
जब प्रवासी साहित्य ने ब्रिटिश साम्राज्य को झुकने पर मजबूर किया
– अभिषेक त्रिपाठी, बेलफास्ट,आयरलैंड
हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में प्रवासी साहित्य को कई बार ऐसा साहित्य माना जाता है, जो मुख्यधारा के साहित्यिक मानकों पर खरा नहीं उतरता। यह धारणा इस तथ्य की अनदेखी करती है कि प्रवासी साहित्य ने समाज में गहरे बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रवासी साहित्य ने कई अवसरों पर न केवल भारतीय समाज को प्रभावित किया है, बल्कि इसने विश्व स्तर पर भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। प्रवासी साहित्य का महत्व इस बात में निहित है कि यह उन लोगों की आवाज़ को बुलंद करता है, जिन्हें इतिहास के पन्नों में भुला दिया गया है। यह उनकी पीड़ा, संघर्ष, और आशाओं को दर्शाता है, जो मुख्यधारा के साहित्य में अक्सर अनदेखे रह जाते हैं। प्रवासी साहित्य ने न केवल भारतीय समाज को उनके प्रवासी भाइयों-बहनों की स्थिति से अवगत कराया, बल्कि समय-समय पर इसने सामाजिक और राजनीतिक सुधारों को भी प्रेरित किया है।
भारत में अपने उपनिवेश या राज को बनाए रखने के उपक्रम में, कृषि व्यवसाय को बर्बाद करने और इस छल से छोटे किसान से उसका रोज़गार छीन लेने के बाद, ब्रिटिश साम्राज्य ने बड़े पैमाने पर फैली बेरोजगारी का लाभ उठाया। 1834 से लेकर प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक, ब्रिटेन ने लगभग 20 लाख भारतीय बंधुआ मजदूरों को विश्वभर में अपने 19 उपनिवेशों में भेजा था, जिनमें फिजी, मॉरीशस, सीलोन (श्रीलंका), ट्रिनिडाड, गुयाना, मलेशिया, युगांडा, केन्या और दक्षिण अफ्रीका शामिल थे। इस कुप्रथा से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र आज के झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश राज्य थे।
यद्यपि कागज पर ब्रिटेन ने 1834 में ही दास प्रथा के खिलाफ़ ‘स्लेवरी एबोलिशन एक्ट’ क़ानून पास कर इसे प्रतिबंधित कर दिया था किंतु इसके बाद भी गिरमिटिया प्रथा या ‘इंडेंचर्ड लेबर सिस्टम’ जारी रखा गया जो दास प्रथा का ही एक स्वरूप था। इन मजदूरों को ‘कुली’ भी कहकर संबोधित किया जाता था जो कि भारतीय मूल के लोगों के प्रति एक अपशब्द था। ब्रिटिशों हुक्मरानों ने भारत के इन बेरोजगार ग्रामीणों को इकट्ठा किया और उन्हें अनुबंध या ‘एग्रीमेंट’ के आधार पर नौकरी दी, जो बाद में गिरमिटिया मजदूरी में बदल गई। गिरमिटिया मजदूर” या “कुली” बंधुआ मजदूरी के चंगुल में अमानवीय जीवन जीने को विवश थे। “गिरमिटिया” शब्द अंग्रेजी के “एग्रीमेंट” का अपभ्रंश है।
तत्कालीन प्रवासी साहित्य ने न केवल इस शोषण और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि इसने उन गिरमिटिया भारतीयों की संस्कृति, परंपराओं, और उनकी पहचान को भी सहेजा है। “फिज़ी द्वीप में मेरे 21 वर्ष” एक ऐसी ही महान कृति है जिसने औपीनिवेशिक इतिहास के इस काले अध्याय को उजागर किया और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष की प्रेरणा भी दी। इस पुस्तक ने भारतीय मजदूरों की पीड़ा को दुनिया के सामने रख एक आंदोलन को जन्म दिया। इस पुस्तक ने उस समय के वंचित शोषित भारतीय जनमानस की दयनीय दशा और ब्रिटिश सरकार की तानाशाही नीतियों को विश्व के सामने उजागर किया।
इस पुस्तक के लेखक हिंदी के प्रख्यात विद्वान, लेखक, संपादक, पत्रकार एवं समाज सुधारक पद्म भूषण पं. बनारसी दास चतुर्वेदी थे। उन्होंने इस ऐतिहासिक पुस्तक में इन मजदूरों के साथ हो रहे अत्याचार, शोषण, और उनकी संघर्षपूर्ण जीवनशैली को विस्तार से वर्णित किया है। पं. बनारसी दास चतुर्वेदी का जन्म 24 दिसंबर, 1892 को फ़िरोजाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उच्च शिक्षा के प्रश्चात उन्होंने अध्यापन से शुरुआत कर लेखन, पत्रकारिता, समाज सेवा में नए प्रतिमान खड़े किए।
पंडित जी महात्मा गांधी, सी.एफ. एंड्रूज, डॉ. सम्पूर्णानंद, मुंशी प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल जैसे प्रमुख समाज सेवियों और साहित्यकारों के समकक्ष थे और उनके साथ विभिन्न सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर सहयोग करते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भी उनकी भूमिका उल्लेखनीय थी। अपनी पत्रकारिता और लेखन के माध्यम से हिन्दी साहित्य की सेवा करने वाले इस महापुरुष ने अपनी प्रखर लेखनी से प्रवासियों की समस्याओं पर भी प्रमुखता से लिखा। उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी, जो बातचीत की भाषा के समीप होते हुए भी ओजपूर्ण तथा प्रांजल है।
