अमरीका में आई.ए.एस.

आस्था नवल, वर्जीनया, यू एस ए

बड़े शहर के पास स्थि‍त एक छोटा शहर अमरीका के छोटे शहर का एक मामूली-सा मोहल्‍ला। ऐसा मोहल्‍ला जिसमें रहने वाले अधिकांश पढ़े-लिखे लोग रोज़ सुबह अपनी गाड़ियों में बैठकर बड़े शहर की ऊँची इमारतों में काम करने चले जाते हैं और शाम को वापिस आकर खाना खाते हैं, टी.वी. देखते हैं और सो जाते हैं।

एक ऐसा पड़ोस जहाँ पड़ोसी पड़ोसियों की कार तो पहचानता है; पर, शायद घर में रहने वालों की सूरत नहीं।

ऐसा नहीं है कि पड़ोसियों में कोई संवाद न हो!

जब कभी गर्मियों में सप्‍ताहान्त पर अच्‍छा मौसम हो तो लोग बाहर निकलते हैं। कई लोग अपने पालतू कुत्‍ते घुमाते हैं। जिनके बच्‍चे हैं, वे बच्‍चों को पार्क में लेकर जाते हैं। यदि सर्दियों में भीषण बर्फवारी हो, अपना-अपना ड्राइव-वे सीढ़ियाँ साफ करने निकलते हैं। उस शहर में गर्मी तीन माह और सर्दी नौ माह तक रहती है।

बड़े शहर से करीब होने के कारण प्रोपर्टी की कीमत बहुत है यह एरिया टाउन होम वाला एरिया है। टाउन होम अर्थात ऐसे घर जो आमतौर पर तिमंजि़ले होते हैं और करीब 8-9 घर एक कतार में, एक-दूसरे से सटे खड़े होते हैं। बीच वाली मंजिल पर, रसोई और बालकनी होती है जिसे सब डेक कहते हैं। एक डेक दूसरे घरों के डेक से सटा होता है। पीछे वाली गली के मकानों के डेक इन डेकों के सामने होते हैं।

दो घरों के पिछवाड़ों के बीच की जगह उनके दिल्‍ली वाले घर की पीछे वाली गली से बिलकुल अलग थी। दिल्‍ली में उसके डेढ़ सौ गज के मकान के पीछे बनी छोटी-सी गली में खुलने वाला दरवाज़ा केवल कूड़ा उठाने वाली औरत के लिए खुलता था या फिर जब घर में मेहमान आते थे, उसे चुपचाप पिछले दरवाज़े से जलेबी-समोसे लाने भेजा जाता था।

वह अपने अमरीकी तिमंजिले घर के पीछे बालकनी में खड़े होकर जब-जब अपने लॉन को देखती थी तो अभी भी हैरत से भर जाती थी। उसके माता-पिता ने कई साल नौकरी कर घर में ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर दिल्‍ली वाला घर बनाया था और उसने तथा उसके पति ने शादी के दो साल में ही अपना घर बना लिया था।

वह अपने इस घर से बहुत प्रसन्‍न थी; पर, उसका पति टाउनहोम से खुश नहीं था। उसके दिल्‍ली के स्‍कूल के दो-तीन साथी जो उसी की तरह अमरीका में रह रहे थे, उनके घर सिंगल फेमली हाउस थे। मतलब बहुत बड़े घर, जिनकी दीवार दूसरे घरों की दीवार से नहीं जुड़ती। पर, उसे तो खूब सारे घर आसपास होना, जीवन को संबोधित करता-सा लगता था।

फिर, घर में रहते ही कितने थे? सप्‍ताह में पाँच दिन ऑफिस, शनिवार को हफ्तेभर की सब्‍जी, कुकिंग, सफाई आदि और रविवार को टी.वी.। उसने अपने घर के लिए मम्‍मी-पापा से कहकर भारत से एक खास नेम-प्‍लेट मंगवाई थी जिसमें लिखा था ‘मीना और संदीप का घर’।

संदीप ने बताया था कि यहाँ नेम-प्‍लेट नहीं लगाते। उसने निराश होकर डेक वाले दरवाज़े के ऊपर नेम-प्‍लेट लगा दी थी। उसी नेम-प्‍लेट की वजह से पीछे वालों को पता चला था कि वे भारतीय हैं और दिवाली पर उन्‍हें मिठाई का डिब्‍बा देने आए थे।

मीना तो भारतीय पड़ोसी पाकर खुशी से झूम उठी थी। थोड़ी-सी निराशा हुई थी जब उसे पता चला था कि उन्‍हें हिंदी नहीं आती, वह भारत के हिंदीतर क्षेत्र से थे। फिर भी नए घर की ‘पहली दिवाली और भारतीय पड़ोसी’, मीना के भारतीय मन को और क्‍या चाहिए था?

