गर्वीला प्रेम 

वो बैठी थी सोफे नुमा कुर्सी पर, 
कुछ आगे झुकी हुई,
घुटनो तक का फ्रॉक और 
कम ऊंची एड़ी की सेंडल,
ठुड्डी को हथेली पर टिकाये 
हलकी भूरी आँखों में दर्प 
चेहरे पर हलकी रंगत, 
किसी के अनवरत प्रेम की।
मुद्रा में हलकी सी ठसक, 
उसकी सबकुछ होने की।
उसे कायदे से बैठाकर गया वो,
हौले, थोड़े डगमगाते क़दमों से।
परन्तु चाल में दृढ़ता थी 
और उसके प्रेम का घमंड भी।
कांपते हाथों में लेकर आया, 
एक डार्क चॉकलेट पेस्ट्री और 
एक एक्सट्रा लार्ज कैपेचीनो। 
पेस्ट्री सरका दी उसने, “उसकी” तरफ 
और दो हैंडल के उस कॉफी कप को, 
रख दिया मेज के बीचों बीच।
फिर बारी बारी वे लेने लगे उसका घूँट। 
एक शब्द भी नहीं बोल रहे थे दोनों 
पर कुछ था जो प्रसारित हो रहा था। 
आज एक कैफे में देखा मैंने, 
बहुत प्यारा सा एक वृद्ध जोड़ा।
एक दूसरे का साथ, 
यह प्रेम का अहसास, 
कितना गर्वीला होता है न

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– शिखा वार्ष्णेय

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