
‘कोरोना-चिल्ला’ कहानी-संग्रह
– अनिल जोशी
प्रवासी साहित्य में एक सशक्त भूमिका निबाह रही दिव्या माथुर का नवीनतम कहानी संग्रह, कोरोना-चिल्ला, केन्द्रीय हिंदी संस्थान-आगरा की पुस्तक प्रकाशन परियोजना के तहत प्रकाशित किया जा रहा है, यह उनका सातवां कहानी संग्रह है। उनकी बहुत सी कहानियों ने व्यापक लोकप्रियता पायी है क्योंकि वह अपनी रचनाओं में मानव मस्तिष्क में उठने वाली सूक्ष्म गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए अपने पात्रों का न केवल सृजन करती हैं, अपितु उनके अनुरूप स्वयं को ढाल लेती हैं। इसीलिये उनमें मौलिकता के साथ जीवन को नई दृष्टि से चित्रित कराने का कौशल है, बोल्डनेस के साथ-साथ फैंटेसी यथार्थ की मार्मिकता भी। इस संग्रह में उनकी अधिकतर कहानियां कम छुए गए विषयों पर हैं और इनकी विशेष उपलब्धि यह भी है कि इनमें लेखिका एक परिवर्तन का आवाहन कर रही हैं।
संबंधो को लेकर जदोजहद करती आज की युवति कई प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा आर्थिक शोषण की शिकार है, जिसका अंदाज़ा दिव्या जी को बख़ूबी है। ऐसी ही एक कहानी है, ब्लैक-मेल, जिसमें डेनमार्क वासी शशि अपनी वासना का पक्का इंतज़ाम करने के लिये पंजाब के एक विवाह-ऐजेंट के माध्यम से दस लाख रुपयों में देहाती और अनपढ़ बाला को लाकर अपनी चार-दीवारी में क़ैद कर लेता है, जो उसके लिए यातना शिविर से कम नहीं क्योंकि पराई जमीन की असंगतियाँ और भी वीभत्स हैं। हम देश या समाज बदलने की बात तो करते हैं लेकिन ख़ुद अपने को नहीं बदल पाते। इस कहानी में बाला के सहृदय पड़ोसी न केवल नायिका को बल्कि उसके पति को भी सही रास्ता दिखाते हैं।
पुरुषवादी मानसिकता पर ही आधारित है दिव्या जी की एक दूसरी कहानी, संदेह। स्त्री मुक्ति की अवधारणा के तहत मात्र भोगी हुई पीड़ा का एहसास होना ही पर्याप्त नहीं है, इस पीड़ा के विरोध में प्रतिरोध का स्वर न उपजे तो वह पीड़ा निरर्थक हो है। अपनी रचनाओं के माध्यम से वह एक ऐसे समाज और संस्कृति की स्थापना करना चाहती हैं जहाँ स्त्री को समानता का अधिकार मिले और वे सम्मान पूर्वक जीवन-यापन कर सकें। भारत हो या विदेश स्त्री के लिए संघर्ष दोनों जगह है लेकिन वो विभिन्न रूपों में दिखाई देते हैं। विदेशों में स्त्री अधिक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर है किन्तु पितृसत्तात्मक समाज की जकड़न और उससे मुक्त होकर अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की चुनौतियां वहाँ भी उतनी ही हैं। भारतीय प्रवासी स्त्रियों की मानसिकता की जकड़ ढ़ीली नही हुई हैं, वे नये आयाम में नये मूल्यों से रूबरू तो है और उनके प्रति आकर्षित भी हैं। उन्हें मुक्ति का अर्थ मालूम है, उसे अपनाने की हिम्मत बहुतों में नहीं है, वे आज भी दुविधा-ग्रस्त हैं और इसी दुविधा से निकालने का काम दिव्या अपने लेखन के माध्यम से कर रही हैं, औरतों में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता पर सवाल उठा रही हैं। पुरुष वर्ग बदलना नहीं चाहता पर वह यह भी जानती हैं इस दोष में बराबर की साझेदारी महिलाओं की भी है। दिव्या माथुर के यहाँ मध्यवर्गीय स्त्रियों का संघर्ष है जो स्त्री मुक्ति की अवधारणा को सशक्त करता है।
