फूफा जी छोटा कद के, श्यामल छवि के, हल्के डील-डौल के, अधेड़ उम्र के व्यक्ति के रूप में बचपन की यादों में अंकित हैं। सिर और मूंछों के डाई किए हूए बाल, झक सफेद कलफदार कपड़े, पालिश से चमकते जूते और गले में सफेद अंगोछा उनकी पहचान थी। ससुराल की यात्रा से पहले फूफा जी अपने व्यक्तित्व को निखारने का भरपूर प्रयास करते। इसमें उन्हें आंशिक सफलता ही मिल पाती पर उन्हें अपनी उम्र से कम दिखने का और ‘लौंडा’ कहलाने का बड़ा शौक था। ख़ास तौर से अपनी सगी और मुंहबोली सालियों के समक्ष फूफा जी अपनी चिरयुवा की छवि बनाए रखना चाहते थे। एक बार हाट में घटी उस घटना का वर्णन करते हुए वे कभी न थकते जब किसी महिला ने उन्हें ‘ऐ लौंडे’ कह कर रास्ते से हट जाने को कहा था। इस घटना का विवरण वो ऐसे विस्तार से देते जैसे कोई बड़ी ऐतिहासिक घटना हो जिसे इतिहासकारों ने षड्यंत्र करके पुस्तकों में स्थान नहीं दिया। उस घटना को याद करके उनकी आँखों मे चमक और चेहरे पर एक अजीब सी संतुष्टि भरी मुस्कान आ जाती। ये अलग बात थी कि उनके चेहरे की झुर्रियां इस घटना की गवाही उतनी मजबूती से नहीं दे पातीं। ससुराल में विस्तार से इस कालजयी घटना के वृतांत को बार-बार उनके श्रीमुख से सुनने वाली एक समर्पित श्रोता मंडली थी।

“जीजा जी, सच में पीछे से तो आप 30 से एक भी दिन ज़्यादा के नहीं लगते !“

“आपको जैसा बारात में देखा आप एकदम वैसे ही आज भी हैं!“

“बहुत मैन्टैन करके रखा है आपने खुद को!“

जैसी मनभावन टिप्पणियाँ सुन फूफा जी फ़ूले नहीं समाते और मन ही मन सोचते की कल्लू नाई को तीन रुपए फ़ालतू देकर फ़ेस मसाज़ कराना व्यर्थ नहीं गया। मन में याद करते की इस बार जब नन्हें परचून की दुकान का सामान लेने बॉर्डर पार नेपाल जाएगा तो उससे कहकर नई वाली ख़िज़ाब मंगवानी है। उसका रंग ज्यादा चढ़ता है।

कभी-कभार कोई अज्ञानी यदि इस घटना के प्रति अविश्वास जताने का अक्षम्य अपराध करता तो फूफा जी इसे अपने चिरयुवा होने पर लांछन की तरह देखते। आवेश में उनके नथुने फूल जाते और वो लगे हाथ उस तुच्छ प्राणी को पंजा लड़ाने की चुनौती भी दे डालते। पर सभी उनके ‘पहुना’ होने का सम्मान करते हुए उनकी चुनौती अस्वीकार कर देते। आंचलिक भाषा में ‘जमाई’ को ‘पहुना’ कहा जाता है। फूफा जी का ग़ुस्सा तवे पर छन्न से उछलती पानी की बूँदों सा था। उन्हें गुस्सा जितनी जल्दी आता उतनी ही जल्दी चला भी जाता। स्वभाव से सरल फूफा जी किसी भी विषाद को देर तक गांठ बांध कर रखने वालों में से नहीं थे।

फूफा जी जब कभी अपनी ससुराल यानी हमारे घर आते तो उनकी बड़ी आवभगत होती। मॉं एक पैर पर खड़े होकर उनके लिए कभी चाय-नमकीन, कभी तलमाखाना, कभी गाजर का हलुआ, कभी दही-बड़े तो कभी खीर बनाकर लाती थीं। ऐसा नहीं था कि फूफा जी इन चीजों की मांग करते थे, बल्कि यह सब हम बच्चों को बहुत पसंद था और हम फूफा जी के बहाने मॉं से खाने की अच्छी-अच्छी चीजें बनवाने की साज़िश करते थे। हमारी यह तरकीब बहुत कामयाब भी रही। इसमें फूफा जी की मौन सहमति भी थी पर कुछ सालों में जब फूफा जी को डायबिटीज हो गई तब उनके आने पर मीठी चीजें मिलना बंद हो गयीं। यहीं नहीं इसके बाद जीजाजी के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित घर की अति उत्साही महिलायें उन्हें देखते ही भिन्न-भिन्न प्रकार की कड़वी, बेस्वाद सब्जियां बनाती जो निगलते नहीं बनतीं। कई बार फूफा जी से हम बच्चों ने बोला कि आप वैद्य जी के यहां जाकर दवाई क्यों नहीं ले लेते? हमारे शहर के वैद्य जी बहुत पहुँचे हुए हैं। नब्ज देखकर झट से रोग बता देते हैं।