उसने अपने भारतीय पड़ोसियों की खूब खातिर की। बातचीत में पता चला कि पड़ोसियों का पहला बच्‍चा छ: महीने में होने वाला है। दोनों की ही नौकरियाँ हैं और दोनों को वीजा के कारण नौकरी करना बहुत आवश्‍यक है।

मीना तो ऐसी स्थिति में बच्‍चे के बारे में सोच भी नहीं सकती थी और अभी तक परिवार का कोई दबाव भी नहीं था। संदीप को जल्‍द से जल्‍द और बड़ा घर तथा दूसरी गाड़ी चाहिए थी, उसके बाद ही बच्‍चे का नम्‍बर आना था।

पड़ोसी दंपती ने अँग्रेज़ी में ही संवाद किया और दोनों को सलाह दी कि उन दोनों को भी बच्‍चा कर लेना चाहिए।  बच्‍चे तो अपने-आप पल जाते हैं । साथ ही, यह भी कहा कि बच्‍चे तो हमारे माता-पिता को खुशी देंगे। उनके नीरस जीवन में रंग भरेंगे आदि-आदि।

संदीप का पता नहीं, पर मीना को उनकी बातें सुनकर उस रात बहुत ग्‍लानि हुई। इस बात की ग्‍लानि कि उसने कभी भी अपने माता पिता की इस खुशी के बारे में सोचा नहीं। जबसे शादी हुई, उसने सिवाय नौकरी में पदोन्‍नति और घर-निर्माण इत्‍यादि के अलावा कुछ भी नहीं सोचा। उसे पता है कि उसके माता पिता उसके घर खरीदने पर कितने भाव-विभोर हुए थे। उसके लिए वहीं तक माता पिता की खुशी बहुत थी। संदीप की बड़ी बहन के बच्‍चे उसके सास-ससुर को बहुत प्रिय थे और भारत में वे बच्‍चे ही उनकी खुशी का कारण थे।

उसने सुबह उठते ही संदीप से संतान संबंधी अपने मन की बात की लेकिन संदीप ने आगामी दो सालों की अपनी प्राथमिकताओं की सूची उसे बता दी, जिसमें संतान का आगमन समझो सारे इरादों पर  पानी फेरना था। मीना भी उस बात को जल्दी ही ऑफिस जाते ही भूल गई।

मौसम में ठंडक बढ़ती गई और उधर पड़ोस में भी। मीना को कई बार अपने घर की खिड़की से भारतीय पड़ोसी के घर के अंदर दिख जाता था, जब कभी वे पर्दे करना भूल जाते थे। फरवरी में बहुत बर्फ पड़ी, मीना बड़े मन से डेक पर गई और स्‍नोमैन यानि बरफ से बना पुतला बनाने लगी। दक्षिण भारतीय दंपती  ने थोड़ा-सा दरवाज़ा खोलकर बिना डेक पर आए हाथ हिलाकर अभिवादन किया और मीना को सूचित किया कि दो महीने बाद उनके बेटी होने वाली है। यह भी बताया कि माँ भी दो दिन में आने वाली है।

मीना ने उन्‍हें बधाई दी और उनके लिए बहुत उत्‍साहित हो गई। दो दिन बाद उसने ऑफिस से लौटते हुए उस दंपती के लिए उपहार खरीदा और बिना उन्‍हें सूचित किए उनके घर पहुँच गई।

संदीप ने कई बार बताया था कि यहाँ किसी के घर बिना सूचित किए नहीं जाते। यद्यपि संदीप, मीना से केवल दो साल पहले ही अमरीका आया था लेकिन जताता ऐसे था मानो वहीं पैदा हुआ हो। उसने संदीप को बिना बताए जाना ठीक समझा और खुद को तर्क दिया कि वे लोग भी तो दिवाली पर बिना बताए आए थे।

दरवाज़ा खोलने घर का पुरुष आया, उसने अपनी भाषा में अपनी पत्‍नी को वहीं आने को कहा; मीना का मन हुआ भीतर जाने का लेकिन उसे सूचित किया गया कि वे दोनों कुछ शॉपिंग करने और बाहर खाना खाने जा रहे है। गर्भवती प्रिया भी बाहर नीचे आई और बहुत संक्षिप्‍त लेकिन प्‍यार से उसने मीना से बात की। मीना का ध्‍यान बच्‍चों की तरह उत्‍सुकता से भरी उन वृद्ध आँखों पर गया जो सीढ़ियों से ताक रही थीं तब उसे पता चला कि प्रिया की माँ एक दिन पहले ही भारत से आई है।

मीना ने बहुत ही स्‍वाभाविक रूप से कह दिया ‘ओह आंटी को यहाँ का खाना खिलाने लेकर जा रहे हो?’

