
विपक्ष की कलम से
– अमरेन्द्र कुमार, अमेरिका
आज तक आपने सरकार की बातें ही सुनी हैं। आज मैं विपक्ष आपसे इस लेख के माध्यम से कुछ साझा करना चाहता हूँ।
मैंने राजनीतिक दलों को सरकार और नेताओं को पोर्टफोलियो/विभाग के लिये जान देते हुए देखा है। ऐसा इसलिए कि वे सेवा का अवसर प्रदान करते हैं। सेवा के लिये इतनी आतुरता मैंने राजनीति के सिवा और कहीं नहीं देखी। मैंने किसी चपरासी अथवा किरानी में फाईल बढाते होते हुए इतनी बेचैनी नहीं देखी। चौकीदार रात को सो जाता है। चपरासी निर्द्वंद है, किरानी समाधिस्थ और अफसर बिना काम के ही व्यस्त हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों के आला अफसर गोल्फ खेलने और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में व्यस्त हैं। काम करने की इतनी जल्दी कहीं नहीं है। राजनीति में ही सेवा करने के लिये एड़ी-चोटी की कोशिश दिखाई देती है। यह इसलिए कि वे देश के कर्णधार हैं और राष्ट्र के रोल मॉडल (आदर्श) बनकर ही राष्ट्रोद्धार की कल्पना कर सकते है। संक्षेप में सरकार की सक्रियता, सेवा-भावना, कर्मठता और कर्तव्यनिष्ठा के कीर्तिमानों से विश्व इतिहास भरा पड़ा है। मेरी लेखनी तो मात्र उनको रेखांकित ही कर सकती है। आप समझदार हैं और मेरे विचारों से आप सहमत भी हो गए होंगे। लेकिन मैं अब दूसरा पक्ष प्रस्तुत करूँगा और देखूंगा कि अंततः आप सरकार के साथ हैं अथवा विपक्ष के साथ।
मेरा मानना है कि विपक्ष सरकार से अधिक बुद्धिमान, कर्मठ और सेवा भावना से लबालब है। आप यह सुनकर मुस्करा रहे हैं। कोई बात नहीं, ऐसा होता है। नई बात कभी आसानी से पचती नहीं। गैलीलियो को कब स्वीकारा गया और न्यूटन को पागल करार दिया गया। ज्ञानियों और धर्मात्माओं को विरोध हमेशा झेलना पड़ता है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि विपक्ष सरकार से अधिक गुणवान है। सबसे अधिक वोट विपक्ष को मिले यानी जनादेश (मैंडेट) हमारे पास है लेकिन दूसरे लोग सरकार बना बैठे। ऐसा होता है। अल्पमत और अल्पबुद्धि वाले एक हो जाते हैं। बुद्धिजीवी कभी एक नहीं होते। वैसे छोटी-छोटी पार्टियां अपने सिद्धांतों को त्यागकर साझे की सरकार बना लेती हैं। लेकिन हमने समझौता नहीं किया और विपक्ष में बैठना स्वीकार कर लिया। अगर जो हमें जनादेश नहीं भी मिलता तो भी हम विपक्ष में ही रहना पसंद करते। विरोध करना और क्रान्ति लाना हमारा ध्येय है। सरकार वे बनाए जो समझौतावादी हैं, समर्थनवादी हैं। हम विपक्ष सिर्फ विरोध में विश्वास करते हैं। जनता ने हमें विरोध करने के लिये भेजा है। जनता को मालूम है कि सरकार बनाने के बाद सरकारी लोग सरकार बनने से पहले की हर बात भूल जाते हैं। वे हरदम नया अध्याय शुरू करते हैं। वैसे भी जो वादा कर वे सरकार में आये वे वादें पुराने हो गए। जो पुराने हो गए उनको लेकर क्या आगे जाना। परिवर्तन संसार का नियम है। इससे सरकार पुराने कानून को ताक पर रखकर नए कानून बनाती है चाहे वह जनता के हित में हो या न हो। लेकिन हम विपक्ष वाले इसका विरोध करते हैं। कभी किसी भी बिल को पास नहीं होने देते। हमारे रहते कभी कोइ बिल कानून नहीं बन सकता। एक सदन में अगर बिल पास भी हो जाये तो हम दूसरे सदन में उसे लंगड़ी मार कर गिरा देते हैं। कभी-कभी पहले सदन में गिर गए बिल को कंधा दे (सुधार) कर जब दूसरे सदन में लाया जाता है तो हम उसे मृत घोषित कर देते है। कभी-कभी बिल के बनने से पहले ही हम उसे गिरा चुके होते हैं। बिल को गिरा देना हमारे बाये हाथ का काम है। हम बड़े-बड़े को गिरा देते हैं तो बिल क्या चीज है। गिराने की बात चली है तो आपको बताएं की हम सरकार भी गिरा देते हैं। बहुमत जो हमारे पास है। जनता ने कितनी अपेक्षाओं के साथ हमें भेजा है !