वैद्य जी के बारे में मशहूर था की उन्हें ये विद्या विरासत में मिली है।  उनके पिता जी ब्रिटिश काल के बड़े नामी वैद्य थे। कई राजे महराजे, यहां तक की अंग्रेज भी उनसे इलाज कराने आते। एक बार एक अंग्रेज साहिब ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्हें बुलाया और अपनी पत्नी का इलाज करने को बुला भेजा। वहाँ पहुँच कर वैद्य जी ने गोरी मैडम को देखना चाहा तो अंग्रेज साहिब ने अपनी पत्नी के पराए मर्द के सामने नहीं आने का बहाना किया। समाधान के रूप में वैद्य जी ने उन्हें पत्नी की कलाई में धागा बांध उसका दूसरा छोर उनके हाथ देने को कहा। अंग्रेज साहिब राज़ी हो गया और पत्नी के हाथ धागा बँधवा दिया। वैद्य जी ने थोड़ी देर धागे से नब्ज पढ़ी और मुस्कराए। फिर बोले –  “साहिब आपकी पत्नी का पेट ख़राब है उसे बांस के पत्ते खाने को दीजिए।“ दरअसल धुर्त अंग्रेज ने वैद्य जी की परीक्षा लेने को घर के भीतर बकरी छिपा कर रखी थी। हमें पूरा विश्वास था की फूफा जी की  डायबिटीज तो महान वैद्य जी ऐसे ही छू-मंतर कर देंगे और फिर पहले की तरह उनके स्वागत में घर में पुनः व्यंजन बनने लगेंगे। पर फूफा जी अपनी डाई की हुई काली-घनी मूछों के पीछे से हल्के से मुस्कुरा कर बात इस बाल हठ को टाल देते। हम बच्चों को डाइबिटीज अपने  ट्यूशन मास्टर साहब जैसा लगता था जो स्कूल के बाद भी होमवर्क दे कर खेल-कूद का सारा मजा किरकिरा कर देते। 

फूफा जी और बुआ जी की जोड़ी कुछ गिल्ली डंडे जैसी थी। बुआ जी लंबी, गोरी और दोहरे बदन की थीं। दोनों साथ में चलते तो कोई यह नहीं कह सकता कि यह पति-पत्नी है पर उन दिनों कोई “क्यूट कपल” का खिताब तो मिलता नहीं था। परिवार के बड़ों ने विवाह तय किया,  अग्नि के फेरे लिए, मांग में सिंदूर डाला और हो गए जिंदगी भर के लिए साथ-साथ। कुछ ऐसा ही रिश्ता फूफा जी और बुआ जी का भी था। भगवान की कृपा से चार बच्चों के भरा पूरा परिवार था। पर उनके विवाह की याद दिलाने पर फूफा जी की प्रतिक्रिया मिली-जुली होती थी। उनके अनुसार गाँव की सारी लड़कियां उनपर मन ही मन मिटती थी और उनके विवाह का समाचार सुन गाँव के कई घरों में कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला। महिलाओं में अपनी लोकप्रियता का यह किस्सा सुनाते हुए हुए फूफा जी इस बात का जरूर ध्यान रखते थे की बुआजी आस पास ना हो। इन दम्पति के सबसे बड़े पुत्र और छोटी पुत्री में लगभग 15 वर्ष का अंतराल था। अब सोचने पर लगता है कि “बधाई हो” फिल्म की प्रेरणा कहानीकार को ऐसे ही किसी सदाबहार प्रेमी जोड़े से मिली होगी। फूफा जी कभी दिखाते तो नहीं पर उन्हें बुआजी से प्रेम बहुत था। बुआजी की पथरी का ऑपरेशन कराने के बाद जब दोनों कुछ दिनों के लिए हमारे घर रुके तो फूफा जी हर दिन उनके लिए जूस, फल लाना नहीं भूलते। समय-समय पर पूछते की सुबह वाली दवाई ली की नहीं, शाम वाली सिरप पी की नहीं। इस पर बुआजी झेप सी जातीं और उनसे बिल्कुल चिंता न करने को कहतीं। वैसे फूफा जी दिल के बहुत नरम थे। एक दिन सुबह की सैर करते हुए उन्हें एक गौरया करंट लगने से सड़क के नीचे गिरी मिली तो उसे उठा कर घर ले आये। कई दिनों तक उसकी देख-रेख की, पानी पिलाया, दाना खिलाया जब तक वो वापस उड़ने के लायक नहीं हुई। उसे उड़ता देख फूफा जी फूले नहीं समाए। उस दिन सब बच्चों को आइसक्रीम खिलाने चौराहे तक ले कर भी गये।    