प्रिया और उसका पति, दोनों हंसे और उसे बताया कि नहीं, ऐसा नहीं है। संतान होने में डेढ़ महीने से भी कम बचा है, यही वक्‍त है जब वे दोनों एक-दूसरे के साथ समय बिता सकते हैं, साथ ही मित्रों से भी मिल सकते हैं। माँ तो इसीलिए आई हैं कि हम दोनों को घर का कोई काम न करना पड़े। मीना को यह भी बताया गया कि प्रिया की माँ को काम करना बहुत पसंद है। एक ही दिन में, उन्‍होंने पूरी रसोई और साफ-सफाई सीख ली है। बच्‍चा होने से पहले उन्‍हें मशीन में कपड़े धोना-सुखाना भी सिखा दिया जाएगा।

मीना ने उन उत्‍सुक आँखों को नीचे से ही नमस्‍ते किया। वे आँखें मुस्‍कुरा दीं और आशीर्वाद वाला एक हाथ उठाया गया। मीना कुछ उदास-सी अपने घर लौट आई।

उस दिन मीना को अपने माता-पिता की बहुत याद आई। तभी उसे लगा कि उसने प्रिया के पिता के बारे में तो पूछा ही नहीं। वह हर रोज़ देखने की कोशिश करने लगी कि क्‍या प्रिया के पिता भी आये हैं। जब उसे खिड़की से कोई अन्‍य पुरुष नहीं दिखाई दिया तो वह उदास हो गई यह सोचकर कि शायद प्रिया के पिता जीवित नहीं होंगे।

उसने मन ही मन प्रिया के बारे में बहुत सोचा, उसकी बच्‍ची और उसके शुभ स्‍वास्‍थ्‍य की कामना भी की। यह भी सोचा कि शायद अपनी माँ का अकेलापन मिटाने के लिए ही प्रिया माँ बन रही है।

डेढ़ महीने में ही एक दिन शाम को खिड़की पर पर्दा करते समय उसने देखा कि प्रिया की माँ के हाथ में एक छोटा-सा बच्‍चा था। मीना का मन हुआ कि उसी वक्‍त बच्‍ची को देखने जाए पर उनसे जाकर क्‍या कहती कि ‘मैंने आपकी खिड़की में झांका तो पता चला कि बच्‍ची हो गई है?”

संदीप उसे कई बार टोकता रहता था कि उसे दूसरों के मामले में टांग अड़ाने में क्‍या सुख मिलता है? पर, मीना को लगता था कि वह टांग नहीं अड़ा रही बल्कि पड़ोसी-धर्म निभा रही है। उसके पास प्रिया का फोन नम्‍बर भी नहीं था, नहीं तो मैसेज करके ही हालचाल ले लेती।

उसने सोचा कि दिल्‍ली में भी साथ वाली आंटी का फोन नम्‍बर उसे कहाँ  पता था, कभी भी मुँह उठाकर उनके घर चली जाती थी। साथ वाली आंटी भी कभी भी सीधे रसोई में घुसकर मम्‍मी से बात करने लगती थीं। कितनी स्‍वादिष्‍ट खीर बनाती थीं वे! मीना को हमेशा खीर देने आती थीं और पीछे वाले अंकल जिनका स्‍कूटर हमेशा मीना के घर के पीछे वाले दरवाज़े पर खड़ा होता था। जब भी कूड़ा उठाने वाली आती थी, पापा, अंकल को आवाज़ देकर बुलाते थे कि स्‍कूटर हटा लें। फिर यहाँ दिल्‍ली जैसा क्‍यों नहीं?

संदीप के बार-बार याद दिलाने पर भी कि यह दिल्‍ली नहीं है, वह अमरीका की धरती पर भारतीयों को देखते ही दिल्‍ली वाली बन जाती थी। बुजुर्ग भारतीयों को देखकर नमस्‍ते अंकल आंटी करने लगती थीं। संदीप को मीना की उत्‍सुकता नहीं समझ आती थी कि उसे पड़ोसी की बच्‍ची को क्‍यों देखना है और क्‍या फ़र्क पड़ेगा यदि बच्‍ची का चेहरा माँ जैसा होगा या पिता जैसा…

… कुछ हफ्तों में मौसम खुलने लगा। जब एक दिन ऑफिस के लिए निकलते हुए मीना ने बनी ठनी प्रिया को कार चलाते देखा तो उसे हैरानी हुई कि इतनी जल्‍दी प्रिया ऑफिस भी जाने लगी! उसे लगा कि अब वह बच्‍ची को देखने ज़रूर जायेगी।

एक शनिवार उसने संदीप को मना लिया कि वह उसके साथ पड़ोसियों के घर चले, संदीप ने मीना की उत्‍सुकता को देखते हुए ‘ना’ नहीं कहा उसने पड़ोसियों को सूचित किया और स्‍वीकृति मिलते ही वे बच्‍ची के लिए कुछ उपहार लेकर उनके घर पहुँच गए।

