकुर।” नैना ने कहा।
मुझे लगता है वह किसी भी पालतू जीव को घर में रखने के प्रश्न से बचना चाहती थी। फिर मैं क्यों? तो उसने कहा था कि मैं पालतू नहीं, मैं रह-रहकर यह क्यों भूल जाता हूँ। क्या यह चारदीवारी, आदमी की संगत मुझ पर हावी होने लगी है? मैं नहीं कहता कि वे बुद्धिमान नहीं पर कुछ सूक्ष्म संकेतों और लक्षणों को समझने में वे असमर्थ हैं और वे इस तथ्य को स्वीकारते भी हैं। जिन आंधी,तूफानों, भूकम्पों और अन्य आपदाओं को हम सहज ही जान लेते हैं उन्हें वे आज तक समझने की कोशिश में लगे हैं। आपको मेरे पर हंसी आ रही होगी, हैं न? आप इसके लिए स्वतन्त्र हैं।
आपने समय के साथ इतनी प्रगति की, कितना कुछ अविष्कार किया, बनायें, सड़कें, पुल, हवाई जहाज, भवन, शहर आप नाम गिना दें। मैं एक सौ प्रतिशत सहमत, कोई संदेह की बात नहीं, फिर भी पक्षी पक्षी होते हैं, जन्मजात बुद्दिमान, उद्दमी और विपरीत परिस्थितियों में अडिग रहने वाले आदि। और हाँ, मैं तो भूल ही गया कि हम सदाबहार, सुन्दर और माधुर्य से परिपूर्ण हैं।
क्या नैना ने एक बार कहा नहीं था? “मुझे पक्षियों से प्यार है!” और सिद्धार्थ ने सहमत होते हुए कहा था, “मुझे भी, मैंने तो पक्षियों के ऊपर कहानियाँ भी लिखी हैं।”
“और मैंने अमेरिकी पक्षियों पर स्कूल के दिनों में एक प्रोजेक्ट भी किया है।” नैना ने पक्षियों के प्रति अपने प्रेम को प्रतिपादित करते हुए कहा तो मास्टर अंकुर ने भी पीछे न रहते हुए कहा,
“मैं भी चिड़ियों और पक्षियों को बहुत प्यार करता हूँ। मैंने बर्डी के लिए एक गीत बनाया। क्या मैं फिर गाकर सुनाऊँ?” और किसी की ‘हाँ’ की प्रतीक्षा किये बिना गाने भी लगा।
गाने के ख़त्म होने के बाद नैना से सिद्धार्थ से पूछा जो लैपटॉप में तब से आँख गड़ाए था, “क्या तुम पता कर सकते हो कि घर में कबूतर के आने का क्या अर्थ है?
मैं दूर से निस्संग और निर्लिप्त यह सब देख-सुन रहा था। सिद्धार्थ कुछ ही मिनटों में नैना के कबूतर से सम्बंधित उत्तर ले आया था।
“इसके इतने सारे विश्लेषण हैं जिनमें कुछ अशुभ भी।”
“अशुभ, क्या मतलब है तुम्हारा?” यह कभी नहीं हो सकता क्योंकि यह माँ लक्ष्मी से सम्बंधित है। मैं तो विश्वास ही नहीं करती जितनी बेकार की बातें आजकल इंटरनेट पर देखने-पढ़ने को मिलती हैं।”
“खैर, छोड़ो। मैंने कहीं पढ़ा था कि हमारे गुजर चुके पूर्वज पक्षी के रूप में हमसे मिलने आते हैं।” सिद्धार्थ किसी और ही मनोभूमि में विचरने लगा था।