बनारसीदास जी का पत्रकारिता जीवन ‘विशाल भारत’ के सम्पादन से आरम्भ हुआ। विशाल भारत के अतिरिक्त उन्होंने सरस्वती, मधुकर, मर्यादा, कर्मवीर जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का भी संपादन किया। उनका संपादन कार्य हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में वे गणेश शंकर विद्यार्थी को अपना आदर्श मानते थे। पं चतुर्वेदी ने इन पत्रिकाओं के माध्यम से न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि दासता के काल में भारतीय समाज में जागरूकता और राष्ट्रीय चेतना फैलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फिजी में 21 वर्षों तक गिरमिटिया मजदूर के रूप में काम करने के बाद एक प्रवासी ‘तोताराम सनाढ्य’ स्वदेश लौटे थे। उन्हें जबरन वहाँ एक गिरमिटिया मजदूर के रूप में भेजा गया था। तोताराम ने अपने फीजी द्वीप के अमानवीय जीवन और वहाँ के भारतीय मजदूरों के शोषण की दयनीय दशा बनारसी दास जी को बताई। तोताराम के अनुभवों ने चतुर्वेदी जी को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इस विषय पर एक पुस्तक लिखने का निर्णय लिया।
तोताराम सनाढ्य से उनके फीजी द्वीप के अनुभव सुनकर बनारसीदास ने तोताराम जी के नाम से ‘फिजी में मेरे 21 वर्ष’ नामक जो पुस्तक तैयार की, उससे प्रवासी भारतीयों की दशा की ओर देश और विश्व का ध्यान आकृष्ट हुआ। इस पुस्तक ने चार्ल्स फ्रीर एंड्रूज (सी.एफ. एंड्रूज) , जिन्हें “दीनबंधु” के नाम से भी जाना जाता है, को गहराई से प्रभावित किया। दीनबंधु एंड्रूज, जो महात्मा गांधी के करीबी सहयोगी और एक प्रमुख समाज सुधारक थे, इस पुस्तक को पढ़कर इतने द्रवित हुए की उन्होंनें गिरमिटिया प्रथा के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निर्णय लिया।
एंड्रूज ने इस पुस्तक से न केवल भारतीय मजदूरों की पीड़ा को गहराई से समझा, बल्कि उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ आजीवन लड़ने का संकल्प भी लिया। उन्होंने इस कुप्रथा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने का अभूतपूर्व प्रयास किया। गिरमिटिया प्रथा के खिलाफ अपने अभियान की शुरुआत उन्होंने फिजी और अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में जाकर की। उन्होंने वहाँ के भारतीय मजदूरों की स्थिति का स्वयं अध्ययन किया और उनकी कहानियों को दर्ज किया। एंड्रूज ने अपने निष्कर्षों को ब्रिटिश सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने रखा और इस कुरीति की कड़े शब्दों में निंदा की। उन्हें इस अभियान में जॉर्ज बर्नार्ड शा, एनी बेसेंट, विलियम डिग्बी, हेनरी पोलक, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे बड़े समाज सुधारकों और विचारकों का भी सहयोग प्राप्त हुआ।
एंड्रूज ने लंदन में ब्रिटिश सरकार के समक्ष गिरमिटिया प्रथा के खिलाफ ज्ञापन प्रस्तुत किया और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे प्रमुखता से उठाया। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिलकर भारतीय जनमानस को भी इस अन्याय के बारे में जागरूक किया। पं. बनारसी दास, सी.एफ.एंड्रूज और गांधी जी के अथक प्रयासों और दबाव के परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1917 में गिरमिटिया या कुली प्रथा को समाप्त करने का निर्णय लिया। यह निर्णय बंधुआ भारतीय मजदूरों और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक बड़ी जीत थी और इसने उन्हें शोषण और अत्याचार से मुक्ति दिलाई। इस प्रकार प्रवासी साहित्य ने एक क्रूर और अमानवीय प्रथा को मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज जब हम इन देशों में भारतीय मूल के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का नाम सुनकर गर्वित होते हैं तो हमें याद रखना चाहिए कि ‘फिज़ी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ प्रवासी साहित्य का उनके जीवन में कितना बड़ा योगदान है।
पं. बनारसी दास चतुर्वेदी ने संपादक के रूप में योगदान के साथ ही बतौर लेखक निबंध, चरित, संस्मरण, रेखाचित्र जैसी गद्य की विधाओं में योगदान किया । प्रवासी साहित्य में उन्होंने ‘प्रवासी भारतवासी’, ‘फिजी की समस्या’, ‘फिजी में भारतीय’, ‘सेतुबंध’, ‘भारतभक्त एंड्रयूज़’ जैसी कालजयी रचनाओं का सृजन किया। उन्होंने विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षण-प्रोत्साहन में भी भूमिका निभाई। उन्होंने राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में दो कार्यकालों की सेवा भी दी। भारत सरकार द्वारा उन्हें साहित्य और समाज सेवा के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
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