उसका नाम

– आस्था नवल, वर्जीनया, यू एस ए

हम अपने आस पास कितनी ही कहानियाँ बुन सकते हैं। पता नहीं कहानी बुनने की ज़रूरत होती है या कहानी पहचाननी होती हैं। हम थोड़ा सा यदि महसूस करना सीख लें या थोड़ा सा अपने से बाहर निकल कर देखें तो पता चलता है कि एक हम ही नहीं हैं जो किसी को याद करके रोते हैं या दोस्तों के साथ कभी कभी बिन बात के ही खुशी मनाते हैं। आदमी हर जगह एक सा होता है। आदमी से अर्थ पुरूष से नहीं मानव जाति से है। संबंध भी हर जगह एक से ही होते हैं, उनमें टकराहट भी एक सी होती है। हर ओर सुबह भी आती है और शाम भी आती है। हम चाहें तो भी रात को रोक नहीं सकते, न आने से, न जाने से।

फिर भी हम सब अपनी अपनी कहानी में अटके हुए बस अपने अपने ग़मों को रोते रहते हैं और अपनी ही खुशी में उलझे रहते हैं। ऐसे ही वह भी उलझी रहती थी अपने परिवार में, बच्चों में, रोज़मर्हा की भाग दौड़ में। उसने अपने परिवेश से बाहर कभी झांकना नहीं चाहा था। पहले उसका परिवेश वही था जो उसके माता पिता का था, फिर उसके पति ने एक परिवेश दिया और अब ज्यों ज्यों बच्चे बड़े हो रहे है, वह उनकी नई दुनिया से सीख रही है। उसे लगता है कि जो उसकी दुनिया है वह ही सबकी दुनिया है, जब जब उसकी दुनिया बदलती है तब तब समाज भी बदलता है। संयोग से उसके पड़ोस में उसकी जैसी ही स्त्रियाँ हैं जो केवल अपने बच्चों और पति को ही दुनिया समझती हैं। वह कभी कभी नई फिल्में देखती है तो उन्हें देख कर यही सोचती है कि ऐसा सच में नहीं होता, फिल्में तो केवल कल्पना होती हैं। उसे लगता है औरत को बस उसकी ही तरह होना चाहिए और उसे अपनी माँ की तरह। उसके अनुसार हर व्यवसायी उसके पति की तरह होता है और हर पति! कैसा होता है यह कभी सोचा ही नहीं। उसकी साधारण दुनिया में सब्जी भाजी खरीदना और बनाना ही स्त्री का मुख्य काम है। वह इसे बखूबी निभाती है इसलिए अपने आप को एक आदर्श नारी के रूप में देखती है।

उसकी दुनिया तभी तक आदर्श थी जब तक रूपा, उसके पति की चचेरी बहन उसके घर रहने नहीं आई थी। रूपा के माता पिता का देहांत उसके बहुत बचपन में ही हो गया था। रूपा को पढ़ने का शौक था, होस्टल में स्कॉलरशिप ले ले कर बड़ी हुई और युनिवर्सिटी ग्रांट लेकर बहुत सालों से विदेश में ही रह रही थी। परिवार के नाम पर रूपा के लिए बस इसी का परिवार था। इसका नाम कुछ भी हो सकता था। सीमा, सुषमा, आभा, रानी, रेखा, कुछ भी। इसने अपने नाम को कभी कोई महत्व नहीं दिया था और न ही कोई नाम बनाने की इच्छा की थी। पहले सब इसे ओम प्रकाश की बेटी की तरह जानते थे और अब सुधीर की बीवी की तरह और बच्चों के स्कूल में बच्चों की माँ के रूप में। उसे इससे अधिक कुछ होना भी कहाँ था।

यह अकसर सुधीर से रूपा के बारे में जानना चाहती थी। पर सुधीर स्वंय यही जानता था कि रूपा बहुत होशियार है और बचपन से आज तक कुछ न कुछ पढ़ ही रही है। कभी कभी रूपा का पोस्टकार्ड आता था और संक्षिप्त सा कुछ लिखा रहता था। सुधीर के माता पिता जब तक थे तब तक रूपा थोड़ी लम्बी चिठ्ठी भेजती थी। कभी कभी ताऊ ताई के लिए कोई उपहार भी भेज देती थी। सुधीर के माता पिता अकसर उसकी चिठ्ठी देख कर नाराज़ ही होते थे और रूपा की निंदा किया करते थे। बच्चों को जगह जगह से आए पोस्टकार्ड देखकर बहुत रोमांच होता था और वह किसी विदेशी औरत की अपनी बुआ के रूप में कल्पना किया करते थे। जब रूपा का पोस्टकार्ड आया जिसमें लिखा था कि वह कुछ दिनों के लिए भारत आ रही है और उसके घर में रहेगी तो एक अजीब सी उथल पुथल मच गई। सुधीर ने भी रूपा को बचपन में ही देखा था, कुछ बारह तेरह साल के ही रहे होंगे जब रूपा होस्टल में चली गई थी और तबसे कभी आई ही नहीं। बचपन में सुधीर की रूपा से तुलना होती और रूपा के अच्छे नंबरों का हवाला देकर डांट भी पिटती। बड़े होते होते वह अच्छाई बुराई में बदल गई। सुधीर के माता पिता दूसरों के सामने सुधीर को अच्छा बताते और रूपा को बुरा।