ऐसी ही एक दूसरी कहानी है एडम और ईव, प्रेमविवाह के जुर्म के लिए बामशक्कत क़ैद भुगत रही है ईव और क्रूर थानेदार की तरह उसका पति एडम उसे रोज़ प्रताड़ित और अपमानित करता है। ‘डोमेस्टिक-एब्यूज़’ केवल शारीरिक ही नहीं होती, भावुकता, वित्त एवं सेक्स से भी जुड़ी होती है। पतियों द्वारा सताई गयी महिलाओं को जनता आज भी शक की नज़रों से देखती है, कैसे उन्हें वकीलों, ज्यूरी और न्यायाधीश के सामने पेश किया जाता है और सबूतों की ठीक से जांच-पड़ताल किए बिना ईर्ष्यालु क़िस्म की मतलबी हत्यारन मान लिया जाता है। जो औरतें हिंसा पर उतर आती हैं, उन्हें केवल खराब या पागल करार दे दिया जाता है जबकि उनकी मानसिक बीमारी उन पर किए गए अत्याचार की वजह से होती है। कहानी माई बिट्टर-हाफ़ में एक दूसरी तरह का ही अतिक्रमण करता है गोल्डी, जो अपनी नवविवाहिता लिज़ को एक जीती हुई ट्रॉफी समझता है। लिज़ की पसंद और नापसंद के बारे में कोई नहीं पूछता। ‘लिज़ बेटा, तुम्हें गोल्डी की पसंद की सारी चीज़ें बनानी सीख लेनी चाहिए। लिज़ की एक प्रमोशन भी गोल्डी की हलक़ से नहीं उतर रही, ‘यह प्रमोशन लिज़ को एक अंग्रेज़ होने के नाते दिया गया था। उसके बॉस नस्लवादी थे; वे कैसे किसी भारतीय को अपना बॉस बना सकते थे?’ लिज़ नहीं चाहती कि पति पत्नी के निजी संबंध भी दफ्तर में इसी तरह उछाले जाएं पर पानी अब सिर तक आ पहुंचा है।
दिव्या की कहानियों के विषय और पात्र जटिल होते जा रहे वर्तमान की उपज हैं जिसमें अतीत जीवी या भावुक होने की संभावना कम है। महामारी पर आधारित उनकी कहानी कोरोना चिल्ला में वह कितनी सादगी से वह कोरोना की तुलना पिछली महामारियों से करती हैं, वह सचमुच प्रशंसनीय है। विश्व ने बहुत सी महामारियां झेली हैं, इस महामारी से लड़ने के लिए हमारे पास पहले से कहीं अधिक संसाधनों के होने के बावजूद हम पहले से कहीं ज़्यादा लाचार हैं, ‘जब बहुत ठंड पड़ती थी तो मेरी दादी कहती थीं कि यह चिल्ला चालीस दिन चलेगा। हम शान्ति से चालीस दिन बीतने का इंतज़ार करते थे। हमारे पास न तो हीटिंग का इंतज़ाम था न ही ताज़ी सब्ज़ियों और फलों का पर हम घर में ही सैंकड़ों तरह के पकवान बना कर बूढ़ों-बच्चों को प्रसन्न रखते थे। हर शाम को नाच-गाने, लोक कथाएं और तरह-तरह के साधारण खेल होते, हमने कभी किसी को निराश होते नहीं सुना था। आजकल देखो, एक महीना भी नहीं हुआ कि लोग मानसिक रूप से परेशान हैं, घरेलु हिंसा बढ़ गयी है।’ कहानी कहने की कला दिव्या ख़ूब जानती हैं और यह उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है – पठनीयता और अनूठी भाषा-शैली; शिल्प की जो बानगी उनकी कहानी के प्रारम्भ में होती है वह अंत तक बरक़रार रहती है।
ज़ाहिर है कि कई कहानियों में हिंगलिश का दिलचस्प प्रयोग मिलता है और कई पूरब-पच्छिम के टकसाली पूर्वाग्रहों को झकझोड़ती हैं, जो भूमंडलीकरण के सिक्के का दूसरा पहलू भी दिखाती हैं। कुछ हल्की फ़ुल्की मनोरंजक कहानिया भी हैं: ‘पहला प्यार’, ई-सुलह’, शगुन, तेरी वाइफ़, ‘मेरी वाइफ़’, ‘लाल लगाम’ और ‘त्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम’ जो न केवल लेखिका की विशद कल्पना को ही साबित करती हैं, विदेशी संस्कृति के कई नए पहलुओं को भी उजागर करती हैं।