आज प्रिया ने ही दरवाज़ा खोला और आदर से भीतर ले गई और उपहार की औपचारिकता पर भी प्रश्‍न उठाया। पंद्रह बीस मिनट बात करने के बाद उसने अपनी भाषा में ऊपर की मंजिल पर आवाज़ लगाते हुए कुछ कहा, जिस पर उसकी माँ बच्‍ची को गुलाबी कंबल में लपेट कर लाईं। बच्‍ची का नाम ‘रीया’ रखा था ताकि अमरीकी लोग उसका नाम सही तरह बोल  सकें। बच्‍ची  दो महीने की हो चुकी थी।

प्रिया की माँ बच्‍ची के साथ बहुत प्रसन्‍न लग रही थीं। अँग्रेज़ी और हिंदी न आने के कारण वह बातचीत नहीं कर पा रही थीं। उन्‍होंने इशारों से पूछा कि वे क्‍या खायेंगे और इशारों से ही बताया कि उन्‍हें यहाँ बहुत सर्दी लगती है। मीना ने आश्‍वासन दिया कि जल्‍दी ही अच्‍छा मौसम आएगा। प्रिया ने अनुवाद करके माँ को बताया। माँ मुस्‍करा दीं।

बातों-बातों में मीना को पता चला कि प्रिया के पिताजी आ नहीं सकते क्‍योंकि सरकारी नौकरी खत्‍म होने में अभी कुछ वर्ष शेष हैं। देश में उसका छोटा भाई है जो अभी पढ़ रहा है अत: उसके साथ भी किसी को रहना है।

प्रिया ने बताया कि कोई घर में आता है तो उसकी माँ बहुत खुश हो जाती है। उन्‍हें समझाना पड़ता है कि हर किसी के लिए दरवाज़ा नहीं खोल सकते। उसने हँसते हुए बताया कि माँ तो डाक लाने वाले को भी पानी पिलाने पहुँच जाती हैं। एक दिन एक महिला वोट माँगने आई, उसे भी घर के अंदर ले आईं।

प्रिया का पति घर पर नहीं था। जब तक मीना बच्‍चे के साथ खेलती रही तब तक संदीप और प्रिया मीना और प्रिया की माँ की समानतायें गिनते रहे कि कैसे दोनों भारत और यहाँ के अंतर को समझ ही नहीं पातीं। जब मीना ने प्रिया से पूछा कि उसे अमरीका आए कितना समय हुआ तो पता चला कि वह साल भर पहले ही आई है जबकि उसका पति तीन साल से यहीं है। वीजा संबंधित प्रपंच करने के बाद ही वह आ पाई।

मीना को हैरत हुई कि फिर कैसे इतनी जल्‍दी यहाँ के तौर तरीकों में रम गई जबकि उसे तो तीन साल होने को आ रहे हैं, आज तक फेसबुक पर ‘लिव इन दिल्‍ली’ ही लिखा हुआ है। मन ही नहीं मानता अमरीका लिखने को।

उसे बच्‍ची और आंटी से मिलना बहुत अच्‍छा लगा और प्रिया से मिलकर अजीब लगा कि वह तो भारत को याद ही नहीं करती थी।

अप्रैल चल रहा था, मीना को मौसम बदलने का इंतज़ार हो रहा था। संदीप उसे बार-बार चेतावनी दे रहा था कि अबकी बार इस शहर में सर्दी लम्‍बी चलेगी। मीना को अपने से ज्‍़यादा प्रिया की मम्‍मी के लिए सर्दी के खत्‍म होने का इंतज़ार था। उसे याद था कि जब वह इस देश में आई थी तो कैसे हड्डियों तक सर्दी घुस जाती थी। कैसे घर गर्म होने के बावजूद, अजीब-सी ठंड मन में जमी रहती थी। उसे याद था- जब तक नौकरी नहीं लगी थी, सुनसान या सूनापन कैसे उसे काटने को आता था। उसे याद था कि कैसे दिनभर सड़क पर गाड़ियाँ देखती रहती थी, इंसान तो कोई दिखता नहीं था। कैसे सारे दिन घर में फिल्‍मी गीत चलाकर रखती थी ताकि अकेलापन न लगे। इसीलिए वह प्रिया की माँ के अकेलेपन के बारे में अक्‍सर सोचती रहती थी।

एक दिन, घर से निकलते हुए मीना का पैर फिसला और सीधे हड्डी ही टूट गई। चार से छ: हफ्ते के लिए प्‍लास्‍टर चढ़ाया गया। शुरू के दो दिन संदीप ने उसके लिए छुट्टी ली जिससे मीना को बहुत आनंद आया। उसने प्‍लास्‍टर पर अपनी पसंद के रंग का कास्‍ट लगवाया। इससे भी उसे खुशी हुई। भारत में वह इसी की फोटोज़ मोबाइल से भेज रही थी।

