सूरज कहता धन्य दीप तुम,

धन्य तुम्हारा त्याग से नाता

जब मैं चलकर थक हूं जाता,

दीप तब अपना तन पिघलाता

बना तेल बाती की सेना,

चल पड़ते हो तान के सीना

जलते हो कर्तव्य भाव से,

जाना नहीं स्वार्थ में जीना

महलों के ऊचे कंगूरे,

गांव में हो मिट्टी के धूरे

सजग खड़े तुम रात्रि के तट पर,

सदा तमस से द्वंद अधूरे

तुमसे हैं जग का उजियारा,

अंधकार तुमसे ही हारा

देख तुम्हारी अथक साधना,

मन मैंने भी तुम पर वारा

मैं रश्मि के रथ पर हूं सवार,

दिव्य मिला मुझको आकार

पर मैं रहूं गगन तक सीमित,

धरा ना करता अंगीकार

सदा किन्तु मैं निश्चित रहता,

संशय कभी ना कोई गुनता

धरा से जब मैं ना मिल पाता,

तम तुमसे तब है घबराता

माटी से जन्म ले दीपक,

धरा पर अपना सूर्य बनाता

जलकर देता स्वयं की आहुति

दीपक कोटि सूर्य बन जाता।

-अभिषेक त्रिपाठी

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