डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन

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धुंए भरे कमरे में

उस धुंए भरे कमरे में
बहुत लोग नहीं थे
लेकिन जो थे
वे अपनी उपस्थिति के प्रति
निरंतर चौकन्ने थे
उनकी आंखों में जो परेशानी थी
वह अपने प्रति नहीं थी
कुछ ऐसी चीजों के प्रति थी
जिससे वे खुश नहीं थे
और यह नाखुशी प्रकट कर रहे थे
उनके अस्त-व्यस्त बाल
सिगरेट के धुओं से जले हुए होंठ

यह नहीं कि वहां
किसी को किसी से दुश्मनी थी
या किसी को किसी से लेना था बदला
चुकाना था हिसाब
पर वहां
उस धुंए भरे कमरे में
जो भी आंखे देखती थीं
कुछ इस तरह अपने आसपास से विमुख होकर देखती थीं
जैसे जो कुछ था देखने को
वहां नहीं था
दूर कहीं, बहुत दूर था

और कुछ ऐसा ही हाल
वहां बैठे लोगों की लगातार खुलती बंद होती
मुट्ठियों का था
चाहे वे किसी की ओर उठी हों या न हों
एक मारता हुआ घूंसा लगाती थीं
और उनकी भाषा?
वह भी थी वैसी ही
जो भी कहा जाता था वहां
उसके कहने वाले को लगता था
कि वह सब कुछ नहीं कह पा रहा है
उसके शब्द उसे पूरी तरह नहीं उतार पा रहे हैं
और इसीलिए प्रायः
कह देने के बाद कहने वाला
अपने होठ काटने लगता था
जैसे अनकहे को खून की तरह बहा देना चाहता हो

उस धुंए भरे घुटन भरे कमरे में
आगंतुक कितना भी बैठना चाहे
बहुत देर तक बैठा नहीं रह सकता था
कुछ ऐसा था उस वातावरण में
जो कहने लगता था उससे जैसे
यह तुम्हारी जगह नहीं है
खुली-फटी आंखों की कोरी तटस्थता
नहीं वहां सार्थक
असमर्पित होना कमजोरी है
समिधा बन जाना जरूरी है

मैं वहां अधिक देर नहीं रह पाया
पर जब बाहर आया तब यह स्पष्ट हो गया था मेरे सामने
कि यह माहौल
यह दुनिया
आज जैसी है
हमेशा वैसी नहीं रह पाएगी
बदलेगी।

अच्छी या बुरी
पर बदलेगी जरूर
क्योंकि कुछ लोग हैं
जो इसे बदल देने पर तुले हुए हैं
पूरे संकल्प के साथ
पूरे विश्वास के साथ।

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