डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन

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वह लड़की

एक छोटी-सी लड़की थी वह
कोई आठ वर्ष की
एक पवित्र जल-धार की खामोश थिरकन लहर की
जब उसकी आंखों में
उसके पार मैंने उसे देखा था
एक गर्म दोपहर में
उसे खेलते हुए
और उसे अपनी घूरती आंखों में समेटा जाता हुआ
फिर वह जो करने लगी थी
चाहे खेल या किसी से बात
कुछ अतिरिक्त करने लगी थी
मुझे लगा जो अतिरिक्त कर रही थी
वह मेरे लिए कर रही थी
मेरा ध्यान खींचे रखने के लिए कर रही थी
फिर कुछ देर बाद
वह खेलते-खेलते थक कर चली गई थी
और मैं देर तक उसे खड़ा-खड़ा
जाते देखता रह गया था
और यह भी अनुभव करते कि वह जान रही है
कि मेरी आंखें
उस पर पछाड़ खा-खा कर गिर रही थीं

फिर उस जरा-सी मासूम लड़की को कभी नहीं देखा
लेकिन फिर उसे कहां नहीं देखा?
किन मासूम आंखों में उसे नहीं देखा?
किस मसृण स्मृति-धार में उसे स्पर्श नहीं किया?
किस नई किलकारी,
किस नव उष्स-गान में उसे नहीं सुना?
किस पूजा-गीत में
किन जवान कंधों पर, पवित्र प्यार के क्षणों में
उसे महसूस नहीं किया
किस पावन शरीर की तेज धमनियों में उसे नहीं कल्पनाया?

और उसकी याद कहां नहीं आई?
अजंता की गुफाओं में
एक नोकीली नाक, बड़ी-बड़ी आंखों,
कसे उन्नत उरोजों वाली
उन्मुक्त रक्तवाही कसी जांघों वाली अप्सरा को जब देखा
तो जो देखा, उसके पार
वही दिखी… वही मुझे अपनी निगाहों में भरता देखकर
कुछ शर्माती, कुछ चुहल करती
वही मासूम लड़की

कब नहीं सोचा
अब वह बड़ी होकर इसी तरह
अपनी फूटती-फैलती मांसलता का मद
कितनी घूरती आंखों पर नहीं चढ़ा रही होगी!
कहां नहीं देखा उसे!
कोई बीस साल बाद, जब इन्हें देखा-
रोम के भग्नावशेषों में बची-खड़ी
नग्न मूर्तियों को, अनझिपती आंखों को जो
सदियों से ताक रहीं, भेद रहीं, उकसा रही हैं
और
कभी न बुझने वाले नयन-दीपों से
जगा रही हैं मर्द के अंदर कुमारगिरि और
आदिम गुरिल्ला को साथ-साथ

कहां नहीं देखा इनमें
मैंने बार-बार आकर खड़े हो जाते
तन कर लंबे खुले बालों को झटका देते
लंबी बांहों की अंगड़ाईयों में आकाश भरते
उसे, बस उसे ही
उसी मासूम लड़की को, बार-बार

इतनी तेजी से, इतना सारा बड़ा हो जाते, पूर्ण हो जाते
कहां नहीं देखा उसे, हार-हार
कब नहीं देखा उसे-
देते हुए अपना संपूर्ण प्यार…

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