जब तीसरे दिन संदीप ऑफिस गया तो ज़रूरत का सभी सामान मीना के कमरे में रख गया। कमरे में ही दूध सीरियल का नाश्‍ता और लंच के लिए ‘सेंडविच’ बना कर रख गया। एक थरमस में चाय और जग में पानी भी था।

कभी भी उसने अपने घर के बेडरूम में इतना समय नहीं बिताया था। कभी बेडरूम के पर्दे भी नहीं खुलते थे। आज सुबह ही उसने संदीप से पर्दे हटाने को कह दिया था। आज उसे ऊपरी मंजि़ल से अपना घर बहुत बड़ा लग रहा था।

उसे खिड़की से अपना और प्रिया का डेक और रसोई दिख रहे थे। वह पलंग पर बैठ कर थोड़ा बहुत कम्‍प्‍यूटर पर काम करती रही। जब-जब बाथरूम जाने के लिए बहुत मुश्किल से उठती तो बाहर देख लेती।

हर रोज़ का यही नियम था अब! ऐसे में उसे देश की बहुत याद आई। जब से इस देश में आई थी, भाग ही रही थी, नौकरी, घर, बाज़ार, कभी अकेले बैठी ही नहीं थी। जब शुरुआत में नौकरी नहीं थी तब नौकरी पाने के लिए बेचैन रहती थी। अब नौकरी थी तो उससे ब्रेक पाने का सपना देखती रहती थी।

हड्डी का टूटना जैसे उसके लिए एक सोचने-विचारने का समय था। खिड़की से नीचे जब देखती तो प्रिया की मम्‍मी कभी खाना बनाती दिखती या फिर डेक के दरवाज़े पर कभी बच्‍ची के साथ या कभी अकेले खड़ी दिखती थीं।

पहले दो दिन संदीप के ऑफिस जाने के बाद मीना बहुत परेशान रही। भारत की सखियों को याद किया जो भारत में ऐसी हाल में कभी अकेला नहीं रहने देतीं। पड़ोसी आंटी की खीर को याद किया जब ठण्‍डा खाना खाना पड़ा। मम्‍मी-पापा का लाड़ प्‍यार याद किया जब मुश्किल से उठकर बाथरूम तक जाना पड़ता।

मीना को खिड़की से बाहर देखकर ही हिम्‍मत मिलती जहाँ प्रिया की मम्‍मी दिखतीं थीं। उसके लिए वह ही एक साथी थीं। दूसरे हफ्ते उसने ऊपर से ही खिड़की पर ठक-ठक किया, यह‍ सोचकर कि शायद आंटी उसे ऊपर देखेंगी और वह हाथ हिला पाएगी। पर इतने ठण्‍डे इलाके में खिड़कियाँ दरवाज़े ऐसे थोड़े न होते हैं कि आवाज़ कहीं चली जाए।

जितनी अच्‍छी ‘क्‍वालिटी ऑफ लाइफ’ या  खिड़की;  उतना ही अधिक एकांत!

मीना अकसर सोचती कि संदीप क्‍या करेगा, इससे भी बड़े घर में रहकर।

आजकल यह भी सोचने लगी थी कि वह इस देश में क्‍यों रह रही हैं? पता नहीं क्‍यों माता-पिता ने विदेश में रह रहे लड़के से उसका विवाह तय कर दिया।

पता नहीं क्‍यों वह भी मान गयी यहाँ आने के लिए? संदीप उसे बहुत पसंद था लेकिन उसकी महत्‍वाकांक्षाएं समझ नहीं आती थीं।

दूसरे हफ्ते के अंत तक मीना ने इतने प्रयत्‍न किए कि प्रिया की माँ ने नज़रें उठाकर उसे देख ही लिया। संदीप के मना करने पर भी उसने ए.सी. वाले घर में खिड़की खोलने का दुस्‍साहस भी कर लिया। आंटी से उसकी बातचीत इशारों में हुई।

इशारों से आंटी को उसने अपनी हालत बताई, आंटी ने इशारों में ही उससे पूछा कि गर्मियां कब आयेंगी, उन्‍हें ठंड लगती है।

अब मीना से अधिक, आंटी ही उसका इंतज़ार करने लगीं। एक दिन अच्‍छी धूप निकली, दिन थोड़ा गर्म था, आंटी ने डेक पर आना चाहा पर उनसे दरवाज़ा ही नहीं खुला। ‘स्‍लाइडिंग डोर’ था। एक तरफ स्‍टॉपर लगा हुआ था। मीना ने इशारों से खोलने का तरीका समझाना चाहा, पर वह नहीं समझ पाईं थी।