कई बार हम सरकार बनाने देते हैं जान -बूझकर। हम उजागर करना चाहते हैं कि सेवा के नाम पर दूसरी पार्टियों वाले सत्ता के लोभी हैं। उन्हें पद चाहिए और वैसे विभाग चाहिए जहां उपरी आमदनी जैसे भ्रष्टाचार की गुंजाईश अधिक हो। सरकार में रहकर हमने भी देखा है। आज ऐसे ही विपक्ष नहीं बने बैठे हैं। यही नहीं विपक्ष में रहना गौरव की बात बन गयी है हमारे लिए। अब तो हमारी नक़ल करके सरकार भी विपक्ष बनने की कोशिश करती है। लेकिन विपक्ष होना कोइ बच्चों का खेल नहीं। हमें मजा आता है जब पार्टियाँ सरकार बनाने के लिए आवश्यक समर्थन जुटाने के लिए अन्य पार्टियों के मुख्यालयों के चक्कर लगाती हैं। नन्हे-मुंहों की तरह ये निरीह पार्टियां मिलकर जब सरकार बनाती हैं तो मैं अट्टहास करता हूँ। बड़े लोग अट्टहास करते हैं। मुझे मालूम है की मैं जब चाहूं इन्हें लंगड़ी मार के गिरा दूं, चींटी की तरह मसल दूं लेकिन मैं ऐसा नहीं करता। मैं आनंद उठाना चाहता हूँ कि किस तरह एक सीट लेकर आनेवाली पार्टी सबसे बड़े मंत्रालय की मांग करेगी। गुस्सा-गुस्सी, झाड़ -फटकार और फिर लाड़-दुलार। अंत में बड़ी पार्टी मान जायेगी (विकल्प के अभाव में) और वह पार्टी वित्त, रेल अथवा गृह मंत्रालय ले जायेगी। फिर छोटी से तनिक बड़ी पार्टियां बड़े मंत्रालयों की मांग करेगी। सबको मानना पड़ेगा। चारा नहीं है। देश को चलाना है। विपक्ष का डर बना हुआ है। यही सब महीनों चलता रहता है। राष्ट्रपति इंतज़ार में है सरकार अब बनी कि तब बनी। एक लचीली, पतली-दुबली, दुर्बल सरकार बन कर खड़ी हो गयी। अपने पैरों पर मुश्किल से खड़ी हो पा रही है। मीडिया के सामने हाथ से सहारा देकर सोफे पर बिठा दी जाती है। मुंह से साफ बोल नहीं निकलते। रह-रह कर कलेजा मुंह को आ जाता है। आँखों के आगे अन्धेरा छाया रहता है। विशेषज्ञों की रिपोर्ट ये कहती है। मैं देख रहा हूँ। मेरी रणनीति बिलकुल साफ है। रह-रह कर यह सरकार घोटालों, धमकियों और विवादों से हिल उठती है। कमज़ोर तो वह पहले से ही है। लगता है कि अब गिरी के तब गिरी। कभी-कभी पुराने संबंधों को याद कर मैं उन सहयोगी पार्टियों से मिल आता हूँ। बस कल होकर सरकार के गिरने की खबर आग की तरह फ़ैल जाती है। सच मानिये तो मैं इनके पीछे कतई नहीं हूं।
विपक्ष का दायित्व सरकार से कहीं अधिक है। सरकार को कुपथ पर चलने से मैं रोकता हूँ। खासकर जब सरकार दुर्बल हो तो कुपथागामिनी होना और भी सहज है। मैं दुर्बल सरकार को सहारा नहीं देता। सहारा देने से बच्चे और बिगड़ जाते हैं। मैं रह-रहकर हुड़क देता हूँ। सरकार कातर हो उठती है। मुझे मजा आता है। जनता ने मुझे सरकार पर नज़र रखने के लिये ही भेजा है। मैं जासूस नहीं हूँ। मैं तो पहरेदार हूँ और सरकार को हरदम ‘खबरदार’ करता रहता हूँ। काम तो कोई भी कर लेता है। काम का सही होना ज्यादा जरूरी है। मैं सरकार के हर काम की आलोचना करता हूँ। आलोचना से काम की कमी उजागर होती है। सरकार को आत्ममुग्धता से बचा लेता हूँ। यही आत्ममुग्धता उसे बड़े-बड़े कामों की छोटी-छोटी कमियों के प्रति अंधा बना देती है। मैं अंधे की लाठी बन सरकार को पटरी पर लाता रहता हूँ।