एक संग्रह में इतने विशद विषयों पर कहानियां लिखना सचमुच अचंभित करता है। प्रवासी साहित्य की जिन विशेषताओं स्मृति, अस्मिता के सवाल, प्रकृति, स्त्री-विमर्श, स्त्री-पुरूष संबंध, पीढ़ियों के संघर्ष व द्वंद्व, सभ्यतामूल्क अंतर्द्वंद्व, रंगभेद, यांत्रिकता पर चर्चा होती है, वे सब विशेषताएं किसी सायास प्रयास के तहत नहीं, बल्कि घटनाओं, स्थितियों, परिवेश, मन:स्थिति, रोचक चरित्रों के माध्यम से इस संकलन में प्रस्तुत हुई हैं। मुझे आशा है कि ये कहानियां पाठक की सोच को व्यापकता, दृष्टि को गहराई और संवेदना को आकार देंगी।
आशियाना: चार महीने के बाद जब आशा को होश आया तो एक दर्दनाक तथ्य ने उसे हिला कर रख दिया; गर्दन से नीचे के उसके सब अंग बेकार हो चुके थे – पूर्ण पक्षाघात। ‘एक पुराने पुरुष मित्र से अपना मल-मूत्र साफ़ करवाना और नहलवाना आशा को बिलकुल अच्छा नहीं लगता पर वह लाचार है; अपने शरीर पर उसका बिलकुल भी नियंत्रण नहीं। जब बदबु उसके नथुनों से टकराती है तो वह जान पाती है कि यह उसी के मल-मूत्र की है और टेलकम-पाउडर की खुशबु से वह जान पाती है कि एडवर्ड उसकी सफ़ाई करने के बाद पोतड़ा बाँध रहा है। वह उससे घंटों तक नज़र नहीं मिला पाती।’ यूथीनेसिया को यदि वैध करार दे दिया गया तो ताकतवर लोग अपने रस्ते के रोड़ों को अपने रास्ते से हटवाने में कामयाब हो जाएंगे।
बलात्कार विषय पर दो कहानियां हैं, ‘नासूर’ और‘जो सबके हित में हो’ पर दोनों की नायिकायें अलग क़िस्म की हैं, एक सामना करती है परन्तु दूसरी के साथ धोखा होता है, ‘ग़ुसलख़ाने में जाकर ईशा घंटों नहाई। क्या इस खूबसूरत हमाम की कीमत उसे यूं चुकानी पड़ेगी? क्या यह वृहत आइना इसलिए लगाया गया था ताक़ि वह अपनी दुर्दशा का अच्छे से मुआयना कर सके? भारी साड़ी और गहनों की वजह से उसके शरीर पर जगह-जगह जो नीले धब्बे पड़ गए थे, वे उन घावों के सामने तुच्छ थे जो हरी ने उसके ह्रदय पर छोड़े थे। सत्तर-अस्सी साल की बूढ़ी औरतों के साथ बलात्कार होना अब कोई नई बात नहीं रही थी और साठ वर्षीया अमृता एक आकर्षक और कसरती महिला है, जो लोगों के क़िस्से सुन-सुनकर वह सोचा करती थी कि ऐसी स्थिति में वे ये कर सकते हैं, किन्तु अब जब अपने सिर पर पड़ी तो उसके दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया। काश कि उसके बेटे इस वक्त घर पर होते। पर अच्छा ही है कि वे घर पर नहीं हैं; यदि वे माँ के बारे में गुंडों की गंदी गालियां सुन लेते तो उन्हें जान से मार डालते और फिर उम्र-कैद काटते। ‘रिवाल्वर को अपने दाएं हाथ में साधते हुए अमृता सोच रही थी कि यदि ग्रैग उसका दायाँ हाथ तोड़ देता तो बाएँ हाथ से वह रिवाल्वर न संभाल पाती।’
‘नरगिस के फूल‘ आधारित है भारत और पाकिस्तान से लाई गयी युवतियों की ख़रीद-फ़रोख़्त के विषय पर। ‘ऐसा कहीं सुना है कि एक जवान लड़की चल दे एक पराए मर्द के बुलावे पर, वो भी सात समंदर पार? बड़े-बड़े बह गए, गदहा पूछे कित्ता पानी,’ अम्मी के मना करने के बावजूद आलिया जावेद के साथ न्यू-यॉर्क पहुंच गयी। नासमझ आलिया को यह कौन समझाए? न्यू-जर्सी पहुँचते ही आलिया का पासपोर्ट, मोबाइल फ़ोन और डॉलर्स सब हथिया लिए गए। उसकी कीमत लगाई जा चुकी थी। समझदारी और आधुनिक तकनीक की वजह से वह बच जाती है पर आज भी सैकड़ों युवतियों को बहला फुसला कर विदेशों में बेचा जा रहा है। ऐसे एजेंस ही नहीं, अपितु पीडोफ़ाइल्स से भी बच्चे-बच्चियों की सुरक्षा के लिए जागरूकता फैलाना समाज का कर्तव्य है।
