गांधी, काका कालेलकर और हिंदी

– अतुल कुमार

गांधी जी जब गुजरात बस गए तो वहां जैसे जीवन जाग उठा। राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने ‘गुजरात राजकीय परिषद’ की स्थापना की। गांधी जी इसके अध्यक्ष मनोनीत हुए। इसका पहला अधिवेशन हुआ गोधरा में। उसमें गांधी जी गुजराती में ही बोले थे।

उन दिनों सम्राट के प्रति राजनिष्ठा का प्रस्ताव पास करने की परिपाटी थी। परंतु जब गांधी जी के सामने यह प्रस्ताव आया तो उन्होंने उसे फाड़ डाला। बोले, “ऐसा प्रस्ताव पास करना बेहूदापन है। जब तक हम बगावत नहीं करते तब तक हम राजनिष्ठ हैं ही। इस बात की बार-बार घोषणा करने की कोई आवश्यकता नहीं। क्या कोई स्त्री अपने पति के सामने बार-बार पतिव्रता होने की घोषणा करती है। उसने शादी की है। इसका अर्थ है कि वह पतिव्रता है।”

यह सुनकर कार्यकर्ता अवाक रह गए। गांधी जी बोले, “अगर कोई आपसे पूछे कि राजनिष्ठा का वह प्रस्ताव क्या हुआ तो कह देना मैंने उसे फाड़ दिया है।”

इसी परिषद में विरामगांव के बारे में एक प्रस्ताव पास हुआ था। अध्यक्ष होने के नाते गांधीजी को उस प्रस्ताव को वायसराय के पास भेजना था। उन्होंने तुरंत इस आशय का एक तार लिखवाया। उसके नीचे अपने नाम के बाद लिखा ‘अध्यक्ष, गुजरात राजकीय परिषद।’

 काका कालेलकर यह देखकर बोले, “बेचारा वायसरॉय इन देशी शब्दों का अर्थ क्या समझेगा?”

गांधी जी ने उत्तर दिया, “अगर उन्हें यहां राज करना है तो हमारी भाषा सीखनी ही होगी या फिर किसी दुभाषिए को अपने पास रखना होगा, जो उन्हें समझाया करे।अपनी  गरज से ही तो वे राज कर रहे हैं ना।”

 तार वैसा ही गया और उसका जवाब भी ठीक-ठाक मिला।

सन 1934 में गांधी जी की हरिजन यात्रा चल रही थी। तभी काका कालेलकर भी जेल से छूटे। वे भी साथ होलिए। उन्होंने गांधी जी के साथ सिंध, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल आदि उत्तर भारत के प्रांतो की यात्रा की। इस यात्रा में गांधी जी ने राष्ट्रीय शिक्षा के संबंध में नए विचार प्रस्तुत किए। वे चाहते थे कि प्रत्येक सेवक गांव में जाकर रहे और वहां के जीवन के प्रति पूर्ण रूपेण समर्पित होकर लोक शिक्षा का काम करे। काका साहब ने इस विचार का प्रचार करने के लिए गुजरात और महाराष्ट्र की यात्राएं कीं।

सन 1917 से काका कालेलकर गांधी जी के निर्देशानुसार हिंदी से जुड़े। गांधीजी उन्हें हिंदी प्रचार के लिए मद्रास भेजना चाहते थे। उन्होंने गांधी जी से कहा, “मैं आपके पास आया हूं आपके विचार, आपकी कार्य पद्धति और आपका व्यक्तित्व समझने के लिए। मैं जानता हूं कि हिंदी का प्रचार स्वराज की दृष्टि से आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, फिर भी इस समय आश्रम छोड़कर दूसरा काम लेने की बात मुझे सूझती नहीं।”

