अमरेन्द्र कुमार, अमेरिका

ग़ज़ल -1

सब दिन ही मालिक के
सब  दिन  ही हैं अच्छे।

तम   के  झोंके  सहते
तन  के ये  घर  कच्चे।

हम  भी  अब हो जाए
बच्चे  मन   के  सच्चे।

बाहर   बादल   बरसे
अंतर फिर  भी तरसे।

पर्वत    चढ़ते   वे  ही
हिम्मत के जो पक्के।

जाते सब ही जब मिल
फिर भी मन क्यों तरसे?

सीखा  है  ठोकर  खा
फिर भी मन के कच्चे।

***

ग़ज़ल -2


उजाड़   दुनिया  में  हरे  भरे  रहना
बयार  चले भी तेज तो  खड़े रहना।

झुकाए भले वो तुम्हें झुक नहीं जाना
हठी दुनिया में अपने में अड़े रहना।

बिना हवा-नमी-धूप  के  भी बढ़ते हैं
शिला पे  यो नरम दूब से उगे रहना।

बिखर गए अगर चोट एक खाकर जो
नगीने सा  ही तुम हार में जड़े  रहना।

अगर न जो  मिले  धूप  औ हवा-पानी
कली के लिए तुम फूल से खिले रहना।

***

ग़ज़ल -3

ज़िंदग़ी   ऐसा  ही  सफ़र  है
था इधर जो अब वो उधर है।

राह  में   ठोकर  जो  मिली है
तेरी नज़रों का ही  कसर  है।

साथ हो अपनों  का अगर  जो
शाम क्या औ क्या ही सहर है।

कहना  तो  पूरे  ही  यक़ीं  से
होता तब ही उसका असर है।

रात  रोशन  है  जुगनुओं  से
देखने   वाले  की  नज़र  है।

***

ग़ज़ल -4

धूप  है  तो  बरसात  भी  होगी
है अगर दिन तो रात भी होगी।

वक्त पे पहरा लग नहीं सकता
जो  सुबह है तो शाम भी होगी।

जो चुभे पग  में  शूल जीवन में
तो  कली की सौगात भी होगी।

जीत  जाओ  जितना  भले  तुम
खेल है तो  शह-मात भी होगी।

साथ जितनों का भी मिले दोस्तों
एक    तन्हाई   साथ  भी  होगी।

रह न पाएगा मौन आख़िर तक
साथ  बैठे  तो  बात  भी  होगी।

***

ग़ज़ल -5

आदमी है किधर जायेगा
आज ना कल सुधर जाएगा।

चाँद है आसमाँ पर लेकिन
लहरों पर वो बिखर जायेगा।

हो कठिन या कि आसाँ दोस्तों
वक़्त है तो गुज़र जायेगा।

नाम -दौलत -हुकूमत -ताक़त
हर नशा चढ़ उतर जायेगा।

घूम के आ जहाँ ये सारा
यूँ कहाँ ये शहर जायेगा।

उड़ परिंदे समय के रहते
तेरा पर भी क़तर जायेगा।

पलने दे सपनों को वरना यूँ
जीते जी तू भी मर जायेगा।

***


ग़ज़ल -6

जैसा   भी   है   ये   जीवन  है
सुख-दुख का सुंदर उपवन है।

उठता  भी  है  गिरता  भी  है
सत-रज-तम का सम्मेलन है।

सोचो  तो  काबा – काशी  है
ये  ही  काँची  –   वृंदावन है।

सबकी   पूजा  की  थाली  में
सजता  बन   रोली चंदन है।

किरदारों  के अफ़सानों  का
होता  ये  असली  मंचन  है।

कूदो- फाँदो  जितने  भी तुम
ना   बस  में   तेरे  नर्तन  है।

चढ़ता ना सच  झूठों  पर यों
ना   जाने  कैसा  मिश्रण  है।

अंदर    बाहर    है    अंधेरा
देखे  तू  क्या  ही  दर्पण  है।

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-अमरेन्द्र कुमार

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