
– मंजु गुप्ता
**** ****
अंतरात्मा
रूह को मारने की कोशिश तो बहुत की
मार नहीं पाए, यही मुश्किल हो गयी है
जानते हैं जनाब, बड़ी बेशर्म है
हद दर्जे की दसनंबरी
मैंने इसे मारने की हर संभव कोशिश की
पर बड़ी चालाक है
जाने कहाँ छिपकर बैठी रहती है
ढूंढने पर कहीं नजर नहीं आती
किंतु गलत काम करते ही अस्पष्ट -सी धुक- धुक बन
अपने होने का अहसास करा
खेल का सारा मज़ा बिगाड़ जाती है
चोर की दाढ़ी में तिनके की तरह
खुद मुझे मेरे ही सामने, शर्मिंदा कर जाती है
जब किसी को कानोंकान, मेरी हेराफेरी की
खबर नहीं होती
तब यह अनजाने ही, मेरे कान उमेठ जाती है
मेरे ही सामने मुझे नंगा कर जाती है।