पतानहीं क्यों हमें किसी एक को अच्छा बताने के लिए दूसरे को बुरा क्यों बनाना पड़ता है? ऐसी क्या बाध्यता होती है कि एक को दूसरे के साथ तौलना ही होता है। क्यों हम किसी एक की तारीफ किसी दूसरे की बुराई किए बिना नहीं रह पाते! हर कोई कहीं न कहीं अच्छा और कहीं न कहीं बुरा हो सकता है। हर एक व्यक्ति अपने में अलग होता है, उसकी अपनी खूबियाँ होती हैं और अपनी खामियाँ। आईंसटाईन ने कहा था कि यदि मछली की योग्यता की पहचान उसे पेड़ पर चढ़ा कर करना चाहोगे तो वह सारी उम्र शर्मिंदगी में ही रहेगी। पर खैर! सुधीर को पढ़ने में कोई रुचि थी नहीं इसलिए रूपा के अच्छे नंबरों ने उसे कभी परेशान नहीं किया और अपनी तारीफ उसने कभी सुनी नहीं क्योंकि सुधीर के माता पिता मानते थे कि बच्चों की तारीफ पीठ पीछे ही करनी चाहिए नहीं तो वह सर चढ़ जाते हैं। सुधीर ने बी.ए. पत्रकारिता से किया था और बहुत जल्दी पिता का व्यवसाय संभालने लगा था। रूपा के विषय में सोचने का अवसर उसे कभी मिला नहीं।

पर जिस दिन से सुधीर की पत्नी ने पोस्टकार्ड देखा था, तबसे वह विचलित थी। फिल्मों की कई खलनायिकाओं जैसे चेहरे में रूपा की कल्पना कर चुकी थी। अपने आस पास की सहेलियों को रूपा की सच्ची झूठी कहानियाँ बता चुकी थी। घर को और अधिक सुव्यवस्थित करने में जुट गई थी। अपनी एक सखी से कुछ पश्चिमी व्यंजनों की रेसेपी भी ले आई थी। बच्चों को बूआ के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए यह भी सिखाने लगी थी। घर में जब कोई भी आने वाला होता था तो ऐसा ही होता था। सुधीर और बच्चे इस ड्रिल से परिचित थे। बस पश्चिमी पकवान की प्रेक्टिस थोड़ी नई थी। वह हर रोज़ अपने बाल भी अलग तरह से संवारने की कोशिश कर रही थी पर इस पर सुधीर और बच्चों का कभी ध्यान नहीं गया।

उसके लिए रूपा किसी दूसरे मेहमान की तरह नहीं थी। वह कहीं न कहीं रूपा से बिना मिले ही भयभीत थी। रूपा उसके परिवेश से बाहर थी और ऐसी स्त्री थी जैसी स्त्री की कल्पना भी वह नहीं कर पाती थी। कोई भारतीय स्त्री अकेले अपने बल बूते पर विदेश में जाकर रहे। यह बहुत भयावह सी बात थी। पतानहीं क्यों वह रूपा से बिन मिले ही उससे बेहतर बनने की कोशिश करने लगी थी। जिस दिन रूपा ने आना था उससे एक रात पहले, वह सो नहीं पाई, बार बार सुधीर से उसके रंग रूप के बारे में पूछती। कभी पोस्टकार्ड में रूपा की लिखावट देखती। सुधीर एयरपोर्ट लेने गया तो उसने बहुत सुंदर अक्षरों में रूपा के नाम का बोर्ड बना कर दिया। रुपा जब घर पहुँची तो उसे रूपा को देखकर अचम्बा सा हुआ। उसने मन में जिस खलनायिका की छवि बनाई थी, रूपा बिलकुल भी वैसी नहीं थी। उसने तो पड़ोस की स्त्रियों से सुना था कि विदेश में अकेली रहने वाली स्त्रियों के बाल और कपड़े दोनों ही बहुत छोटे होते हैं। ऐसी स्त्रियों को बच्चों से भी दूर रखना चाहिए, चह अनाब शनाब पट्टी पढ़ा देती हैं। सिगरेट शराब के बिना रह भी नहीं पाती हैं।