दोनों को बहुत निराशा हुई। जब तक चौथा हफ्ता आया, दिन में एक बार सीढ़ियाँ उतरने के लायक हो गई मीना। उस दिन आंटी बच्‍ची को गोद में उठाए ऊपर की ओर देख रही थी, तब मीना ने अपने डेक पर पहुँचकर उनको चौंका दिया। आज आंटी भी डेक पर आ गईं। दोनों बहुत खुश हुई एक-दूसरे को देखकर। बच्‍ची अंदर सो रही थी। हर पाँच मिनट में आंटी अंदर जाकर उसे देख आती थीं। आज आंटी अपनी भाषा में बहुत कुछ कह रही थीं। बीच-बीच में हंसती थी, फिर उदास होती थीं। मीना को कुछ समझ नहीं आ रहा था; वह बस डेक पर रखी बेंच पर बैठकर उन्‍हें देखे जा रही थी।

थोड़ी देर देखते-देखते मीना को लगा कि आंटी और उसमें कोई अंतर नहीं है। शायद आंटी घर की याद, बेटे और पति की याद की बात कर रही थी। ठंड की शिकायत, गर्मी का इंतज़ार, घर वापिस जाने की बेताबी, दिनभर ऊपर नीचे आ-जाकर घुटने का दर्द। टी.वी. के असंख्‍य रिमोट होने पर भी टी.वी. न चला पाने की लाचारी। बेटी और दामाद के हर समय व्‍यस्‍त रहने की चिंता आदि-आदि।

प्रिया की माँ की भाषा न जानते हुए भी मीना को उनके आशय खूब समझ आने लगे थे। बच्‍ची की रोने की आवाज़ आई और आंटी बिना ‘बॉय’ कहे ही अंदर चली गयी। फिर बहुत देर तक आई भी नहीं। मीना भी लौट आई, अंदर आकर आंटी के बारे में ही सोचती रही। सोचती रही कि प्रिया को लग रहा था कि वह माँ को खुशी देगी; लेकिन यहाँ तो उसकी माँ अकेलेपन से कहीं अधिक दुखी हैं। अगले दिन मीना अपने साथ फोन लेकर गई जिससे कि ‘गूगल ट्रांसलेटर’ का कुछ प्रयोग किया जा सके। उस दिन मौसम अच्‍छा नहीं था, सूरज ने ना आने की ठानी थी। आंटी तो कब से इंतज़ार कर रही थीं, मीना के दरवाज़े पर दिखने का। मीना भी आंटी की उदासी दूर करने के उपाय ही सोच रही थी।

कभी-कभी ऐसे रिश्‍ते उस समय-विशेष के लिए सबसे ज़रूरी रिश्‍ते होते हैं। कठिन समय में कई बार पुराने रिश्‍ते, पारिवारिक रिश्‍ते भी काम नहीं आते। शायद बिना किसी अपेक्षा के साथ कोई भी संबंध हो, अच्‍छा ही लगता है। ऐसे अल्‍प समय के रिश्‍तों में भी कोई अपेक्षा नहीं होती। साथ ही ऐसे रिश्‍तों को विगत और भविष्‍य की भी चिंता नहीं होती। गीता के उपदेश की तरह ये रिश्‍ते वर्तमान में ही रहते हैं। हर काल से मुक्‍त। हम वैसा ही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। मीना के लिए उस सम-विशेष के लिए पीछे वाली गली की आंटी सबसे महत्‍वपूर्ण थीं। अमरीका के उसके सभी जानकार काम पर जाते थे। भारत की अधिकांश सखियाँ अपनी-अपनी नयी गृहस्‍थी में व्‍यस्‍त थीं और समय में दिन रात का अंतर होने के कारण बात हो ही नहीं पाती थी। माता-पिता से हर रोज़ सुबह पाँच मिनट की बात होती थी जिसमें एक दूसरे का हाल ही लिया जाता था। माता-पिता अपनी किसी परेशानी का बखान मीना से नहीं करते थे। मीना को उनकी आवाज़ जब कभी सुस्‍त लगती तो वे बात बदल देते थे।

मीना भी अपनी बात कहाँ बताती थी, कहाँ कभी बताया था उसने कि उसे उनकी बहुत याद आती है! माता पिता उसके पैर की चोट के लिए चिंतित थे, वह भी जितना होता उससे अधिक ही अच्‍छा अपना हाल बताती थी जबकि प्रिया की माँ से अपने दर्द की बात वह बेहिचक कर लेती थी। शायद प्रिया की माँ भी ऐसा ही करती थीं।

जिस दिन मौसम अच्‍छा होता, डेक पर दोनों दो दो घंटे भी बैठ जातीं। आंटी के जिन शब्‍दों की आवृत्ति होती, उसे मीना तुरंत अनुवाद करके देख लेती। अधिकतर वह-वही बातें होती थीं। दोनों के ही जीवन जैसे घर में रुके से हुए थे।