गांधी जी ने उस समय उनकी बात मान ली और कालेलकर जी को गुजराती समाज से जुड़ने का अवसर मिला। वे उस समाज से गहरे जुड़ गए, न केवल भाषा सीखी बल्कि गुजराती भाषा में विपुल साहित्य सृजन भी किया। वे इस भाषा में इतने निपुण हो गए कि गांधी जी ने उन्हें सवाई गुजराती का खिताब दिया।

सन 1935 में ऐसा अवसर आया जब उनकी इच्छा अनुसार गांधी जी ने उन्हें दक्षिण भारत जाकर हिंदी प्रचार का काम व्यवस्थित करने को कहा। दक्षिण के चारों प्रांतो में हिंदी प्रचार का काम जब हिंदी साहित्य सम्मेलन ठीक-ठाक न कर सका तब उन्होंने उसे अपने हाथों में ले लिया था और उसे स्वतंत्र रूप से चला रहे थे। उसी को व्यवस्थित करने काका साहब दिसंबर 1934 में वहां गए। गांधी जी ने उनसे कहा था कि हिंदी प्रचार के लिए पैसे की व्यवस्था भी वहीं से करें ताकि हिंदी उनके जीवन में प्रवेश कर सके। दो महीने तक काका समूचे दक्षिणांचल में घूमते रहे और समझाते रहे कि भारतीय संस्कृति को व्यक्त करने वाली यह हिंदी 12 करोड़ (तब)  लोगों की मातृभाषा है।इसको राष्ट्रभाषा स्वीकार करने से भारतीय संस्कृति समर्थ और पुष्ट होगी।

लोगों ने इस भावना का स्वागत किया, चंदा भी दिया। यह सब व्यवस्था करके काका 1935 ईस्वी में वर्धा लौटे। तब तक वे हिंदीमय हो चुके थे। उसी समय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन इंदौर में हुआ। गांधी जी ने प्रस्ताव रखा कि दक्षिण के चारों प्रांतो को छोड़कर शेष हिंदीतर भाषी प्रांतो में हिंदी का प्रचार संगठित रीति से चलना चाहिए। पुरुषोत्तम दास टंडन ने इस प्रस्ताव को बड़े उत्साह से स्वीकार किया। यह काम हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से होना उचित है यह कहकर उन्होंने काका साहब को भी सम्मेलन का सदस्य बना लिया। बहुत वर्षों बाद काका साहब ने लिखा,

‘अब तो यह मेरा जीवन कार्य सा बन गया। सन 1934 से लेकर सन 1940 तक यह काम मैंने पूरी निष्ठा और पूरे उत्साह से किया। इसमें आशातीत सफलता मिली यही काम यदि बिना किसी विध्न के चला होता तो देश का वायुमंडल कुछ और ही होता। आज जो लिख रहा हूं, उसके पीछे मेरा अनुभव, भारतीय इतिहास का मेरा अध्ययन और गांधी जी से मिली जीवन दृष्टि इन तीनों का समन्वय है।’

काका कालेलकर हिंदी के प्रचार- प्रसार के लिए देश भर में घूमते रहे। वे आसाम गए, वहां से मणिपुर जाना था। तब वहां बिना अनुमति प्रवेश वर्जित था। काका ने ब्रिटिश एजेंट के नाम ₹15 खर्च करके एक लंबा -चौड़ा तार भेजा। लंबाई-चौड़ाई का प्रभाव पड़ा, अनुमति मिली पर तब तक बसें जा चुकी थीं।  किसी तरह एक ट्रेन में दिनभर यात्रा करने के बाद वे इंफाल पहुंचे। वहां कोई परिचित नहीं था। उन्होंने परिचय प्राप्त किया और वहां एक व्याख्यान दिया। दूसरे दिन वापस लौटे। वर्षों बाद एक बार फिर जाना हुआ। काका चकित थे, वहां के लोगों ने हिंदी के अनेक केंद्र खोल रखे थे। साहित्य चर्चा भी होती थी। उन लोगों ने काका साहब से कहा, ‘वर्षों पहले आप आए थे और आपने हिंदी के पक्ष में व्याख्यान दिया था। उसका मरवाड़ियों और असमियां लोगों पर अच्छा प्रभाव हुआ था। उनके सहयोग से हम कितनी प्रगति कर सके यह आपको दिखाते हैं। आज हमें आनंद है और अभियान भी।