पर यह क्या! रूपा तो एकदम साधारण भारतीय लड़कियों जैसी लग रही थी। छोटा सा कद, सांवला रंग, बड़ी बड़ी आँखें पर उन पर चश्मा, बिना किसी रुचि के संवारे गए लम्बे बाल। रूपा को तो जैसे अपने रूप की कोई परवाह ही नहीं थी। एक लम्बा कुर्ता और जीन्स। कहीं से भी असभ्य नहीं थी। फिर गोरी भी नहीं थी। उसके हिसाब से विदेश में हर कोई गोरा होता है। जन्म से न हो तो विदेश जाकर हो जाता है। रूपा सफर के कारण थक गई थी। सुधीर को भी सोने की जल्दी थी। बच्चे सो ही चुके थे। रूपा ने औपचारिक हैलो बोला और उसने भी। तुरंत ही वह घर की मालकिन बन कर सुधीर को बताने लगी कि रुपा का सामान किस कमरे में जाएगा आदि। रूपा को उसने अपने दिवंगत सास ससुर का कमरा दिखाया, बाथरूम में साबुन इत्यादि कहाँ है बताया और तुरंत रसोई में चलदी।  सुधीर सोने चला गया और वह रूपा के फ्रेश होने का इंतज़ार करने लगी। रूपा नहा धोकर बाहर आई और दोनों की औपचारिकता को तोड़ने के लिए बोली, “सो! आई थिंक हम एक ही उम्र के होंगे। मुझे तो कभी सुधीर ने अपने बीवी बच्चों का नाम भी नहीं बताया। कभी पोस्टकार्ड का कोई उत्तर ही नहीं दिया”।

उसने तुरंत इतराते हुए कहा, “नाम जानकर क्या करोगी। ये तुमसे दो साल बड़े हैं तो मैं रिश्ते में तुम्हारी भाभी लगती हूँ, भाभी ही कहो। बच्चों से सुबह मिलना हो ही जाएगा। अब बताओ सब्जी के साथ रोटी खाओगी या पराठीं”

रूपा ने बिना किसी औपचारिकता के कहा, “नहीं नहीं मैं बस एक कप चाय पीना चाहूँगी। अगर कोई साथ में बिसकिट या रस्क मिल जाए तो नथिंग लाईक इट। ये सब्जी मैं कल खाऊँगी”।

रूपा की अनौपचारिकता उसे अच्छी लगी पर खाना न खाने की बात कुछ जमी नहीं। पर घड़ी देखकर कुछ ज़्यादा बोली नहीं और चाय का पानी चढ़ाने रसोई में घुस गई। पीछे पीछे रूपा भी आई और उसने अपनी पहली बार मिली भाभी से बहुत आग्रह किया कि वह उसे चाय बनाने दे पर सुधीर की पत्नी ने यह तो कभी सीखा ही नहीं था कि घर आए मेहमान से काम करवाए। मौका देखकर उसने बहुत धीरे से रूपा से कहा, “सुनो रूपा, एक रिकवेस्ट है, प्लीज़ घर में सिगरेट शराब मत पीना। और बच्चों को कभी मत बताना कि तुम यह सब पीती हो। तुम्हारे भाई भी बच्चों पता नहीं लगने देते”।

अचम्बित सी रूपा ने इस घरेलू स्त्री पर सर से पाँव तक नज़र डाली, सामान्य सा कद, सुंदर गोल चेहरा, कुछ परेशान सी काजल वाली आँखें, बहुत ही सुव्यवस्थित बाल जैसे अभी अभी बुहारे हों। रूपा ने पूछा, “आपने ये कैसे सोच लिया कि मैं सिगरेट और शराब पीती होंगी?”

“तुम विदेश से आई हो ना! और फिर अकेले रहती हो”।

उसके भोलेपन पर रूपा को बहुत हंसी आई और कुछ मुग्द होती सी बोली, “तो आपको लगता है विदेश में जो लड़की अकेली रहती है वह सिगरेट शराब पीती होगी और क्या क्या लगता है?”

“नहीं ! मैंने सुना है कि विदेश में बहुत सर्दी होती है तो शायद पीनी ही पड़ती है”।

रूपा को समझ आ गया कि यदि वह और हंसेगी तो उसकी अभी मिली भाभी को अच्छा नहीं लगेगा। इतने सालों बाद किसी रिश्तेदार से मिलकर उसे नाराज़ कर देना ठीक नहीं होगा। सच में उसे रूपा का मुस्कुराना बहुत खल रहा था। उसे लग रहा था जैसे रूपा उसका उपहास उड़ा रही हो। वह फिर घर की मालकिन की तरह बिना किसी हाव भाव के बोली, “चीनी कितनी लोगी?”