“सहमत।” ऐसा लगा जैसे नैना इस ‘मिथ’ को जैसे स्वीकारने के लिए पहले से ही तैयार बैठी थी। “मुझे तो कई बार लगता है कि हमारा बहुत ही प्रिय बर्डी के रूप में हमसे मिलने आया है।” कहते-कहते वह भावुक हो उठी। मैं ऐसी किसी बात से परिचित नहीं था। खैर, उस रहस्यमय और विचित्र वातावरण में की गयी ये नितान्त व्यक्तिगत बातें थीं।
“यह बहुत उलझा और रहस्यमय है।” दोनों इस चर्चा को ख़त्म कर देना चाहते थे जैसे रात गहराने लगी। मैं अपने स्थान पर झपकी ले रहा था और चाहता था कि वे भी वहां से हटें।
दिन के बाद दिन बीत गए। वे हर तरह की बात करते और मैं चुप-चाप सुनता। वे जैसे जैसे मेरा ध्यान रखते मैं उनका उतना ही कृतज्ञ होता चला गया। मैं तो लगभग भूल ही गया था कि मैं आया कहाँ से था। फिर मुझे अचानक लगा कि मुझे जाना होगा। यह मेरी जगह नहीं थी। मैं यह जानता था कि वे मुझे जाने देना नहीं चाहेंगे लेकिन मुझे यह भी पता है कि वे यह भी जानते थे कि यह उनकी जगह थी और मैं वहां का सर्वथा था नहीं। यह वैसी ही कुछ परिस्थितियों में से एक थी जब निर्णय लेना सहज नहीं होता।
यह सब सोच-सोचकर मैं एक बार फिर विचलित हो पूरे घर का चक्कर लगाने लगा, हर कहीं अपने शरीर, सर और चोंच टकराने लगा यह बताने के लिए मैं अब जाना चाहता हूँ। वे अब जान गए कि अब समय आ गया है ‘गुडबाई’ यानि ‘विदा’ कहने का, इस बार वास्तव में और अंतिम रूप से…
एक सप्ताहांत को वे मुझे विदा करने के बारे में बातें कर रहे थे। सब कुछ सामान्य चल रहा था लेकिन कहीं वायु में कुछ धुंध और भारीपन लिए था। वे मुझे रुक-रुक कर देर तक देखते रहते। वे लगातार मेरा चित्र खींचते अथवा वीडियो बनाते। उस दिन बरसात हुई थी, जब सिद्धार्थ ने दरवाजा खोलते हुए ऐलान किया था, “आज वास्तव में बहार ठंढ है। मुझे आशा है कि बर्डी का बाहर निकलना ठीक रहेगा।”
मुझे आशा थी कि वे अपने विचार फिर न बदल दें। और उन्होंने ऐसा किया नहीं।
बाहर हल्का उजाला था, जब वे तीन पैटियो डोर के पास इकठ्ठे हुए मुझे विदा करने के लिए। अंकुर ने अपना गीत फिर गया, बाई बर्डी, बाई बर्डी…ऐसा लगा जैसे कि वह किसी पल रो न पड़े। मैं भी अपने को छुपा नहीं रहा था। मुझे जाने देना अगर उनके लिए कठिन था तो मेरे लिए भी उतना ही। संभवत: वे मेरी आँखों में झांक कर इसका अनुमान लगा सकते थे। लेकिन मैं जैसे जैसे संभलता गया उन्होंने मेरे पास आना और मुझे छूना बंद कर दिया।
सिद्धार्थ ने दरवाजा खोला तो तीनों एक बार को पीछे हट गए…
मैं दरवाजे के पास पहुंचा, मुड़कर तीनों को देखा और फिर तेज़ी से बाहर निकल गया। मुझे पता था कि वहां कुछ तो अवरोध था लेकिन मैं इस बार टकराकर गिरा नहीं।