सरकार क्रियाशील है तो मैं विरोध करता हूँ, अगर काम नहीं करती तो कहता हूँ कि सरकार निकम्मी है। मैं सरकार के अच्छे-अच्छे उद्देश्यों (हंसी कर रहा हूँ..) के पीछे असली मंसूबों को पहचान लेता हूँ। मेरी पहचान ही पहचान है बाकी को इसका ज्ञान भी नहीं।
मैं ही समय-समय पर अविश्वास प्रस्ताव लाता रहता हूँ। इससे पता चलता है कि तथाकथित सहयोगी पार्टियां मिलकर भी साथ हैं कि नहीं। ऐसा तो नहीं हुआ कि एक सरकार के अंदर कई सरकारें हैं। खूब बहस होती है। मुझे बहस में बहुत मजा आता है। मैंने जो अब तक ज्ञान अर्जित किया वह सब उड़ेल देता हूँ। संविधान की धाराओं को शब्द-दर-शब्द खंगाल आता हूँ। सहयोगी पार्टियों को पट्टी पढाता हूँ। कुछ तो खुद दौड़े चले आते हैं – ‘दिल ने पुकारा और वो चले आये’ गुनगुनाते हुये । लेकिन मैं उनकी अग्निपरीक्षा कर ही अपनी पार्टी में शामिल करता हूँ। वर्तमान सरकार एक बार फिर सहयोगी पार्टियों की मुंहताज हो जाती है। पिछली बार जो पार्टियां मनमुताबिक मंत्रालय लेने में पीछे रह गयी थीं इस बार झटक लेना चाहती हैं। और जो ऐसा न हुआ तो सबके प्रताप से सरकार गिर जाती है और चुनाव का बोझ जनता के सर आ जाता है। जनता के सर पर ऐसा संकट हमेशा छाया तो रहता ही है। जनता का सर सबका बोझ उठाने के लिये ही तो है।
सरकार की हर नीति का मैं विरोध करता हूँ। मैं ऐसा कर सकता हूँ। सरकार के घोषणापत्र मुझे अपने घोषणापत्र से अधिक याद है। एक-एक पंक्ति एक-एक शब्द जनता के बीच वाच आता हूँ। मैं जनता को बताता हूँ कि तुम्हारी सरकार घोषणापत्र के वायदों से पीछे हट रही है। इसने कुछ भी नहीं किया है अपनी लिस्ट से आजतक। सहयोगी पार्टियों के टकराते घोषणापत्रों का जनता के बीच जाकर भांडा फोड़ कर देता हूँ। सरकार भी चाल चलती है। कभी-कभी मेरे विरोध के काट में मेरे ही घोषणापत्र पर अमल करना शुरू कर देती है। उसको लगता है कि इससे विपक्ष का विरोध कम हो जायेगा। लेकिन मैंने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। मैं फिर भी सरकार का विरोध जारी रखता हूँ। विरोध करना ही मेरा काम है। घोषणापत्र चाहे जिसका हो उसे दोष रहित करना विपक्ष का काम है। मैं उनके घोषणापत्र लेकर जनता में जाकर प्रचार करने लगता हूँ। मैं कहता हूँ कि देखो तुम्हारी सरकार भटक रही है। सरकार परेशान हो जाती है कि विपक्ष का मुँह कैसे बंद हो। विपक्ष का मुँह कभी बंद होता है भला। यह सरकार को मालूम नहीं। जनता जानती यह सब इसलिये तो सरकार के पीछे विपक्ष को लगा देती है।