रूपा ने कहा, “नहीं मैं चीनी नहीं लेती। थैंक यू। फिर कुछ विराम के बाद बोली, भाभी! मैंने सिगरेट कभी नहीं पी। मैं हेल्थ डिपार्टमेंट में हूँ और सांस से जुड़े रोगों पर ही शोध कर रही हूँ। जानती हूँ कि सिगरेट के क्या क्या नुकसान हो सकते हैं। शराब सुनकर बहुत अजीब लगता है, पर हाँ कभी कभी दोस्तों के घर जाती हूँ तो वाईन ले लेती हूँ आज तक कुछ खास टेस्ट डेवलप नहीं कर पाई  इसलिए पीने का कोई शौक नहीं रखती हूँ। और मैं जहाँ रहती  हूँ ना वहाँ ट्रॉपिकल वेदर है। लगभग बोम्बे की तरह। तो ऐसी सर्दी नहीं पड़ती”।  चाय की चुस्की भरते हुए रूपा ने उससे पूछा, “आप बताओ, आप क्या करती हो?”

“नहीं नहीं मैं तो सिगरेट और शराब के बारे में सोच भी नहीं सकती। हमारे यहाँ की औरतें…” वह बहुत देर तक रूपा को अपने परिवेश और समाज की औरतों के बारे में बताती गई बिना यह समझे कि रूपा उससे क्या पूछना चाह रही थी। जब वह बोलना बंद हुई तो रुपा ने चाय खत्म करते हुए बोला, “चाय बहुत अच्छी बनी थी। आपके समाज की औरतों के बारे में जानकर अच्छा लगा। कल फिर बात करेंगे। वैसे मेरा सवाल था कि आप काम क्या करती हो? चलो गुड नाईट”।

सुधीर की पत्नी को अपनी बात पर बहुत शर्म आई। यूँ ही वह सिगरेट शराब की बात लेकर बैठ गई। सारी रात वह सोचती रही कि उसने रूपा के सवाल को ठीक तरह से क्यों नहीं समझा। पतानहीं रूपा क्या सोच रही होगी उसके बारे में! असल में उससे कभी किसी ने यह सवाल किया ही नहीं था कि वह करती क्या है? इसका क्या जवाब हो सकता है उसे पता भी नहीं था। एक ग्रहणी कितना कुछ करती है, रूपा को क्या पता? उसने रात भर में एक बहुत लम्बा चौड़ा सा उत्तर बनाया कि वह दिन भर में क्या क्या करती है। पर फिर उस उत्तर को बार बार मस्तिष्क के पन्नों से मिटाया और एक नया उत्तर बनाया। असल में वह जानती थी कि रूपा के सवाल का जवाब है कि वह एक हाऊस वाईफ है, कोई नौकरी नहीं करती। आज से पहले खुद को हाऊस वाईफ कहने में उसे कभी शर्म नहीं आई थी। पर कुछ अनकहा सा था जो वह अपने आप को रूपा से बेहतर दिखाना चाहती थी। शायद उसने अकसर अपने बच्चों की आँखों में बूआ का नाम आते ही चमक को देखा था। या बहुत बार सुधीर से सुना था, “रूपा तुम जैसी औरतों में नहीं आती”। शायद सुधीर के शब्दों में हिकारत की महक आती थी। इसीलिए उसके पास बस यही कुछ दिन थे अपनी दुनिया यानि परिवार को दिखाने के लिए कि वह रूपा से बेहतर है। पर पहली मुलाकात में ही उसे ऐसा लगा था कि रूपा उसका उपहास उड़ाकर, उसे निरूत्तर छोड़ गई।

आज भी वह ठीक तरह सो नहीं पाई। रूपा की काल्पनिक छवि टूट चुकी थी। रूपा को देखकर उसे निराशा भी हुई थी क्योकि पड़ोसी की देवरानी जब विदेश से आई थी तो कितना बन ठन के निकलती थी और तड़क भड़क के साथ आई थी। पड़ोसी भी कितने गर्व से उसके साथ बाहर निकलती थी। रूपा जैसी साधारण लड़कियाँ तो उसे रोज़ दिखती हैं। कहीं न कहीं वह अपने पड़ोसियों को दिखाना चाहती थी कि उसका संपर्क भी वैसी छवियों से है जैसी फिल्मों में दिखती हैं। पर रूपा तो हिन्दी भी बड़े सहज तरीके से बोल रही थी। थोड़े बहुत अंग्रेज़ी के शब्द तो आजकल सब ही प्रयोग करते हैं।

सुबह बच्चों को उठाते हुए उसने बताया कि बुआ वैसी नहीं है जैसा वह सोच रहे थे। उसने बच्चों को बुआ से मिलने के लिए इतना निरुत्साहित किया कि बच्चे जल्दी जल्दी तैयार होकर रूपा से बिना मिले ही स्कूल चले गए। रूपा का कमरा भी तब तक खुला नहीं था। जब खुला तो फिर एक छवि टूटी। रूपा ने तो नहा धो कर सलवार कमीज़ पहन लिया था, वो भी पुराने फैशन का। उसने तो सोचा था कि रूपा भारतीय कपड़े कभी नहीं पहनती होगी। रूपा ने बताया कि किसी ज़रूरी काम से उसे बाहर जाना है। शाम को आकर बात करेगी। सुधीर ने रात को ही रूपा को छोड़ने और ले आने की बात पक्की कर दी थी। रूपा की भाभी को यह अच्छा नहीं लगा कि सुधीर ने इस बारे में उसे कुछ बताया क्यों नहीं। वह अपने इस भाव को छिपा नहीं पाई और कुछ बड़बड़ाती हुई बोली, “तुम दोनों ने ही कल कुछ नहीं बताया। अगर पता होता तो मैं दिन के खाने की तैयारी न करती”।