जिस दिन प्रिया की बेटी की डॉक्‍टर अपाइमेंट होती उस दिन आंटी बहुत खुशी होती क्‍योंकि उन्‍हें घर से बाहर जाने को मिलता था। प्रिया और उसके पति को बच्‍चे को अकेला संभालना ही नहीं आता था। अत: वे आंटी को साथ लेकर जाते थे। आंटी डॉक्‍टर विजि़ट के अगले दिन मीना से अमरीका की साफ-सफाई की चर्चा अत्‍यधिक करतीं। दोनों अपनी-अपनी भाषा में जो बोलतीं, कुछ समझ में आता, कुछ नहीं आता।

एक-दूसरे से बात करके दोनों का ही मन बहुत प्रफुल्लित रहता। मीना का पैर लगातार बेहतर हो रहा था। छह हफ्ते बाद डॉक्‍टर ने उसे ऑफिस जाने की अनुमति दे दी। वैसे तो एक हफ्ता पहले भी सहारे के साथ जा सकती थी पर वह जाना नहीं चाहती थी। उसे अब ये छुट्टियां भाने लगी थीं। थोड़ी सुस्‍ती अच्‍छी भी लगती थी, अपने घर को भी वह जीने लगी थी।

उसने शुक्रवार को आंटी को सूचित किया कि अब सोमवार से उसे ऑफिस जाना होगा। आंटी की आँखों से पानी बरसने लगा और साथ ही मीना की भी आँखें नम हो गई। शनिवार और रविवार को तो वे दोनों वैसे ही नहीं मिल पातीं थीं। उनकी इस घनिष्‍ठ मित्रता का प्रिया या उसके पति को कोई अंदाजा नहीं था। वे दोनों बेखबर थे कि उनके बारे में मीना ज़रूरत से ज्‍़यादा जानती है। उनकी बेटी के सोने, जागने, डायपर गीला करने के समय का भी शायद मीना को उन दोनों से अधिक अनुमान था।

संदीप को ज्ञात था कि आंटी और मीना बातें करती हैं, पर संदीप के अनुसार मीना तो सबसे ही बात करती है। उसे भी इस संबंध की घनिष्‍ठता का आभास नहीं हुआ था। मीना को पुन: ऑफिस जाने के ख्‍याल से अधिक आंटी के अकेलेपन का ख्‍याल मन में खटक रहा था।

पर, अब मौसम थोड़ा खुल गया था। उस शहर में बहुत अधिक गर्मी तो कभी नहीं पड़ती थी पर फिर भी ठिठुरती ठंड की अपेक्षा मौसम सुहावना हो गया था। मीना ने आंटी को आश्‍वासन दिया कि अच्‍छे मौसम में वह बच्‍ची को बाहर घुमाने लेकर जा सकती है। जब प्रिया घर आ जाए तो शाम की सैर पर भी निकल सकती हैं, कभी-कभी मीना के साथ भी सैर कर सकती हैं। यह जानकर आंटी खुश हुई थीं।

ऑफिस शुरु होते ही काम के बोझ के कारण मीना देर से घर वापिस आने लगी। कोई दो हफ्ते तक उसे किसी की सुध नहीं आई। पैर टूटने पर जुड़ा रिश्‍ता जितना भी गहरा हो, पैर जुड़ते ही मीना की दिनचर्या से गायब हो गया। उसे एक दिन डेक पर प्रिया और उसके पति दिखे। वे नई ग्रिल लेकर आए थे। संदीप ने अपने डेक से ही ‘ग्रिल’ के विषय में पूछताछ की, परंतु मीना ने केवल इतना ही कहा कि उनके भारत वाले घर में नहीं, पर गली में एक तंदूर था जो ग्रिल का काम ही करता था, उनका ग्रिल देखकर उसकी याद आ गई। यह सुनकर सब हँस पड़े। थोड़ी बातचीत के बाद मीना ने उनसे आंटी के बारे में पूछा। प्रिया ने अपनी माँ को जानने का दावा करते हुए कहा, “माँ को बाहर निकलना बिलकुल पसंद नहीं है, उन्‍हें यहाँ की गरमी में भी सर्दी ही लगती है। और तो और उन्‍हें रसोई के काम ही हमेशा से अच्‍छे लगते हैं।”

प्रिया किसी ऐसी महिला का चित्र खींच रही थी जो शायद हिंदी की पुरानी फिल्‍मों की आदर्श माँ या कोई अबला बहू थी। मीना जानती थी कि आंटी तो ऐसी बिल्‍कुल नहीं थीं। वह तो डेक पर घंटों बैठना पंसद करती थीं, घर से निकलने पर बहुत उत्‍साहित होती थीं।

मीना ने पूछा,“अब तो आंटी खुश होंगी क्‍योंकि उनको आए हुए तीन महीने होने वाले हैं, वीज़ा खत्‍म हो रहा है अब देश वापिस जायेंगी।”