फूफा जी को फिल्मों का बड़ा शौक था। उन्हें उन दिनों का हिंदी फिल्म का हीरो जितेंद्र बहुत पसंद था। अमिताभ बच्चन बड़े सुपरस्टार बनकर छा गए थे किंतु फूफा जी अभी भी जितेंद्र के ही जबरा फैन थे। बाल झाड़ने, पहनावे और यहाँ तक की जूतों की स्टाइल में भी वे जितेंद्र की नकल करने की भरपूर कोशिश करते थे। वो बताते थे की कैसे एक बार हिम्मतवाला फिल्म देखने के बाद उन्होंने घर से भाग बंबई जाने का तय कर लिया था पर दुर्भाग्यवश रेल स्टेशन पर धरे गये और घर पर जमकर खातिरदारी हुई। दरअसल स्टेशन मास्टर गाँव का ही था और उसकी नजर अकेले खड़े किंकर्तव्यविमूढ़ फूफा जी पर पड़ गई। फिर उसने घर में शिकायत की और उसके भयानक परिणाम उनके शरीर पर लगे लठ्ठ के निशान के रूप में आये। फूफा जी से उनका बंबई में हीरो बनने का सपना इस जालिम दुनिया वालों ने छीन लिया। इसकी घनघोर अन्याय की याद करते हुए फूफा जी भाव विभोर हो जाते और कोई दु:ख भरा गाना गुनगुनाने लगते। जितेंद्र की शान में कोई गुस्ताखी उन्हें कतई बर्दास्त नहीं थी। कई बार बच्चन के प्रशंसकों के साथ उनकी खूब कहासुनी हो जाती। एक बार फूफा जी ने बच्चन जी के प्रशंसकों की यह कहकर  बोलती बंद कर दी की उस तंबू को तो नाचना ही नहीं आता और जिसे नाचना नहीं आता वो कैसा हीरो?  इस बात का दूसरे पक्ष के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि जीतेंद्र नाचने के लिए मशहूर थे।