सुधीर नहा धो कर नाशते की टेबल पर आ चुका था और अपनी पत्नी की खीज भरे प्रश्न का उत्तर देता हुआ बोला, “बताता कब? तुम रात को कमरे में आई या नहीं मुझे तो पता भी न चला। पता है रूपा, ये इतना काम करती है कि मेरे साथ बैठने का समय ही नहीं है इसके पास। मेरे सोने के बाद कमरे में आती है और उठने से पहले ही खटर पटर शुरू कर देती है। तुझे नींद ठीक आई?” सुधीर रूपा से बिना किसी औपचारिकता के व्यवहार कर रहा था। जहाँ पर उनका रिश्ता छूटा था, वहीं से शुरू हो गया था। रूपा ने भी सुधीर को ‘तू’ से ही संबोधित कर बातें शुरू कर दीं। बात करते करते जब रूपा ने ‘उसका’(सुधीर की पत्नी का) संबोधन भाभी की तरह किया तो सुधीर को बहुत हंसी आई और हंसता हुआ बोला, “तुझे क्या हो गया है, भाभी बोल रही है इसे। तुझसे दो-तीन साल छोटी है आराम से। याद है बचपन में अपनी हर अच्छी सहेली को मुझसे शादी करने की सलाह देती थी जिससे तुम एक घर में रह सको।” यह बोलते ही सुधीर के सामने बचपन की सारी स्मृतियाँ सजग हो गईं और वह थोड़ा सा भावुक हो गया। रूपा ने माहौल को हल्का करने के लिए कहा, “मुझे तो अब यही भाभी पसंद हैं। मैं इनके साथ रहने के लिए तैयार हूँ”।

सुधीर ने हंसते हंसते कहा, “तू फिर भाभी बोल रही है?” रूपा ने बताया कि ऐसा ही आग्रह हुआ है उससे तो सुधीर को बहुत हैरानी हुई और उसने चलते चलते अपनी बीवी को संबोधित करते हुए कहा, “तुम्हें पता भी है ये जहाँ से आई है वहाँ छोटा बड़ा, हर कोई एक दूसरे को नाम से बुलाता है”। सुधीर को तुरंत जवाब मिला, “ मैं तो भारत में ही रहती हूँ। मुझे क्या पता वहाँ क्या होता है। आप लोगों को मैं ग़लत लगती हूँ तो ठीक है बुला लो मुझे जैसे बुलाना है”। यह कहते ही उसका गला रूंध गया और वह अपने काम में लग गई। सुधीर को इतनी सी बात पर भावुक होने का अर्थ समझ नहीं आया और उसने जान कर भी अनजान बनना ठीक समझा। सुधीर ने गाड़ी की चाबी उठाई और बाहर चलता बना।

पुरूष अकसर कई चीज़ों को अनदेखा कर देना चाहते हैं। या तो उन्हें कुछ बातें नगण्य लगती हैं या फिर वह किसी भी भावुक स्थिति से दूर रहना चाहते हैं। सुधीर भी अकसर ऐसी स्थितियों को अनदेखा ही करता है। जब तक उसकी माँ जीवित थीं तब तक तो वह घर ही बहुत देर से आता था। उसे लगता था जितनी कम देर घर में रहेगा उतनी कम सास बहू की शिकायत सुनेगा। उसकी पत्नी को भी खुद को समझाने और संभालने की आदत थी। उसने कभी सुधीर से ऐसी उम्मीद नहीं की थी। उसे याद था कि उसके पिता भी सुधीर जैसे ही थे। उसकी दादी ने भी बताया था कि आदमियों को हमारा रोना धोना समझ नहीं आता, वो तभी खुश रहते हैं जब हम उनके सामने मुस्कुराते रहें।

