मंजु गुप्ता

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फॉल सीजन / पतझड़

कभी कभी मुझे लगता है
कि मैं जिंदगी के विराट् बरगद की एक तनहा जड़ हूँ-
गहरी, मजबूत, पुष्ट,
हरियाई थी बहुत
बरसों लहराई लगातार
फली-फूली, दिए फूल फल-
जितना भी संभव था
अपनी अलग पहचान बनायी
मुझे मिला निरंतर नेह-सिंचन
ममता की उर्वरा जमीन,
परम पिता का शुभाशीष रखा रहा सिर पर,
नीलांचल बन
सदा आसपास से बटोरती रही सुगंध, रंग, रूप सौदर्य
परिवार, नाते-रिश्तों ने दिया पौष्टिक खाद-पानी
काँधे पर उठाए जिम्मेदारियों का ग‌‌ट्ठर,
मैं चलती रही, चलती रही……
खिलती, खिलाती, खिलखिलाती
माहौल को गुद्‌गुदाती
जीवन की षड्‌ ऋतु‌ओं का आस्वाद चखा जम कर
भरपूर आनन्द लिया सबका, जी भर
अब उम्र का पतझड़ है- फॉल सीजन
हरियाली फूल, फल सब विदा हुए
पर झरते पत्तों के लाल, पीले नारंगी रंगों वाला, यह फॉल सीजन
वसंत के फूलों से जरा भी कम नहीं,
शायद इसे ही कहते हैं सौभाग्य
पर शेष है जीवन
और जब तक रहेगा जीवन
मुझे जीना है
आत्म में डूबकर
बाहर देने को अब मेरे पास शायद कुछ नहीं
पढ़ना- पढ़ाना, सीखना- सिखाना कम हो गया
बस खुद को ही टटोलने में लगी रहती हूँ
अब मैं वास्तव में, जिंदगी की आँखों में आँखे डाल
पढ़ रही हूँ- हकीकत का पहाड़ा
सीख रही हूँ- जिंदगी की ए. बी. सी. डी. अर्थात् वर्णमाला
सारी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले परम पिता से
बस एक अंतिम अरदास शेष है
कि चलते- फिरते, जीर्ण शरीर के साथ, निःशेष हो जाऊं
बेहद अपनों के लिए, कष्ट का कारण न बनूँ
मिट्टी थी, मिट्टी हूँ, मिट्टी में समा जाऊँ, आकाश हो जाऊँ
पवन हिंडोले में बैठ
भूमा तक पहुँच जाऊँ
आकाश हो जाऊँ…


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