अगर जो आप यह सोचते हैं कि भारत में ही विपक्ष इतना सजग है तो यह आपका भ्रम है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में मैं यानी कि आपका प्यारा विपक्ष दायित्त्व की सीमा के पार चला गया हूँ। विरोध का ऐसा दुर्लभ दृश्य इतिहास में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। विरोध का भाव देश के ऊपर है यहाँ। बजट एक सदन(हाउस) से दूसरे सदन का मुँह नहीं देख पाता। बजट अथवा बिल के आने से पहले ही गिरा देने की बात समाचार में आ जाती है। हमलोग खुले आम विरोध करते हैं। हमें किसी का डर नहीं है। हम प्रजातंत्र के निवासी हैं और इस नाते राजनीति के नाम पर सही-गलत कुछ भी करने का अधिकार हमें प्राप्त है। विरोध करने के मामले में हम अपनी जनता जिन्होंने हमें अपना प्रतिनिधि बनाकर हमें भेजा है उसकी भी नहीं सुनते हैं। जनता को सिर्फ निर्वाचित करने का अधिकार मिला है। बजट और राष्ट्रीय नीतियों के बारे में उसे कुछ भी नहीं पता। हम उनके अनुभवी अभिभावक की तरह हैं। उनको समय-समय पर सही राह दिखाना जरूरी होता है। सरकार डराती है देश को बजट पास न होने से खतरा है। लेकिन हम बहादुर डरते नहीं हैं। देश को खतरों से खेलना सिखलाते हैं। अभी हाल ही की बात है कि देश की ऋण-सीमा बढ़ाने की बहस छिड़ी थी। एक साल से चर्चा चल रही थी। लेकिन हम उसे अंतिम तिथि तक खींच के ले आये। बहस को समय सीमा से पहले समाप्त कर देना कहाँ की समझदारी है। बहस जितनी लंबी चलेगी उतनी ही स्वस्थ और बलवान होगी। हम बहस को खत्म कर देने में विश्वास नहीं रखते। सरकार खर्चे में कटौती के लिये तैयार नहीं तो हम कर वसूली की बढोतरी के लिये तैयार नहीं। सरकार और हम विपक्ष दोनों पहलवानी में जुटे रहें। सरकार अड़ी रही कि हमें धनीवर्ग को अधिक टैक्स लगाना होगा। यह भी कोई बात है भला। अगर जो कोई धनी है तो क्या उसने कोई अपराध किया है। धनी होने के सबके पास समान अवसर थे लेकिन कोई-कोई धनी हुआ और बहुत सारे गरीब हो गये। अगर भारत में यह बात होती तो लोग कहते कि किसी पिछले जन्म के अच्छे कर्मों का फल है। हालांकि हम अमेरिका में पुनर्जन्म को नहीं मानते फिर भी कुछ तो अच्छा किया है (इस जन्म में ही) कि धनी धनी हो पाये हैं। अब सरकार इन अमीरों पर टैक्स लादकर उनको भी गरीब बना देना चाहती है। हमारी शर्त थी कि सरकार अपने खर्चे में कटौती करे। अब शिक्षा पर इतना खर्च करने की आवश्यकता क्या है। जिनको पढना है वे पढ ही लेंगे। वैसे भी जितनी मेहनत से और मुश्किलों में पढेंगे उतना ही आगे उन्नति करेंगे। कोयला दबकर ही हीरा बनता है, सोना तपकर कुन्दन हो जाता है। सरकार कहती है कि अमेरिकी बच्चे विज्ञान और गणित में एशियन और उनमें भी भारतीयों से पिछड़ रहे हैं। हम बेचने में अव्वल रहे हैं, कुछ भी बेच सकते हैं। ऐसे में अगर वे प्रयोग करें और जोड़-घटाव करते रहें तो इसमें बुराई ही क्या है। वैसे भी भारत में अब कितने आर्यभट्ट पैदा हो रहे हैं। सरकार जर्जर पुल और सड़कों का पुनरोद्धार कराना चाहती है, और नये भी बनाना चाहती है। अब ऐसी चीजों पर खर्च करना क्या है जिन्हें बार-बार ठीक कराने की आवश्यकता