मुझे किसी के रोने का स्वर सुनायी दिया। वह नैना के सिवा और कौन हो सकता था! एक क्षण के लिए मैंने मुड़कर देखा तो पाया कि तीन हाथ हवा में हिल रहे थे और साथ ही ये स्वर भी।।
“गॉड ब्लेस बर्डी! कभी फिर लौटकर आना…” नैना भरी आँखों के साथ, सिद्धार्थ और अंकुर के हाथों में हाथ लिए बीच में खड़ी थी, एक दूसरे से एकदम सटकर, ठीक एक परिवार की तरह…
मैं आगे बढ़ गया, वे मुझे दूरी से देखते रहे। मैं उड़ा और उनके अगले पड़ोसी के लॉन में पहुंचा। वहां बहुत झाड़ियाँ थीं और अन्दर जाकर खो गया। इस तरह उनकी दृष्टी से ओझल हो गया…
वह स्थान ठंढा और उमस भरा था। वे सही थे। खैर, वे गर्मी के अंतिम दिन थे। वह गर्मी जिसका सबको इतना इंतजार रहता है वह पहाड़ से गिरते झरने से उठती एक छपाक की तरह आकर ओझल हो जाता है। मैं वहां आराम करने लगा सोचते हुए कि आगे क्या करना है इसके पहले कि अँधेरा घिर आये। चारो ओर बादल घिरा था और रहरहकर बूंदाबांदी हो जाती थी।
कुछ समय के बाद झाड़ी की ओट से मैंने सिद्धार्थ और अंकुर को हाथों में हाथ लिए आते देखा। उनकी नज़र पड़ोसी के लॉन की उस झाड़ी के तरफ हो थी जहाँ मैं था। मुझे ऐसा लगा जैसे उनकी आँखें मुझे ही खोज रही थीं। बूंदाबांदी फिर बारिश में बदल गयी तो वे एक क्षण के लिए रुके। सिद्धार्थ ने अंकुर को मेरी ओर जहाँ मैं था दिखाते हुए कुछ ईशारा किया। मेरा विश्वास था कि नैना ने ही उन दोनों को मुझे देखने के लिए भेजा होगा कि मैं कहाँ और कैसा हूँ। इस परिवार के साथ इतने दिनों रहने के बाद मैं उन्हें अच्छे से समझने लगा था। कुछ समय के बाद ऐसा हो जाता है।
वे कुछ पलों के लिए रुके और स्ट्रीट से मेरी ओर देखते रहे। मुझे नहीं पता कि उस झुरमुट और छिटपुट अँधेरे में मुझे दरअसल देख पा रहे थे कि नहीं। अब अँधेरा घिर आया था, आसमान के एक तरफ हालांकि गहरा नीला रंग फैला था।
वे लौटने लगे थे और मुड़ मुड़कर मेरी एक झलक पाने के लिए देख लेते। लेकिन अँधेरा घिर आने के कारण अब वे मुझे देखने में असमर्थ थे ऐसा उनके देखने और चलने के आवभाव से स्पष्ट होने लगा था।
मैंने वह रात वहीं बिताने का निश्चय किया। यह किसी भी तरह उस घर के बराबर नहीं था जहाँ मैं इतने दिनों मेहमान बना हुआ था। लेकिन मैं खुलेपन को महसूस कर रहा था, छाती भर कर सांस ले सकता था और वह सब ऊपर फैले विशाल गगन के नीचे। एक पक्षी यही सब तो चाहता है।
मैं सुबह होने के बहुत पहले जग गया। आकाश साफ़ होने लगा था फिर भी कुछ तारें झिलमिला रहे थे। बारिश बहुत पहले बंद हो चुकी थी। यह एक नया दिन था, फिर से मेरे लिए नया जीवन लिए!