किसी को भी इस सफलता पर गर्व हो सकता है। इसी तरह केरल की यात्रा के रोचक अनुभव आंख खोलने वाले हैं। गंतव्य पर पहुंचकर काका स्थानीय लोगों से मिले और आगे का कार्यक्रम तय किया। सवेरे उठने पर एक अंग्रेजी दैनिक में अपने स्वागत में जो पढ़ने को मिला वह कल्पना से परे था। इतना बड़ा शीर्षक था, ‘एन अदर आर्यन इनवेजन फ्रॉम द नॉर्थ – उत्तर से एक और आक्रमण।’ लिखा था,’ काका साहेब जैसे बड़े नेता हिंदी प्रचार के लिए दक्षिण में घूमने वाले हैं। आज केरल जाएंगे।

बड़ा आनंद आया काका को, पर उनके साथी उलझन में पड़ गए बोले, “क्या करेंगे?”

काका बोले  “शिक्षा शास्त्री हूं, पूरा फायदा उठाऊंगा इस बात का।”

सबसे पहले उन्होंने पता लगाया कि वे कौन लोग हैं जो इतना भड़कते हैं  फिर उन्हीं को आमंत्रित किया अपनी सभा में। वे चकित थे फिर भी अपनी बात कहने को आए। काका साहब ने अपना भाषण इस प्रकार शुरू किया,

“भाइयों आप भूल रहे हैं, मैं उत्तर का नहीं हूं, दक्षिण का भी नहीं हूं। मैं तो उत्तर और दक्षिण के बीच मध्य का (जरा पश्चिम की तरफ का) हूं। उत्तर के लोग यदि दक्षिण पर धावा बोलें तो बीच में हम ही उनको रोकेंगे। आप जानते हैं कि हम महाराष्ट्रियन को सब दक्षिणी कहते हैं। हिंदी राष्ट्रभाषा भले ही हो किंतु मेरी मातृभाषा तो महाराष्ट्री है। उत्तर की फौज लेकर में धावा क्यों बोलूं ? आपका ही नेतृत्व करके क्या मैं उत्तर के विरुद्ध नहीं लड़ूंगा।”

भाषण का आरंभ इस प्रकार विनोद से हुआ तो बहुत से बादल छट गए। काका आगे बोले, “आपको समझना चाहिए कि आज तक चंद खास प्रभावित लोग, स्वदेशी हों या विदेशी, साधारण जनता पर राज करते आए हैं। वे जनता की भाषा को दबा देते रहे हैं।”