ब्रिटेन के जीवन की ठोस भावभूमि पर टिकी यह कहानी, ‘स्पेयर ए थॉट प्लीज़’. एकांकी जीवन पर गहरे सवाल उठाती है। ‘हैण्ड-बैग, पर्स, फ़ोन और क्रेडिट कार्ड मेरे पास हैं, बस मेरा डर नदारद है; ज़िन्दगी में पहली बार। कहीं मेरी मृत्यु तो नहीं हो गयी? यदि नहीं तो कुछ दिन बिना किसी फ़िक़्र और क़िल्लत के और यहीं सड़क पर आराम से गुज़ारे जा सकते हैं।
स्पेयर ए थॉट प्लीज़: ब्रिटेन के जीवन की ठोस भावभूमि पर टिकी यह कहानी एकांकी जीवन पर गहरे सवाल उठाती है। ‘हैण्ड-बैग, पर्स, फ़ोन और क्रेडिट कार्ड मेरे पास हैं, बस मेरा डर नदारद है; ज़िन्दगी में पहली बार। कहीं मेरी मृत्यु तो नहीं हो गयी? यदि नहीं तो कुछ दिन बिना किसी फ़िक़्र और क़िल्लत के और यहीं सड़क पर आराम से गुज़ारे जा सकते हैं।
नासूर: बिना किसी पूर्व-क्रीड़ा के, हरी ने बड़ी क्रूरता और जल्दबाज़ी में उसके साथ सम्भोग किया, उसके मुँह से शराब के भभके उठ रहे थे। ईशा को लगा कि बलात्कार इसी को कहते होंगे। फिल्मों में देखे रोमैंटिक दृश्यों के अतिरिक्त वह पति-पत्नी के संबंधों के विषय में अधिक कुछ नहीं जानती थी। माँ-पापा को तो उसने कभी एक साथ बैठे भी न देखा था पर बच्चे ऐसे ही तो पैदा नहीं हो गए थे। शायद इसी कारण माँ पापा से कटी-कटी रहती हैं। नासूर: ग़ुसलख़ाने में जाकर ईशा घंटों नहाई। क्या इस खूबसूरत हमाम की कीमत उसे यूं चुकानी पड़ेगी? क्या यह वृहत आइना इसलिए लगाया गया था ताक़ि वह अपनी दुर्दशा का अच्छे से मुआयना कर सके? भारी साड़ी और गहनों की वजह से उसके शरीर पर जगह-जगह जो नीले धब्बे पड़ गए थे, वे उन घावों के सामने तुच्छ थे जो हरी ने उसके ह्रदय पर छोड़े थे।
सफ़ेद गुलाब: तलाक शुदा बीबी कार्ला, उसके दो बच्चे, और तो और विलियम की माँ भी नहीं चाहतीं कि श्रुति अस्पताल में दिखाई दे। पैतृक संपत्ति का सवाल है। श्रुति को नहीं चाहिए विलियम का हिस्सा पर उन्हें डर है कि मैं विलियम से कहीं दस्तख़त न ले लूं। विलियम के कोमा से निकलने के बाद तभी न सब दौड़े चले आए; वो किसी को नहीं पहचान रहा, मुझे भी नहीं।
ब्लैक-मेल: शशि ने अपनी वासना का पक्का इंतज़ाम करने के लिये एक विवाह-ऐजेंट के माध्यम से दस लाख रुपयों में ‘मामला फ़िट’ कर लिया था, देहाती और अनपढ़ बाला से उसकी चट मंगनी पट ब्याह भी हो गया किन्तु डैनमार्क पहुँच कर बाला चार-दीवारी में क़ैद हो कर रह गयी।
स्पेयर ए थॉट प्लीज़: ब्रिटेन के जीवन की ठोस भावभूमि पर टिकी यह कहानी एकांकी जीवन पर गहरे सवाल उठाती है। ‘हैण्ड-बैग, पर्स, फ़ोन और क्रेडिट कार्ड मेरे पास हैं, बस मेरा डर नदारद है; ज़िन्दगी में पहली बार। कहीं मेरी मृत्यु तो नहीं हो गयी? यदि नहीं तो कुछ दिन बिना किसी फ़िक़्र और क़िल्लत के और यहीं सड़क पर आराम से गुज़ारे जा सकते हैं।
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