मैंने फिर उड़ने का दूसरा प्रयत्न किया और आश्चर्य कि मैं इस बार और दूर तक जा सका। हर एक नए प्रयत्न के साथ मैं थोड़ी और दूर तक उड़ने लगा। मैं आल्हादित था। वह आभायुक्त प्रातःकाल था, सुन्दर आकाश, हरे पेड़, मोहक फूल, चारो ओर। हर तरफ चहलपहल थी; हर कोई एक नए दिन के लिए तैयार हो रहा था, मुदित मन और नवीन उमंग के साथ। मैं जंगल में वापिस आ चुका था। मैं झुण्ड के साथ आ मिला। कई बार एक प्रवाह के साथ बहना अच्छा लगता है। जो मिल जाए उसे ले लो। जो छूट जाए उसे भूल जाओ। अपने आप को मुक्त कर दो। किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं, कोई आशंका नहीं। इन सबके बाद भी, कहीं हृदय के किसी कोने में उस परिवार की स्मृति भी कौंध रही थी, सिद्धार्थ, नैना और नन्हा अंकुर कहीं अभी भी बिस्तर में पड़े मीठी नींद ले रहे होंगे, अथवा नए दिन के स्वागत के लिए तैयार हो रहे होंगे, मेरे बारे में बात करते हुए, मुझे ‘मिस’ करते हुए…मैं भी उनकी कमी महसूस कर रहा था…मुझे लगा जब मैं उनके साथ था तो जाने के लिए बेचैन और जब यहाँ आ गया तो उनकी कमी अखरने लगी। यह एक पागल भरी सोच हैं, लेकिन है तो है…
(6)
बहुत दिन बीत गए…
एक दिन मैं अन्य पक्षियों के साथ उस परिवार से मिलने आ पहुंचा। वे घर के पीछे के लॉन में बैठे मिले।
“मॉम, डैड, देखिये इन कबूतरों को, बर्डी लौटकर आया है!” अंकुर दौड़ता और चिल्लाता हुआ अपने माता-पिता के पास आया। सिद्धार्थ और नैना दोनों ने हम कबूतरों को देखा। वे मुस्कुराना चाहते थे लेकिन उदास हो गए।
“ यह तो अच्छा है अंकुर। लेकिन हम कैसे पहचानेंगे कि इनमें से बर्डी कौन सा है।” नैना ने जब कहा तो वह मुझे ही देख रही थी। पता नहीं यह संयोगवश था या कुछ और। वह मुझे पहचान नहीं सकी। मैं चिल्लाना चाहता था और चिल्लाया भी लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। यहाँ तक सिद्धार्थ भी उदासीन ही रहा। मैं चकित था कि उन्हें हो क्या गया है। मैं हतप्रभ और दुखित, अन्दर तक टूट गया और पछताने लगा कि मैं आया ही क्यों यहाँ। इससे तो कहीं अच्छा होता कि किसी दिन इनसे मिल पाने की कामना हृदय में लिया रहता। मुझे मनुष्यों पर दया आती है; मैं क्रोध, पश्चाताप और ग्लानि में डूबता-उतराता रहा।
“हम बर्डी पर कुछ निशान बना देते या कोई धागा अथवा रिंग ही इसके पैड़ में लगा देते अथवा बाँध देते तो इस झुण्ड में हम बर्डी को पहचान पाते।” सिद्धार्थ ने शून्य में देखते हुए कहा।
“सही कह रहे हो।” नैना ने सिद्धार्थ से सहमत होते हुए कहा। “मैं आशा करती हूँ कि उस रात बर्डी सही सलामत रहा हो। मालूम नहीं, उस दिन वह कितनी दूर तक उड़ पाया। मैंने तो देखा भी नहीं कि वह ठीक से उड़ भी पता है या नहीं। भगवान ही इन जीवों का मालिक है।” वह उतनी ही संजीदा और दयालु थी जितना कि सदा से।
मैंने उस परिवार को एक बार फिर एक साथ देखा, एक दूसरे के हाथों में हाथ लिए। लेकिन थोड़ा उदास…मैं उनके पास चल कर गया भी, इतने पास कि जब मैं उनके घर पर था, मेरा मतलब स्वेच्छा से। उन्होंने मुझे देखा, प्रेम और दया के साथ लेकिन उदासीन और अनजान की तरह। मेरा ह्रदय विदीर्ण हुआ जा रहा था लेकिन मैं भी उतना ही विवश था जितना कि वे।
उस दिन के बाद बहुत दिनों तक मैं लौटकर नहीं गया।