इस पर प्रिया ने जो  बताया वह बिल्‍कुल मीना के ‘ज्ञान’ से विपरीत था उसने कहा, “अरे! माँ तो जाना ही नहीं चाहती, उन्‍हें हमारी बेटी रिया से इतना प्‍यार जो हो गया है। कह रही हैं मेरा वीज़ा बढ़वा दो। रिया तो हमारे पास आती भी नहीं है। मेरी माँ तो दुनिया की सबसे अच्‍छी माँ है, मुझे न घर का कोई काम करने देती हैं, न ही बच्‍ची का और फिर इतनी फिट भी हैं। जल्‍दी उम्र में शादी होने का फायदा होता है। मैं तो रिया के बच्‍चों को ऐसे नहीं पाल सकती।”

मीना को समझ नहीं आया कि आंटी उससे झूठ क्‍यों बोलती रहीं या फिर प्रिया झूठ क्‍यों बोलेगी। या फिर क्‍या माँ-बेटी का रिश्‍ता ऐसा है कि एक दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानती या सच नहीं बतातीं।

उसके मन में इतने सवाल उठ रहे थे पर उसने कुछ पूछा नहीं, वह समझ गई थी कि उसे सच नहीं पता चलेगा।

फिर, वही सोमवार से शुक्रवार का ऑफिस रूटीन शुरू हो  गया। अर्थ कमाने के आगे और किसी चीज़ का कोई अर्थ नहीं रहता। किसी आंटी के बारे में सोचने का तो बिल्‍कुल नहीं।

बुधवार की सुबह उसे ऑफिस देर से जाना था, वह आराम से उठी, उसने बेडरूम का पर्दा हटाया, उसे आंटी डेक के दरवाज़े के पास कुर्सी पर बैठी दिखाई दी। उनकी आँखें दरवाज़े को ऐसे देख रही थीं जैसे दरवाज़े से पूछ रही हों कि वह भी उनकी तरह यहाँ पर क्‍यों खड़ा है। या फिर शायद अपनी आँखों से उस दरवाज़े को तोड़ देना चाहती थी। या, शायद दरवाज़ा उन्‍हें उनके बंदी होने का अहसास दिला रहा हो।

प्रिया ने बताया था, सत्रह साल की उम्र में आंटी की शादी हो गई थी। अठारह में प्रिया पैदा हो गई थी। तबसे वह बस माँ ही हैं। प्रिया ने उन्‍हें कभी और किसी तरह देखा ही नहीं। मीना को पता था कि वह कितनी अच्‍छी दोस्‍त भी हो सकती हैं। मीना का मन हुआ कि आंटी से बात कर ले पर घड़ी पर नज़र गई, घर के पास एक क्‍लाइंट से मीटिंग थी, समय बर्बाद नहीं कर सकती थी; इसलिए आंटी से बिन बात किए, वह काम पर चली गई। आंटी की निराश-उदास आँखें उसे सारे दिन याद आती रहीं। उसने रात को अपनी भारत वाली एक सहेली को फोन किया, जिसका भाई भी अमरीका में रहता था। मीना ने उस आंटी के बारे में बताया तो सहेली ने बड़ी बेफिक्री से कहा, ‘‘तुझे नहीं पता! यही तो करते हो तुम एनआरआई लोग। मेरे भाई ने भी बुलाया था मेरी मम्‍मी को आई.ए.एस. बनाकर; मम्‍मी तो दो महीने में भाई-भाभी से लड़-झगड़ कर किसी तरह वापिस आ गई थीं। भाई अभी तक नाराज है मम्‍मी से।”

मीना ने हैरत से पूछा, “ऐसे क्‍यों?” उसने जवाब दिया, ‘‘अरे, मेरी मम्‍मी तेरी उन आंटी की तरह नहीं है ना, भाई के पास जाते ही उन्‍होंने आसपास के भारतीय अंक-आंटियों से दोस्‍ती कर ली थी, अपनी ऑनलाइन रिसर्च करके गई थी; उन्हें  पता था कि उनकी जैसी माँओं को उनके वहाँ रहने वाले बच्‍चे ‘आई.ए.एस.’ ही बनाते हैं।

मीना ने फिर पूछा, ‘‘पर, यार आई.ए.एस. क्‍या होता है?”

सहेली ने कहा, ‘‘इंडियन आया सर्विस!”

जैसे मीना अक्‍सर अमरीका की पीछे वाली गली और भारत की पीछे वाली गली की तुलना करके हैरान होती थी वैसे ही आज भारत में आई.ए.एस. की भव्‍यता और अमरीका में आए माता-पिता की इस उपाधि की लाचारगी उसे हैरान कर गई। उसे भारतीय आई.ए.एस. का रौब और दरवाज़े से बाहर ताकती आंटी की आँखों के सूनेपन में कोई तालमेल नज़र नहीं आया। नज़र आया तो केवल अपनी पीढ़ी का रौब और अपने माता-पिता की पीढ़ी का अपने स्‍वार्थी बच्‍चों के लिए सेव- भाव! अपनी सहेली के एनआरआई वाले शब्‍द बार-बार उसके कान में गूंजने लगे।

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