पर रूपा तो स्त्री थी, और इसे अनदेखा नहीं कर पाई। कई वर्ष उसने होस्टल में रहकर, एक्सचेंज प्रोग्राम में जा जा कर, कई तरह के लोगों को देखा था। रिश्तों की बारीकियों और लोगों की भावुकता उसे खूब समझ में आती थी। शायद जब खुद पर कठिनाई आ चुकी हो तो हम दूसरों का दर्द अधिक समझ पाते हैं। कुछ लोग अपने में खो जाते हैं और कुछ लोग संवेदनशील हो जाते हैं। साथ ही जब माता पिता के साये के बिना रहना हो तब दूसरों के भावों इत्यादि का भी अधिक ध्यान रखना पड़ता है ना! रूपा ने अपना बड़ा सा बैग और धूप का चश्मा उठाते हुए धीरे से अपनी भाभी के पास जाकर कहा, “मैं तो तुम्हें भाभी ही बोलूँगी, रिश्तेदार के नाम पर एक तुम ही तो हो मेरी।” रूपा ने भाभी के कंधे पर हल्का सा हाथ रखा और बाय कहकर बाहर चलदी। ‘उसने’ सोचा नहीं था कि कभी किसी का ऐसा व्यवहार उसे इतना अच्छा लग सकता है। ऐसा क्या कह दिया था रूपा ने जो दोनों के जाने के बाद वह खाली घर में बहुत देर तक रोती रही। न जाने कौन सा गुबार था जो रूपा के सौहार्द ने छेड़ दिया था। रोते रोते कब सोई पता नहीं चला। बच्चों के आने पर उठी और फिर वही प्रतिदिन के ग्रहकार्यों में जुट गई। रोने के बाद थोड़ा हल्का महसूस कर रही थी। बच्चे बुआ के घर आने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे। जब शाम को सुधीर और रूपा घर लौटे तो रूपा बहुत से फल, चॉकलेट, कोल्ड ड्रिंक्स इत्यादि लेकर आई।

बच्चों को देखकर रूपा ने तुरंत उन्हीं की तरह बात करनी शुरू कर दी। उन्हें चॉकलेट दी और बताया कि वह विदेश से उनके लिए सामान का वजन ज़्यादा होने के कारण कुछ नहीं ला पाई। बच्चों के साथ वह ऐसी घुल मिल गई जैसे उन्हें हमेशा से जानती हो। बच्चे उससे विदेश की बातें पूछते रहे और ग्लोब पर उसने कौन सी जगह देखी है इत्यादि पूछ पूछ कर खुश होते रहे। रात को खाने की भव्य टेबल सजी। रूपा ने आग्रह किया कि सब एक साथ खायेंगे। भाभी रोटी पहले बना कर रख लें। ‘उसने’ बहुत मना किया पर सबने ज़िद्द की तो मान गई। उसे आज तक लगता था कि सुधीर कभी रखी हुई रोटी नहीं खाएगा। वह अकसर रसोई से देखा करती थी कि जब सुधीर का आखिरी कौर हो तब ताज़ा फूली फूली रोटी उसकी प्लेट में रखकर आए। ‘उसकी’ माँ भी ऐसे ही करती थी। पर रूपा ने तो आते ही यह बदल दिया। न बच्चों को कोई तकलीफ न सुधीर को। बल्कि सभी ने टेबल पर उसका स्वागत किया। जहाँ एक ओर उसे अच्छा लग रहा था वहीं उसे ग्लानि हो रही थी जैसे पति और बच्चों को बीस मिनट पहले बनी रोटी खिला कर वह कोई अपराध कर रही हो। पहले दिन तो वह खुद खाना खा ही नहीं पाई। बस दूसरा ठीक से खा रहा है या नहीं यही देखती रही। एक बार फिर उसके मन में घर की मालकिन वाला रूप उभर आया और बदलाव का कारण रूपा को देखकर अच्छा नहीं लगा।

टेबल पर सभी रूपा से बातचीत करते रहे और एकदम से दोनों बच्चों में से बड़ी बेटी ने कहा, “बूआ! आप बिलकुल भी वैसे नहीं हो जैसा हमने सोचा था। न ही वैसे हो जैसा मम्मी ने आपके बारे में बताया था। यू आर डिफरेंट”। इससे पहले कि कोई कुछ और बोले, बच्चों की माँ ने चौंककर बेटी की बात काटते हुए कहा, “ये सोचते थे कि इनकी बूआ कोई गोरी स्त्री है। गोरी माने अंग्रेज़”। रूपा मुस्कुराई और बेटी ने फिर कहा, “पर मम्मी आपने तो कहा था बूआ आपसे बड़ी हैं और हमें उनके साथ वैसा ही बरताव करना है जैसा हम आपकी फरेंड्स के साथ करते हैं। वो सारी आण्टी तो कितनी बोरिंग हैं। बूआ आपसे छोटी हैं, बिलकुल सामने वाली दीदी जैसी”। सामने वाले घर में एक नवविवाहिता थी जो रोज़ सुबह बच्चों को बस स्टॉप पे जाते हुए बाय करती थी। बच्चे अभी सात- आठ साल के ही तो थे। उन्हें क्या पता कि ऐसा कहने से उनकी माँ को कितना कष्ट होगा। वो माँ जो पहले से ही रूपा से भयभीत थी। ऊपर से सुधीर का यह बात सुन कर ज़ोर से हंसना उसे भीतर तक आहत कर गया।  अब वह सुबह की तरह रुंआसी नहीं हुई, पर एक अजीब सी चुभन हुई अंदर। मन किया कि बोल दे सुधीर को और बच्चों को कि रूपा ने बच्चे पैदा नहीं किए जो उसका शरीर बिगड़ा हो। या कह दे कि अगर वह भी बिंदी, सिंदूर इत्यादि न लगाए, बाल खोल दे तो रूपा जैसी ही लगेगी। या रूपा को कहे कि एक दिन पूरा घर संभाल कर दिखाए तो सबको पता चलेगा।

