पतंग

– डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार’

“यह हरी पतंग किसकी इतनी ऊँची जा रही है?..ज़रा बताना तो?”

 नीहार ने अपनी सफ़ेद पतंग ऊपर लहराते हुए पूछ लिया, अपने साथी से, जिसने उसकी फिरकी सँभाल रखी थी।

“करीम भाई की है!” 

आदित्य ने दूसरी छत पर खड़े पड़ेसी को देखते हुए कहा और करीम भाई का अभिवादन किया।

करीम भाई ने भी मुस्कुरा कर अभिवादन किया।

“अच्छा … फिर तो इसे काटना ही पड़ेगा।”

“क्यों ..कोई पुराना बदला है क्या?”

“ऐसा ही समझो..इसने मेरी पतंग कल काट दी थी… मैं आज इसकी जरूर काटूँगा। समझ क्या रखा है, मेरा माँझा भी तगड़ा है!”

नीहार ने पूर्ण अत्मविश्वास भरे स्वर में कहा। 

“क्या दोनों पतंगें आपस में बातें करती, साथ-साथ नहीं उड़ सकतीं … ऊपर .. और ऊपर ..आसमाँ से भी ऊपर .. ?”  आदित्य ने कहा 

“———-”  नीहार चुप 

आदित्य को देखता रह गया।

अब दोनों पतंगें हवा से बातें कर रही थीं .. और आपस में भी।

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