“प्राचीन काल में आर्य लोग उत्तर प्रदेश में सर्वत्र फैले फिर दक्षिण में आए और उन्होंने यहां संस्कृत भाषा चलाई। मैं संस्कृत का भक्त हूं। आप केरल वासियों ने उसे सीखने में सबसे अधिक उत्साह दिखाया है। इसके बाद आए पठान और मुगल। उनकी धर्म भाषा अरबी और संस्कृति की भाषा फारसी है। उन भाषाओं का राज चला। वे दोनों भाषा उत्तर की इस देसी भाषा के साथ मिलीं और उर्दू पैदा हुई। इसके बाद पश्चिम के लोग आए, वह इतिहास आप जानते हैं उनकी भाषा अंग्रेजी है। उनका राज हम पर चल रहा है। उनकी अंग्रेजी यहां की प्रजा की भाषा नहीं है। किंतु यह भाषा की बात आपको विस्तार से समझाऊं इससे पहले मैं अपनी बात आपसे कहना चाहता हूं। आपके ऊपर कोई आक्रमण करें तो आप संगठित होकर अपने बचाव की तैयारी करते हैं। मैं आपको समझाने आया हूं कि केवल आत्मरक्षा करना उत्तम लक्षण नहीं है। संकट  देखकर,दीवार बांधकर अंदर रहकर आत्मरक्षा करने के बदले आक्रमण कारियों के विरुद्ध आप ही आक्रमण क्यों ना करें।अब आप ही बताइए कि पिछले 1000 वर्षों में केरल का सबसे बड़ा आदमी कौन था ? बेशक आद्य शंकराचार्य हुए थे। केरल के नंबूदरी ब्राह्मण केरल के बचाव के लिए, यहां पर उन्होंने सांस्कृतिक किले नहीं गढ़े। उन्होंने उत्तर के लोगों की भाषा सीख ली और उन पर आक्रमण किया। यह अकेला लघुकाय केरल का ब्राह्मण सारे देश में हर जगह जाता था और वाद-विवाद के लिए विद्वानों का आह्वान करता था। उत्तर की भाषा सीख कर उत्तर के शास्त्रों में प्रवीण होकर उन्होंने दिग्विजय किया। सारा देश जीतकर उन्होंने चार छोरों पर आध्यात्मिक मठो की स्थापना की। वे चार मठ आज भी मजबूती से काम कर रहे हैं। पश्चिम में द्वारका के पास,पूर्व में जगन्नाथ पुरी,उत्तर में हिमालय की गोद में जोशीमठ और दक्षिण में श्रृंगेरी अथवा कन्याकुमारी। तब से इन स्थानों पर शंकराचार्य के शिष्य धर्म प्रचार करते आ रहे हैं।”

“मैं आपको बताने आया हूं कि अब हम ब्राह्मण, मुल्लवी, अंग्रेज आईसीएस या मिशनरियों का राज नहीं चाहते, हम भारतीय प्रजा का राज चाहते हैं। वह राज प्रजा की भाषा में चलना चाहिए। केरल का राज न अंग्रेजी में चलना चाहिए न हिंदी में, वह तो मलयालम में ही चलना चाहिए और भारत की एकता संभालनी है ना, वह संभव होगा राष्ट्रभाषा द्वारा। बिना एकता के नहीं टिक सकेगी हमारी स्वतंत्रता और न टिक सकता है हमारा सामर्थ्य। दुनिया में हमारे देश की प्रतिष्ठा भी नहीं रह पाएगी और इस देश की भाषाओ में, जिस भाषा को बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक होगी, ऐसी स्वदेशी भाषा ही राष्ट्रभाषा बन सकेगी। इसलिए मैं आपसे कहने आया हूं कि मलयालम की मदद से उत्तर भारत की जनता की भाषा हिंदी, एक दूसरी ज़रूरी भाषा के तौर पर आप सीख ले और फिर शंकराचार्य की तरह उत्तर भारत पर धावा बोलें। आपको सिर्फ आत्मरक्षा करनी है या सर्व संग्रह एकता की भाषा लेकर सर्वत्र पहुंचना है उत्तर भारत से कटकर यदि आप दक्षिण भारत के लोग अलग रहेंगे और अंग्रेजों की छत्रछाया में रहना चाहेंगे तो देश के आप टुकड़े करेंगे। फिर एक-एक टुकड़ा भिन्न-भिन्न जबरदस्त राष्ट्र की शक्तियों के हाथ में चला जाएगा। यह सब टालने के लिए उत्तर की प्रजा की भाषा सीख कर उसका प्रचार करने का काम आप ले लीजिए जो काम एक समय श्री शंकराचार्य ने किया वहीं आज आपको दूसरे ढंग से करना है किंतु उसके लिए अखिल भारतीय एकता का आग्रह आपको संभालना होगा।

उनका सारा विरोध पिघल गया और केरल में हिंदी प्रचार का काम उन लोगों की सहायता से पूरे जोश से शुरू हो गया।

इधर उत्तर में एक बार हिंदी के साहित्यकार जैनेंद्र जी के मन में अंग्रेजी साप्ताहिक निकालने की वासना जागी गांधी जी ने उन्हें निरुत्साहित ही किया। बार-बार कहने पर गांधी जी ने कहा, “अंग्रेजी क्यों हिंदी क्यों नहीं?”

