
– मंजु गुप्ता
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चाँदनी ने छुआ मुझको
चाँदनी ने झुआ मुझको, मैं चाँदनी हो गयी
धूप ने जब छुआ तो मै रागिनी हो गई
वायु ने स्पर्श कर जगाई नव चेतना
रग- रग में बह रहा प्राण- निर्झर
ज्योति बन अविराम
झंकृत हुए मन-प्राण
पेड़ की छाया में बैठी, बुद्ध हो गई
फिर मृगी- सी चौकड़ी भर अंतर्धान हो गई
चाँदनी ने छुआ मुझको, मैं चाँदनी हो गई
तारों सी टिम टिम दमकती रात हो गई
चाँद का तकिया लगा, गगन ओढ़ सो गयी
चाँदनी ने छुआ……
भूल, देह, अस्तित्व अपना, न जाने कहाँ खो गयी
स्रष्टा से मिल, मैं तो खुद ब्रह्मानंद हो गयी
भूमा की सृष्टि कण बन, मुक्त हो गयी
परम आनंद हो गयी…
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