पर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा। वह ऐसी कभी नहीं थी। अपनी इस सोच पर उसे बहुत हैरानी हुई। उस रात ब्रश करते हुए बहुत देर तक अपने को बाथरूम में लगे शीशे में देखती रही। सोचती रही कि कैसे उसका चेहरा उसकी उम्र से बड़ा लगने लगा। उसे एहसास हुआ कि शायद उसने पहली बार अपना चेहरा इतने ध्यान से देखा है। ऐसा नहीं था कि वह सजती नहीं थी। बकायदा परिवारों की शादी इत्यादि में ब्यूटी पारलर से तैयार होती थी। हर महीने फेशियल भी कराती थी। पर आज कुछ और देख रही थी जो पहले कभी नहीं देखा था। रूपा के आने से पहले जो उथल पुथल मची थी वह उसके आने के बाद बढ़ती ही जा रही थी। उसे कभी रूपा बहुत अच्छी लगती, कभी उससे ईर्षा होती। कभी मन में आता कि रूपा के पैर पड़कर कहे, “तुम क्यों आई मेरी दुनिया में, चली जाओ यहाँ से। नहीं जाओगी तो मुझे अपने मन की उथल पुथल से उबारो।”

रूपा ने बताया कि उसके यहाँ आने का मकसद है अपने भावी ससुराल वालों से मिलना। उसके साथ ही एक बंगाली लड़का काम करता है जिसके साथ वह जीवन बिताना चाहती है। उसका नाम अरविंद है, वह भी थोड़े दिनों मे आएगा और तब रूपा को माता पिता से मिलवाएगा। यह सब सुन कर सुधीर की पत्नी ने रूपा से कहा था, “शादी करने का फैसला तुमने अपने आप ले लिया! किसी से पूछा नहीं?”

रूपा ने कहा, “किससे पूछती भाभी? तुम और सुधीर ही तो हो”।

उसने फिर कहा, “पर रूपा बंगाली लड़का, क्या तुम्हें बंगाली आती है?”

रूपा ने फिर कहा, “अरविंद तो हिन्दी और अंग्रेज़ी में ही बात करता है”।

“पर ससुराल में जब जब सब बंग्ला मे बात करेंगे, क्या तुम सबका मुँह ताकोगी?”

रूपा को ऐसे सवाल बहुत बचकाने लगते थे, पर अपनी भाभी का ख्याल करके बहुत प्यार से उनका जवाब देती थी। रूपा अकसर अपने परिवेश के बारे में उसे समझाने की कोशिश करती थी। हर बात को समझाने के लिए रूपा लम्बी सी भूमिका बनाती थी। इस सवाल के जवाब में रूपा ने बताया कि वह बचपन से होस्टल में बहुभाषी लड़कियों के साथ रही है। वह कई ऐसे देशों में भी गई है जहाँ कि भाषा उसे बिलकुल नहीं आती थी। हर बार भाषा महत्वपूर्ण नहीं होती। इंसान हर जगह एक से होते हैं। भावनाऐं वैसी ही होती हैं। भाषा तो एक बहुत छोटा सा माध्यम है। रूपा ने यह भी बताया कि उसकी बेस्ट फ्रेंड जर्मन लड़की है। इस भूमिका के बाद भी रूपा की भाभी बार बार वहीं आ जाती कि, “पर ससुराल में तो सब बंग्ला बोलेंगे!”

तब रूपा ने उससे पूछा, “अच्छा भाभी! तुम सुधीर से प्यार करती हो ना!”

ये सवाल भी कोई सवाल था? जब सुधीर उसका पति है तो प्यार करना ही था। उसने मन में इस सवाल की हंसी उड़ाई और रूपा की बात सुनती गई। रूपा ने कहा, “अगर आज सुधीर ऐसे लोगों में बैठने लगे जो कोई और भाषा बोलते हों तो क्या तुम उससे प्यार नहीं करोगी? भाभी! प्यार शर्तों पर नहीं होता। तुम सुधीर से जब पहली बार मिली थी तो क्या तुम्हें पता था कि वह तुम्हारा पति बन जाएगा?”