 जैनेंद्र जी ने कहा,”अंग्रेजी में बात उन तक पहुंचती है जहां तक उसे पहुंचना चाहिए।”

गांधी जी तुरंत बोले, “इसलिए तो कहता हूं अंग्रेजी में नहीं, जरूरी समझो तो हिंदी में निकालो। बात जिन तक पहुंचनी है हिंदी में ही पहुंचेगी। अंग्रेजी वालों को जरूरत होगी तो वे देखेंगे।”

 जिनेंद्र जी ने कहा, “तो आपकी अनुमति नहीं।”

 गांधी जी ने कहा,” मेरी तो राय है अनुमति अपने अंदर से ले लो। निर्णय तुम्हें लेना है।”

 सन 1935 के इंदौर अधिवेशन में सारे भारत में हिंदी का प्रचार करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की गई थी। इसको चलाने का दायित्व काका साहेब को सौंपा गया था। इसका कार्यालय भी वर्धा में रखा गया। काका साहब ने 8 प्रांतो में राष्ट्रभाषा प्रचार का काम किया और हर प्रांत में एक-एक संस्था भी स्थापित की। तब काका साहब और सम्मेलन के प्राण पुरुषोत्तम दास टंडन में गहरे मैत्री संबंध बन गए थे। लेकिन जब गांधी जी द्वारा की गई राष्ट्रभाषा की व्याख्या और दो लिपियों के प्रयोग को लेकर सम्मेलन और राजभाषा प्रचार समिति में मतभेद बढ़ता गया तब काका साहब ने टंडन जी से कहा, “इतना मौलिक और बुनियादी विरोध हो तो गांधी जी की प्रवृत्ति सम्मेलन के हाथ में नहीं रखी जा सकती। उसको स्वतंत्र करना होगा।”

टंडन जी ने कहा, “हमारी प्रवृत्ति आप ही ने संगठित की है। गांधी जी चाहे और पूरी प्रवृत्ति को सम्मेलन से अलग करें तो उसे मैं सहन करूंगा, किंतु गांधी जी की नई हिंदुस्तानी नीति को हम स्वीकार नहीं कर सकेंगे।”

टंडन जी ने कैसे भी हो भले ही लाचारी से ही, अपनी सम्मति देदी। काका साहब गांधी जी के पास पहुंचे और उन्होंने कहा,”बापूजी इस समय आप हिंदुस्तानी प्रचार के बारे में मौन रहें तो अपनी आठ प्रांतो की प्रवृत्ति हम सम्मेलन से अलग कर लेंगे। टंडन जी सहमत हो गए हैं, वे सम्मेलन को समझाएंगे। स्वतंत्र होने के बाद इतनी बड़ी संख्या द्वारा हम हिंदुस्तानी का प्रचार क्रमानुसार चलाएंगे। सारी संस्था यदि सम्मेलन को सौंप देंगे तो फिर सारे भारत में हिंदुस्तानी के नाम से दो लिपियों का प्रचार अशक्य होगा। मैं तो आपकी बात सब लोगों को समझाऊंगा किंतु देश में यह बात जड़ नहीं पकड़ सकेगी। भारत की तमाम प्रादेशिक भाषाओं के लिए नागरी लिपि स्वीकार की जाए इस तरह का प्रयत्न मैं कर रहा हूं। कर्नाटक में यह काम आरंभ हो चुका है। बंगाल में सख्त विरोध है, वहां हम नागरी लिपि में बंगाली साहित्य प्रकाशित करेंगे। गुरुदेव रविंदनाथ ठाकुर से मैंने इजाजत भी ले रखी है। इस हालत में अखिल भारतीय एक लिपि प्रचार की जगह राष्ट्रभाषा के लिए दो लिपियों का प्रचार शाक्य हो, ऐसा मुझे नहीं लगता।”