पड़े। इनको तो उपर वाले के भरोसे ही छोड़ देना चाहिये। ऐसे ही कितने खर्चे हैं कि सरकार खुले हाथ करना चाहती है। हम विपक्ष को यह पसन्द नहीं। हमारे अड़े रहने के कारण सरकार समझौते के लिये तैयार हो गयी। वह खर्चे में कटौती करने के लिये तैयार थी लेकिन हमने अपनी तरफ़ से समझौते से इन्कार कर दिया। विपक्ष को समझौता करना शोभा नहीं देता। जनता, मीडिया वाले यहाँ तक कि दूसरे देश वाले भी गुहार लगाते रहे कि राजनीति छोड़ कर देश के बारे में सोचो। लेकिन मैंने जैसा कि पहले भी बताया कि बच्चे नासमझ होते हैं। उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं, तो उनकी बातों पर ध्यान देना विपक्ष के ज्ञानियों को शोभा नहीं देता। परिणाम यह हुआ कि हम नेता लोग रात-रात भर सदनों में मीटिंग करते रहे, मीडिया वाले लोगों को जगाते रहे। यहां तक कि अन्तिम दिन आ गया और पूरे विश्व ने हमारे बहादुर कारनामें देख-सुन कर दातों तले अंगुली दबा ली, उनका गला सूख गया , आंखें पथरा गयीं और हृदय फ़ीटों उछलते रहे। लेकिन जब जो होना होता है वह होता है। सरकार झुक गयी यहां तक कि लेट गयी और हम विपक्ष वाले तन कर खड़े रहे सो रहे। अन्तिम घड़ी में हमने बिल पास कर दिया। ऐसा सस्पेन्स(रहस्य) और रोमान्च हालीवुड की फ़िल्मों में भी अभी तक आया नहीं। हमनें इतिहास रच दिया। आधी रात को आखिर में बिल पास हो गया। बिल विपक्ष ने पास कराया। सरकार का इसमें कोई भी योगदान नहीं। सरकार आपको इसे अपनी सफलता गिनायेगी लेकिन आप अपनी समझ से काम लें। अगर आपके पास अपनी कोई समझ नहीं तो हमसे थोड़ी समझ उधार ले लें। अगले दिन क्रेडिट एजेन्सी ने अमरेका के ऋण शाख को एक स्तर नीचे गिरा दिया। इसके के लिये सरकार ही दोषी है। हमने तो अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया। जो विलम्ब हुआ वह सब सरकार की ओर से। दूसरी बात तो ऋण शाख वाली एजेन्सियों की बुद्धि भ्रम में ही रहती है। अच्छे को बुरा, बुरे को अच्छा कहना उनका काम है। ये वही है जिसने पिछली आर्थिक मन्दी से पहले उल्टी-सीधी कम्पनियों के शाख को अच्छा-अच्छा बताया था। परिणाम तो आपके सामने है ही। खैर, हर विफलता सरकार की होती है। यह तो एक झलक है कि हम विपक्ष वाले अमेरिका में कितने विकसित, सजग और दायित्त्वपूर्ण हैं।
’हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ के आधार पर हम विपक्ष अपनी महानता अपने ही मुंह से कितनी बखानें। इतनी समझ तो आप (जनता) भी रखते हैं, अगर जो बहुत नहीं तो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि दुनिया के सारे देशों के विपक्ष मिलकर सभी सरकारों को गिरा दें। सरकार की भला आवश्यकता ही क्या है? पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान अगर रह-रहकर सरकारमुक्त हो जाते हैं तो क्या वे देश नहीं? वहां के लोग क्या लोग नहीं ? ज़रा सोचिये…..
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