डॉ० अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

जहर बाँट कर क्या तू पाया

(नवगीत – मात्राभार १६,१२)

जहर बाँट कर क्या तू पाया,
चिंतन कर तू मन में।

छेड़-छाड़ करता कुदरत से,
द्रुम को जड़ से काटा।
तटिनी तट से दूर हो चली,
अपशिष्टों से पाटा॥
वसुधा के शृंगार मिट गये,
फैला गरल गगन में।
जहर बाँट कर क्या तू पाया,
चिंतन कर तू मन में॥

नादानी में भूल गया तू,
संरक्षण जीवन का।
नित प्रहार करता कुठार से,
चीरहरण उपवन का॥
सन्नाटा है नित पसरा अब,
जीवन के आँगन में।
जहर बाँट कर क्या तू पाया,
चिंतन कर तू मन में॥

भौतिकतावादी विकास हित,
नित कुदरत से खेले।
जीवन के अवयव को छेड़े,
अर्जित करे झमेले॥
स्फुटन की नित बाट जोहतीं,
नव कलियाँ मधुवन में।
जहर बाँट कर क्या तू पाया,
चिंतन कर तू मन में॥

जीव जगत का हित नित सोचो,
धरणी-धर्म बचाओ।
संदूषण को दूर भगाओ,
वसुधा स्वर्ग बनाओ॥
संचेतन हो अब धरती पर,
सुन्दर संवर्धन में।
जहर बाँट कर क्या तू पाया,
चिंतन कर तू मन में॥

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