गांधीजी अब भी नहीं माने। उन्होंने काका साहब का यह अनुरोध भी अनसुना कर दिया कि जब तक आठ प्रांतो में राष्ट्रभाषा के प्रचार का काम सम्मेलन से स्वतंत्र करने की नीति मैं स्वीकार करूं तब तक वह वातावरण को क्षुब्ध ना करें। परिणाम यह हुआ कि देश में इस नीति का प्रबल  विरोध हुआ और टंडन जी को अवसर मिल गया। उन्होंने गांधी जी से कहा,”आठ प्रांतो का संगठन आपने किया है और मैं मानता हूं यह काका साहब की मेहनत का परिणाम है। किंतु यह सब आपने सम्मेलन के नाम से किया है और हिंदी का काम है यह कहकर किया है। इसलिए यह प्रवृत्ति आप हमें सौंप दें।”

गांधी जी ने उत्तर दिया,”यह काम आपको सौंप कर हम हिंदुस्तानी के नाम से नए सिरे से नई प्रवृत्ति चलाएं तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी?”

टंडन जी यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए बोले, “आप जरूर नहीं संस्था खड़ी करें, उसको मैं आशीर्वाद दूंगा। हमारी प्रवृत्ति हमें वापस दे दीजिए, इतना ही काफी है।”

गांधी जी ने वैसा ही किया। मई 1942 में उनकी अध्यक्षता में हिंदुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना की गई, लेकिन देश तो उस समय ज्वालामुखी पर बैठा था। वह सभा अपना काम शुरू कर पाती, अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया।

भाषा के साथ ही लिपि का प्रश्न भी जुड़ा होता है। गांधी जी ने यह दायित्व भी काका कालेलकर को सौंपा। काका कालेलकर गांधी जी के संसर्ग में आकर उतने ही सार्थक, रचनात्मक कार्यकर्ता भी बन गए थे। नागरी लिपि रोमन लिपि की होड में पीछे ना रह जाए इसलिए वे उसे अधिक से अधिक वैज्ञानिक बनाने को उत्सुक थे। इस दृष्टि से उसमें क्या-क्या सुधार अपेक्षित है, इस संबंध में उन्होंने काफी खोज की थी। सन 1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन के अवसर पर लिपि सुधार समिति की अध्यक्षता स्वीकार करने से पूर्व उन्होंने गांधी जी की अनुमति चाही थी। गांधी जी का उत्तर था कि अगर ऐसा करने से देश और हिंदी का भला हो तो अवश्य यह बोझ उठाओ।

और काका ने यह बोझ उठा लिया।

गांधी जी ने तब एक और बड़ी बात कही थी, “मैं भी पहले से चाहता ही हूं कि भारत की सब भाषाओं के लिए नागरी लिपि ही चले। अगर इतना हो गया तो देश के लोगों का काफी समय बच जाएगा और भारत की भाषाएं एक दूसरे के नजदीक आसानी से आ सकेंगी।

कई साल प्रयत्न करते रहने पर सम्मेलन ने लिपि सुधार की बात मान्य की। फिर भी कहा कि अभी उत्तर प्रदेश में इसका प्रचार ना किया जाए। इस काम में काका साहब को पुरुषोत्तम दास टंडन तथा डाक्टर बाबुराम सक्सेना जैसे भाषा शास्त्रियों का समर्थन प्राप्त था।