फूफा जी बहस में हमेशा जीतने में विश्वास रखते और इस कलयुगी धर्मयुद्ध में वो छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, जाने-अनजाने का कोई भेद नहीं करते थे। कई बार अनजाने लोगों से विवाद बढ़ जाने की संवेदनशील परिस्थिति में उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती तो वे पुलिस वाले ताऊजी का नाम लेते और ताव से कहते, “तुम जानते नहीं मैं किसका जमाई हूँ।” किन्तु इस गीदड़भभकी की प्रतिक्रिया भी मिली जुली ही होती थी – परिणाम चाहे जो भी हो, फूफा जी निःस्वार्थ भाव से बहस करने को सदा तत्पर रहते और कभी मैदान नहीं छोड़ते थे।  एक बार फूफा जी  सपरिवार कुम्भ मेले में गंगा स्नान करने जा रहे थे। बुआ जी का संतोषी माता का व्रत था तो उनके लिया केले ख़रीदने स्टेशन पर उतरे। केला खरीदते हुए केले वाले से बहस हो गई कि हमारा लोकल केला ज्यादा मीठा होता है या उसके ठेले का जलगांव का केला। इस पर दोनों तरफ से गंभीर तर्क-वितर्क होने लगे। फूफा जी का तर्क था की केला यदि छोटा हो तो ज्यादा मीठा होता है। लोकल केला छोटा होता है तो स्वाभाविक रूप से वो ज्यादा मीठा है। वहीं केला वाला अपने जलगाँव के केलों की प्रजाति को उनके ज्यादा मीठे होने का कारण बता रहा था। फूफा जी को इस अदने प्राणी का तर्क बड़ा कुतर्क लगता था। बात बढ़ती गई और जैसा की उत्तर भारत के छोटे कस्बों मे आम बात है, तमाशबीनों की एक छोटी सी भीड़ उनके आस पास जमा हो गई।  उनमें से कोई फूफा जी तो कोई केले वाले का समर्थन करने लगा। कान खुजाते हुए एक नेता टाइप ने केलों की मिठास में अंतर्राष्ट्रीय साजिश होने का दावा किया। वहीं खड़े विद्यार्थी ने जब याद दिलाया कि जलगांव महाराष्ट्र में है तो छूटते ही नेता जी ने उसे डपट दिया – “बात करने की तमीज नहीं! कहां पढने जाते हो? संस्कार नहीं सिखाते वहां?” वहां ज्यादातर लोग इस बात से सहमत थे कि यदि लोकल किसानों को महाराष्ट्र के किसानो जैसी सुविधाएं मिलें तो हमारा लोकल केला  अन्य सभी प्रजातियों से ज्यादा मीठा साबित होगा। कदली फलों पर मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच यह शास्त्रार्थ अपने चरम पर पहुंचता ही था की कुम्भ स्पेशल ट्रेन की सीटी बज गई। वहां खड़े तर्क शास्त्रियों और दर्शकों में भगदड़ मच गयी। फूफा जी बिना केले लिए ही किसी तरह दौड़ते-भागते चलती ट्रेन की अपनी बोगी में वापस चढ़ पाए। संतोषी माता का व्रत कर रहीं बुआजी को पूरी यात्रा में आलू की सब्जी और भुनी मुंगफली खाकर ही संतोष करना पड़ा।  

रक्षाबंधन के मौके पर बुआ जी और फूफा जी सपरिवार एक सप्ताह पहले हमारे घर आ जाते थे। कई बार जब रक्षाबंधन परीक्षा के आस पास होता था तो इससे असुविधा भी होती थी और माँ के चेहरे पर और खाने के स्वाद में इसकी खीज साफ़ दिखती पर ज्यादातर ये हम बच्चों लिए उत्साह और बाल सुलभ धमाचौकड़ी का अवसर होता था। फूफा जी स्वयं बहुत धार्मिक या उत्सव धर्मी नहीं थे पर बुआ जी का साथ देने के लिए वह हमेशा उपलब्ध रहते थे। कभी उन्हें स्वयं पूजा करते या जल चढ़ाते नहीं देखा। बच्चों के साथ हम पूरे दिन धमाचौकड़ी और उछल कूद करते थे। बच्चे बहुत शैतानी भी करते थे। जेठ की दोपहरी में एक बार फूफा जी खाना खाने के बाद विश्राम कर रहे थे। खर्राटे ले रहे थे और बीच में मुंह खोलकर सांस लेते थे। यह दृश्य सभी बच्चों के लिए किसी कार्टून नेट्वर्क से कम रोचक नहीं था। किसी बदमाश बच्चे के मन में खुराफात आई और उसने उनके खुले मुंह में एक मक्खी पकड़ कर डाल दी। फूफा जी तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने बिना आंख खोलें मक्खी को निगल लिया और सोते रहे। उनके जागने के बाद किसी चुगलखोर बच्चे ने उन्हें सारी घटना बतायी तो हम सभी बच्चों की खूब क्लास लगी। सबको कान पकड़ कर मुर्गा बनाया गया और आगे से ऐसी हिमाकत ना करने की गंभीर चेतावनी दी गई।