धीरे-धीरे मेरी हताशा पिघल गयी, क्रोध लुप्त और क्षोभ सदाशयता में बदल गया।
अंत में, एक दिन मैं उनके रूफ टॉप (छत) पर आ बैठा, इस बार अकेले नहीं अपनी प्रियतमा के साथ। जी हाँ, मैंने भी पा लिया था। मैं उसे उनसे मिलवाने के लिए उत्साहित था, लेकिन कहीं अन्दर से डरा भी था कि इस बार भी वे न पहचाने तो। मैंने एक कार को गराज के बाहर खड़ी की जाते देखा। मैंने तीनों को कार से निकलते देखा। अंकुर ने मुझे सबसे पहले देखा। नैना और सिद्धार्थ दोनों ने फिर मुझे देखा,
“सिड, देखो मुझे लगता है कि यह बर्डी है। नहीं, मेरा मन कह रहा है कि हमारे रूफ टॉप के ऊपर यह एक दूसरे कबूतर के साथ बैठा है।” नैना ने चहकते हुए उत्साहित होकर कहा।
“मुझे लगता है की बर्डी की शादी हो गयी है।” सिद्धार्थ ने मुस्कुराते हुए हम दोनों को देखा फिर नैना को।
हाँ, मैंने अपनी प्रिया को कहा, यही वह परिवार जिसके बारे में मैंने कहा था। हम दोनों रूफ टॉप पर और एक दूसरे के पास आ गए जब उस परिवार ने हमें देखा, मुस्कुराते हुए आनंदातिरेक में हाथ हिलाते हुए…
कुछ समय के बाद हमारे चार बच्चे हुए। हम सभी प्रसन्न थे। मैं बच्चों के उड़ने की क्षमता को लेकर शुरू से आशंकित था। मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ी उनके इस पड़ाव तक आने के लिए। वो एक बहुत लम्बी और कष्टप्रद प्रतीक्षा थी। प्रतीक्षा और लम्बी लगती है जब आप चिंतित हों। वह दिन भी आया, उमंग और आशंका के बीच मैं यह जानने के लिए आतुर हो उठा। लेकिन वे सब आसानी से उड़ पाए। मैं भगवान को इसके लिए जितना धन्यवाद दूं उतना ही कम है। मैंने हर चीज के लिए भगवान को धन्यवाद देना उसी परिवार से सीखा जहाँ मैं कुछ दिनों का मेहमान रहा। मैं उस परिवार से फिर मिलने और अपने बच्चे को उन्हें दिखाने और बच्चों को उनसे मिलवाने की अधिक प्रतीक्षा न कर सका।
ग्रीष्म ऋतु की सुबह, हम सभी उस घर के लिए उड़े, और उनके रूफ टॉप पर जाकर बैठ गए ताकि उन्हें पहचानने में फिर कोई दिक्कत न हो।
हमने बहुत देर प्रतीक्षा की लेकिन कोई आता-जाता दिखा नहीं। पता नहीं कि वे अब तक सो तो नहीं रहे। लेकिन सोने के लिए अब तक बहुत देर हो चुकी थी। बहुत तरह के विचार आते गए, कहीं वे यह घर छोड़ कहीं और तो नहीं चले गए, कहीं छुट्टियों में बाहर तो नहीं गए, तरह तरह के विचारों से मैं अस्थिर हो उठा।
अब मैं घोर निराशा में अपने परिवार को वापिस लौट चलने के लिए यह ऐलान करने वाला ही था कि अचानक तीनों को ड्राइववे पर अवतरित होते देखा, साथ में नैना को स्ट्रोलर खींचते हुए। यह वह क्षण आ पहुंचा था। लेकिन एक मिनट, उस स्ट्रोलर में कौन था जिसे नैना खींच रही थी। अंकुर उत्साहित था हमें देखकर और वही था जिसने हमारे बच्चों के बारे में अपने माता-पिता को बताया।
“मॉम, देखो बर्डी का परिवार। उनके बच्चे भी हैं। ओह माई गॉड, कितने बच्चे हैं, एक-दो-तीन-चार…” फिर उसने अपनी छोटी बहन अथवा भाई को हमें दिखाया। ओह, कितना प्यारा था वह! सिड और नैना दोनों ने हाथ हिलाए और बदले में हमने भी अपने पंख हिलाकर उनका अभिवादन किया।
हम पुनर्मिलन से जहाँ प्रसन्न थे, वहीं मैं अपने मन में सोच रहा था – कम से कम एक बात में हम पक्षी मनुष्यों को मात दे गए – वे केवल चार थे और हम कुल छः!
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