भारत छोड़ो आंदोलन के समय जब काका साहब जेल में थे, तब बिनोवा और किशोरी लाल भाई भी उनके साथ थे। उन तीनों ने मिलकर नागरी लिपि का सुधरा रूप तैयार किया था। मुख्य सुधार ‘अ’ की स्वर खड़ी को लेकर था। प्रचलित स्वरो के स्थान पर यह रूप स्वीकार किया गया।

काका साहब के कहने पर गांधी जी ने नवजीवन प्रेस के व्यवस्थापक, जीवन जी देसाई को सूचना दी कि वे भी इसी लिपि का प्रयोग करें। जब तक हरिजन सेवक चला उसमें इसी लिपि का प्रयोग होता रहा। उनका साहित्य उनकी मृत्यु के कुछ वर्ष बाद तक इसी लिपि में छपता रहा। लेकिन अंततः  हिंदी भाषा भाषियों ने काका साहब द्वारा प्रचलित सुधरी लिपि को स्वीकार नहीं किया। पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने लखनऊ में सब प्रांतो के मुख्य मंत्रियों की बैठक बुलाई थी। उसने ‘अ’ कि स्वर खड़ी ना मंजूर कर दी व इसके बाद धीरे-धीरे इसका प्रचलन समाप्त हो गया।

जब सन 1948 में देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद केंद्रीय सरकार ने नागरी आशु लिपि और टंकण यंत्र (टाइपराइटर) के लिए एक समिति बनाई तो काका साहब को उसका अध्यक्ष बनाया। उनके नेतृत्व में समिति ने योजना तैयार की। कई वर्ष बाद सरकार ने उसे जनता के विचारार्थ प्रकाशित भी किया और अंततः दूसरी भाषाओं की विशेष ध्वनियों को आत्मसात करने की दृष्टि से और टंकण की सुविधा के लिए लिपि में कुछ सुधार स्वीकार किया। उसी के अनुसार टाइपराइटर का वर्ण पटल या कुंजी पटल, कीबोर्ड तैयार किया। लिपि का यही सुधरा रूप अब सर्वमान्य है और उसमें समय-समय पर कुछ उपयोगी संशोधन भी किया जा रहे हैं।

गांधी जी की भावनाओं का अनुसरण करते हुए राष्ट्रभाषा हिंदी को भारत जैसे महान देश के योग्य भाषा बनाने के लिए, काका साहब ने बहुत प्रयास किया। उनकी मान्यता थी विदेशी शब्दों के बदले कई स्वदेशी शब्द अपने यहां मौजूद हैं, उन्हें हम सिर्फ आलस्य या प्रमादवश काम में नहीं लाते। जहां पुराने शब्द नहीं हैं वहां पर आमफहम या लोक सुलभ शब्द बनाए भी जा सकते हैं। देसी शब्दों को काम में लेने से और उनके भाव समझने से जो शिक्षा जनता को मिलती है, वह विदेशी शब्दों से नहीं मिल सकती। जब देश का सारा कारोबार देसी भाषा में चलने का निश्चय हो चुका है तब देश को अपनी टकसाल खोलनी ही चाहिए। उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में बताया, “हम अपनी भाषा का ख्याल किए बिना ही उनके नए-नए शब्दों को ज्यों का त्यों अपना लेते हैं, यह दिमागी गुलामी ही हमसे अपनी भाषा के प्रति विद्रोह का पाप कराती है। जिनम अपनी भाषा के नए-नए शब्दों को गड़ने की शक्ति, अभ्यास और प्रतिभा है उन्हीं को यह अधिकार है कि पर भाषा के भंडार से कितने और कौन से शब्द लिए जाए इसका निर्णय कर दें और यह भी की अपनी भाषा में जो चल सके ऐसे नए शब्द बना लेना, उन्हें चलाना और उनका प्रचार करना, यह अलग-अलग शक्तियां हैं। दोनों शक्तियों का जब हमारी जाति में विकास होगा, तभी हम सच्चे भाषा भक्त कहलाने के अधिकारी होंगे।

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