फूफा जी को दो चीजें खाने में बहुत पसंद थीं – एक पान और दूसरा  मछली। जब कभी वो बाजार जाते तो अपने और दूसरों के लिए पान लाते और अगर कोई दूसरा जाता तो उससे पान जरूर मंगवाते। वर्षों से पान खाने के कारण उनके कई दांत कत्थई रंग के हो गए थे। इस बात पर बुआ जी उन्हें हमेशा कोसती रहती थी पर यह नवाबी शौक था जो छूटे नहीं छूटता था। उनका दूसरा शौक घर में और क्लेश पैदा कर देता। मछली की कहानी कुछ ऐसी थी की एक बार जब फूफाजी बीमार पड़े तो किसी नीम हकीम ने उन्हें बताया था कि मछली बहुत पौष्टिक खाना है और इसे खाने से यौवन बना रहता है, तभी से उन्होंने मछली को अपना लिया था। फूफा जी को रोहू मछली बहुत पसंद थी और इसे वह बड़े चाव से बनवाते और खाते थे।  घर की महिलाओं को मीट, मछली, अंडा खाना तो क्या दूर से देखने से भी उल्टी आ जाती थी। इस समस्या का निदान घर के पुरुषों ने निकाला – पहुना के स्वागत में ससुराल पक्ष के पुरुष घर के बाहर मछली पकाते थे। इसके लिए खास मिट्टी के बर्तन मंगाए जाते थे और अलग से मसाले, नमक, प्याज, लहसुन, टमाटर इत्यादि लाकर बाहर रख दिया जाता था। मछली पकाने की किसी भी सामग्री को घर के अंदर लाना सख्ती से मना था। बाहर मच्छी पकाई जाती, फिर दावत होती और उसके बाद दातून कर हैंडपंप पर नहाने के बाद ही वापस घर में आने की अनुमति मिलती थी। दातून इसलिए क्योकि टूथ ब्रश घर के अंदर रखा होता और उसे  बाहर ले जाने की अनुमति नहीं थी। इस पूरे अनुक्रम के दौरान महिलायें खिड़की दरवाजे बंद रखती ताकि मछली की बदबू घर में घुसकर धर्म भ्रष्ट ना कर दे। बच्चों के लिए ये बड़ी दुविधा की स्थिति होती थी क्योंकि अंदर शाकाहारी भोजन बनता था और बाहर मछली। बाहर से अच्छी खुशबू आती थी पर मन-मसोस कर शाकाहारी खाना पड़ता था।

फूफा जी को पतंग उड़ाने का भी बहुत शौक था। खिचड़ी यानी संक्रांति के समय में हमारे शहर में जब पतंगों का जमघट होता था तब अगर फूफा जी वहां होते तो त्यौहार की रौनक बढ़ जाती थी। फूफा जी बड़े उत्साह से रंग बिरंगी पतंगों को लेकर आते थे, पतंगों में सद्दी और मंझा बाधते और पतंग काटने के नए-नए दांव-पेंच अपनाने को तत्पर रहते। पतंग उड़ाने से पहले उसमें शगुन के लिए हल्दी भी लगाते। वैसे पतंग काटने का उनका रिकॉर्ड औसत ही था पर उनका उत्साह देखते ही बनता। एक बार जोर-जोर से मंझा खींचते हुए उनकी उंगली कट गई पर बिना इसकी परवाह करते हुए वो पड़ोसी की पतंग काटकर ही माने। पतंग काटने के बाद उनकी भाव-भंगिमा ऐसी होती जैसे कोई ओलंपिक का मेडल जीता हो। शायद पतंगबाजी फूफा जी को उनके अपने बचपन की याद दिलाती थी और इस वजह से उन्हें इसमें विशेष रूचि थी। मंझा कितना लंबा होना चाहिए और उसके बाद कहां से सद्दी होनी चाहिए, इस बात पर वह घंटों बहस कर सकते थे। पतंग जब आसमान में ऊंची चली जाती तो वह बच्चों के हाथ में पतंग उड़ाने को दे देते थे पर जैसे ही कोई दूसरी पतंग उसे काटने के लिए आगे बढ़े तुरंत उसे अपने हाथ में लेकर दांव पेच लड़ाने लगते।

एक बार काम करने के लिए विदेश में आना हुआ तो फिर फूफा जी से एक-दो बार शादी विवाह के खास मौकों पर ही मुलाकात हुई। जीवन की आपाधापी में बचपन कहीं खो सा गया। फूफा जी मोबाइल रखने या चिट्ठी लिखने में विश्वास नहीं रखते थे। इस तरह उनसे संपर्क रखना और भी दुरूह हो गया। फूफाजी का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहने लगा। फिर एक दिन अचानक जब फूफा जी के दिवंगत होने का समाचार आया तो ऐसा लगा कि बचपन की कई खट्टी-मीठी यादें उनके साथ चली गईं। उनका काली घनी मूछों के पीछे मंद-मंद मुस्कुराता हुआ वात्सल्य भरा चेहरा याद आया। मँझा, सड्डी, जमघट और रंग बिरंगी पतंगें  सब आखों के समक्ष सदृश्य हो गये। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी उड़ती हुई पतंग की डोर कट गई और पतंग आकाश में खुली हवा में हिचकोले लेते-लेते आंखों से ओझल हो गई …

-अभिषेक त्रिपाठी

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