रूपा को नहीं पता था कि सुधीर की शुद्ध अरेंज मैरिज हुई थी। रूपा के परिवेश में यह अकल्पनीय था और उसकी भाभी के लिए रूपा का परिवेश असाधारण। दोनों एक दूसरे से बात करती थीं पर अकसर एक दूसरे के लिए जो अजीब बात होती थी वह किसी एक के जीवन का अंग होती थी। रूपा के प्यार वाले प्रश्न के बाद, ‘उसने’ यानि रूपा की भाभी ने रात को फिर शीशे में खुद देखकर सवाल किया था, “क्या मैं सुधीर से और सुधीर मुझसे प्यार करते हैं?” रूपा के आने से पहले उसके जीवन में ऐसे सवालो का कहीं कोई सरोकार नहीं था। पर अब रूपा के कारण सब बदलता जा रहा था। उसे भी अब सबके साथ टेबल पर रोटी खाना अच्छा लगने लगा था। वह बिना किसी ग्लानि के अपने लिए समय निकालने लगी थी। एक दो बार रूपा के साथ घूमने भी गई तो साड़ी न पहन कर सलवार कमीज़ पहन कर गई। बिंदी और सिंदूर भी लगाना कम कर दिया था। ‘उसके’ लिए यह एक आंदोलन की तरह था जिसमें वह धीरे धीरे रमने लगी थी। उसे हर रोज़ रूपा से कुछ सीखने को मिलता। रूपा ने जितनी उसके बनाए पकवानों की तारीफ की थी उतनी आजतक किसी ने नहीं की थी। एक दो चीज़ों की रेसेपी भी ली थी।

रूपा ने रेसेपी लेते हुए बताया था कि वह और अरविंद मिलकर खाना बनाते हैं। यह भी बताया था कि शादी के बाद अरविंद नौकरी छोड़कर आगे पढ़ाई करेगा और बस रूपा ही घर का खर्चा चलाएगी। ‘उसके’ लिए यह बहुत अजीब दुनिया थी। आदमी औरत शादी से पहले साथ रहें, साथ में खाना पकायें, औरत कमाए और पति पढ़ाई करे। यह सब जितना आश्चर्य जनक था उतना ही आकर्षक भी। अहिन्दी भाषी भी कभी दोस्त बन सकते हैं, उसकी कल्पना ही बहुत मज़ेदार थी ‘उसके’ लिए। रूपा के साथ वक्त बिताते हुए एक दिन उसने अपने कॉलेज के समय की पेंटिग दिखाई। रूपा ने खुश होकर कहा था, “भाभी इन्हें फ्रेम करवाओ। अब नहीं बनाती?”

उसने हंसते हुए कहा था, “अब तो शादी क्या, बच्चे भी हो गए”।

रूपा ने ज़ोरे से और कुछ गुस्से में कहा था, “तो!!!”

उस तो का कोई जवाब नहीं था। बस फिर देर रात तक शीशे में खुद को तलाशती रही थी। उस शीशे में जैसे वह अपना अतीत देखती थी। उस रात अपने आप को पेंटिग बनाते देखा था। शीशे में आर्ट टीचर पीठ थपथपाती हुई और माँ डाँटती हुई नज़र आई थी। रूपा और अरविंद एक दूसरे की पसंद नापसंद इत्यादि के बारे में सब जानते हैं। यह ‘उसे’ सोचने पर मज़बूर करता था कि वह सुधीर के बारे में और सुधीर उसके बारे में क्या जानता है। अभी वह ऐसी बातों को सोचना ही शुरू हुई थी कि रूपा के जाने के दिन आ गए। वह अरविंद के साथ भारत में ही एक दो जगह घूमने जाने वाली थी। शादी विदेश में ही करनी थी क्योंकि दोनों के करीबी लोग वहीं थे। अरविंद के माता पिता शादी के समय विदेश चले ही जाऐंगे। अरविंद, रूपा को ले जाने के लिए बकायदा सुधीर और परिवार से मिलने आया। अरविंद पहले सुधीर और बच्चों से मिला और बाद में रूपा की भाभी से। ज़ोर से हाथ मिलाया था ‘उससे’ और कहा, “अरे! बहुत सुना है आपके बारे में। दस पंद्रह दिन में ही अच्छी दोस्ती हो गई रूपा से। क्या मुझे भी आपको भाभी बोलना होगा?” यह सुनते ही सब बहुत ज़ोर से हंसे, और ‘उसे’ फिर भीतर तक कुछ चुभा था। क्यों चुभा था पतानहीं पर कहीं वह आहत हुई थी। जाते जाते रूपा ने कहा था, “अच्छा भाभी अगर शादी पर आ सको तो ज़रूर आना। बहुत अच्छा लगा आपके साथ रहकर। काश! मैं भी आपकी तरह लाईफ को सिमपली जी पाती, बिना किसी नाम के।”

पतानहीं रूपा ने उसकी तारीफ की थी या मज़ाक उड़ाया था। वह बहुत देर तक इन्हीं लफ्ज़ों को शीशे के सामने खड़े हो कर दोहराती रही थी। “काश! मैं भी आपकी तरह लाईफ को सिमपली जी पाती, बिना किसी नाम के।”

क्या ‘उसका’ जीवन अब उतना सरल रह पाएगा जैसा रूपा समझती है? पतानहीं रूपा ‘उसके’ जीवन में क्यों आई थी?

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