– रम्भा रानी (रूबी), फीजी

बस एक पहर ही बाकी है

तीन पहर तो बीत गए,
बस एक पहर ही बाकी है।
जीवन हाथों से निकल गया,
बस खाली मुट्ठी बाकी है।

सब कुछ पाया इस जीवन में,
फिर भी इच्छाएँ बाकी है।
दुनिया में हमने क्या पाया,
यह लेखा-जोखा बहुत हुआ,
इस जग ने हमसे क्या पाया,
बस ये गणनाएँ बाकी है।

इस भाग दौड़ की दुनिया में,
हमको इक पल का होश नहीं,
वैसे तो जीवन सुगमता है,
पर फिर भी क्यों संतोष नहीं।
मन के अंतर में कहीं छिपे,
इस प्रश्न का उत्तर बाकी है।

मेरी खुशियाँ मेरे सपने,
मेरे बच्चे मेरे अपने,
यह करते करते शाम हुई।
इससे पहले तम(अंधकार) छा जाए,
इससे पहले की शाम ढ़ले,
कुछ दूर परायी बस्ती में,
इक दीप जलाना बाकी है।

तीन पहर तो बीत गए,
बस एक पहर ही बाकी है,
जीवन हाथों से फिसल गया,
बस खाली मुट्ठी बाकी है।

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