कमरा का कमरे क्यों हो जाता है?

डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम 

चाय के खोखे पर इधर – उधर की चल रही थी। प्रोफेसर गुप्ता ने हिंदी की बखिया उधेड़ते हुए कहा — देखो, हिंदी का हाल! वहाँ एक कमरा है। उसमें कोई बैठा है। हिंदी वाला कह रहा है — कोई कमरे में बैठा है। भई, वहाँ कितने कमरे हैं जिनमें वह बैठा है? हिंदी वालों को इत्ती-सी बात नहीं कहनी आती।

शर्मा जी को मज़ा आया। वे चाहते थे, चाय का बिल गुप्ता जी ही चुकाएँ। अतः समर्थन में बोले — यह सामने खड़ा है — चायवाला। अब हमीं कहेंगे — चायवाले को बुलाओ। भई, चायवाला को क्यों नहीं? कोई हिंदीवाला समझाएगा? शर्मा जी को डबल मज़ा आ रहा था। उनके प्रिंसिपल हिंदी के थे, जिनसे उनकी खटपट रहती थी। वे एक प्रकार-से हिंदी की मज़ाक़ उड़ाकर उनसे खुन्नस निकाल रहे थे।

मैं अभी जूनियर था। शर्मा जी का तो शिष्य भी था। पर गुप्ता जी ने मेरे चटखारे लेने के अंदाज में कहा — क्यों भई बतरे! ये क्या है तुम्हारी हिंदी-विंदी?

जब कोई कमरा में बैठा है तो उसे कमरे में क्यों बिठा रहे हो?

प्रश्न दागकर उन्होंने अपनी सिगरेट बुझा दी और मेरी ओर उपहास-भरी नज़रों से देखने लगे।

मैं उलझना नहीं चाहता था। खाली पीरियड में धूप सेकने और चाय पीने आए थे । मज़ाक को मज़ाक़ ही रहने दें।

मुझे चुप देखकर गुप्ता जी बोले — भाषा तो है अंग्रेजी। हिंदी में तो कोई नियम ही नहीं है। मनमर्जी की भाषा। किसी को आप, किसी को तुम, किसी को तू। इससे तो अच्छा है अंग्रेजी का यू। इस यू में सब आ गए। हिंदी वाले तो बहुत भेदभाव करते हैं।

मैं अचानक बोल पड़ा — जैसे आपने भेदभाव किया गुप्ता जी! मैं हूँ तो बत्रा। पर आपके लिए बत्रा नहीं बतरे! जिस मनोवृत्ति ने बत्रा को बतरे बनाया, उसी ने—

पर मेरा सवाल तो कमरा को कमरे कहने पर था। उन्होंने मेरी बात काटी।

मैंने कहा — पहले यह तो समझ लें गुप्ता जी , फिर कमरा-कमरे भी समझ आ जाएगा। आपका एक और दोस्त है न! वह क़ाश्मीर के कर्ण सिंह को महाराजा कर्ण सिंह कहता है। कॉलेज के हैड क्लर्क को कर्ण सिंह जी तथा चपड़ासी को कर्णे कहता है। क्यों कहता है? गुप्ता जी! भाषा में मान-अपमान और संबंधों को व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति होती है।  आपकी भाषा से मेरा  नहीं, आपका मूल्य पता चलता है। आपकी नज़रों में आपका अनुज क्या स्थान रखता है, आपने यह बताया है।

खैर, 45 वर्ष पहले का यह प्रसंग मुझे यों ही याद आ गया।  इसी संवाद ने कमरा से कमरे होने के पट खोले।

सोचना शुरू किया —

लड़का एकवचन है। लड़के बहुवचन है। फिर जब हम आकारान्त पुल्लिंग शब्द के साथ ने, को, से, में, पर आदि परसर्ग लगाते हैं तो एक लड़का होने पर भी उसे बहुवचन क्यों बना देते हैं?

मन में प्रश्न उठा — लड़के ने कहा में लड़के एकवचन है या बहुवचन?

इसका उत्तर पाने के लिए फट से प्रयोग किया — कई लड़के ने कहा । यह प्रयोग तो ठीक नहीं है। यहाँ होना चाहिए — कई लड़कों ने कहा। अतः यहाँ लड़के की जगह लड़कों हो गया।

इसका अर्थ है — लड़का का लड़के होना बहुवचन नहीं है, अपितु यह व्याकरणिक विकार या परिवर्तन है।

प्रश्न वहीं खड़ा रहा — जब पुल्लिंग आकारान्त शब्द के साथ ने, को, में, पर, से आदि कोई परसर्ग आता है तो लड़का का आ ए में क्यों बदल जाता है?

ऐसे बहुत -से  शब्द मिले, जिनमें यह तिर्यक विभक्ति लगती है।

बेटा ने कहा नहीं, बेटे ने कहा

बूढ़ा ने कहा नहीं,  बूढ़े ने कहा

भतीजा ने कहा नहीं,  भतीजे ने कहा

साला ने कहा नहीं, साले ने कहा

गड्ढा को भरा नहीं, गड्ढे को भरा

घोड़ा को नहीं, घोड़े को चलाया आदि-आदि।

परन्तु बहुत-से आकारान्त शब्द इस नियम की अवहेलना करते मिले। जैसे — मामा ने कहा, नाना ने कहा,

दादा से चाचा ने कहा

जीजा ने फूफा से कहा

राजा से राणा से कहा।

?? यहाँ आकारान्त पुल्लिंग शब्द होते हुए भी अंतिम का क्यों नहीं हुआ? आकारान्त रूप यथावत क्यों रहा?

किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले कुछ और प्रश्नों से जूझना था। क्या किसी और संज्ञा शब्द के साथ परसर्ग यह भेदभाव करते हैं?

देखा —

सरिता ने आगरा में जाकर यमुना के किनारे विहार किया।

सरिता स्त्रीलिंग शब्द है। इसकी जगह महिमा, पुष्पा, सुनीता, मल्लिका कुछ भी लगा दो, ये नाम आकारान्त ही रहेंगे।

आगरा नगर का नाम है। इसकी जगह पटना, कोलकाता, लुधियाना, फगवाड़ा कोई भी नगर हो, उसका नाम नहीं बदलेगा।

यमुना नदी है। इसकी जगह गंगा, नर्मदा, कृष्णा कोई नदी हो तो भी उसका रूप नहीं बदलता।

अशोक ने, नीति को, अनीता से, चारु को और जुझारू को। सभी अकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त रूपों में परसर्ग के कारण कोई परिवर्तन नहीं होता।

अब बस यह प्रश्न शेष रह गया कि किन आकारान्त शब्दों के साथ परसर्ग आने पर का होता है और किनके साथ यह परिवर्तन नहीं होता?

और ऐसा क्यों होता है? इस परिवर्तन का कारण क्या है?

किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले यह जानना जरूरी है कि भाषा किसी वैयाकरण द्वारा निर्मित या संचालित- निर्देशित नहीं होती। भाषा बहता नीर है। यह अपनी जरूरतों से अपने रास्ते, अपने कोण, अपने कटाव और अपने बहाव तय करती है। भाषा अपने समाज की सामूहिक प्रकृति की सूचक होती है।

हिंदी वाक्य-रचना में देखने में आता है कि आकारान्त पुल्लिंग शब्दों के पीछे अगर कोई परसर्ग — ने, से, को, में, पर आ जाए तो अंतिम आ ए में बदल जाता है। केवल सम्मानार्थ कुछ शब्द छोड़ दिए जाते हैं। यह ऐसा है जैसे हम अपने अनुजों को ए ओ कहकर पुकार लेते हैं। उस पुकार में सहजता और मुख-सुख अधिक होता है, तिरस्कार या अपमान नहीं। यदि आकारान्त शब्दों को यह भेदभावपूर्ण और अन्यायपूर्ण लगे, तो आज के अधिकारलिप्सु जनतंत्र में ऐसा लग सकता है।

एक कविता का आनंद लें। अपने सम्मान के प्रति अतिरिक्त सचेत आकारान्त  लड़कों की पीड़ा को भी समझें। आखिर आज वह प्रखर युग है जिसमें अभिभावक अपने ही बच्चों के तेवरों को देखकर घबराते हैं।

परसर्गों की मनमानी

उस दिन लड़के ने
लड़ के पूछा परसर्गों से —
यानि ने, को, से, में, पर से–
मेरा कसूर क्या है?
मेरे संग चलते हो
तो मुझे
लड़का से लड़के क्यों बनाते हो?
चाचा को चाचे क्यों नहीं बनाते हो?
यह सरासर अत्याचार है
मनमानी है, स्वेच्छाचार है!
ऐसे तो हम चलने नहीं देंगे
अपने लड़कपन को यूँ छलने नहीं देंगे!
कोई बात हुई!
लड़का गुर्राया!
परसर्गों को खाने को आया।

भाषा इस सच को जानती थी
छोकरों को मुँहफट मानती थी
उसने टी वी पर कितने ही
मुँहफट प्रवक्ता देखे थे
जो फूटी आँख नहीं सुहाते थे
इसलिए शालीन वक्ता
उनके समीप नहीं आते थे।

परसर्गों का कुनबा भी सभ्य था
उन्हें लड़का का सुरसा-सा खुला मुँह
बिल्कुल नहीं भाता था
इसलिए ने, से, को हो
या में
उनके संग चलने से कतराता था।

सो भाषा ने होशियारी की
एक लड़का बुलाया
उसे एकांत में समझाया
उसका चौड़ा मुँह कुछ कम कराया
लड़का को लड़के बनाया
धीरे-धीरे परसर्गों को
उनके संग चलने के लिए मनाया।

पर लड़का स्वभाव से ही लड़ाका था, लठेत था
इज्जत-विज्जत नहीं जानता था
सचमुच टिकैत था।

सो टिकैत की तरह मुँह फाड़ कर बोला — भाषा मलिका!
तुम हमीं को क्यों दबाती हो?
पाजामा को तो पाजामे कहती हो
पर मामा को मामे कहकर क्यों नहीं बुलाती हो?
बताओ न!
तुम दादा को दादे, और राजा को राजे क्यों नहीं कहती हो?
क्या हमारी कोई इज्जत नहीं?
हमें छोरे, भतीजे, भानजे और साले क्यों कहती हो?
क्या तुम्हारा वश छोटों पर ही चलता है?
तुम बड़े-छोटे में भेद क्यों करती हो?
खुद ही अन्यायी हो
या किसी हुक्काम से डरती हो?
क्या तुम्हारा कोई संविधान नहीं है?
या संविधान में बराबरी का प्रावधान नहीं है?
तुरंत जवाब दो
वरना सड़क पर जाम लगा देंगे
टिकैत हैं, कोहराम मचा देंगे।

तब से भाषा बेचैन है
मन-ही-मन कसमसाती है
टिकैतों के सामने कुछ कह नहीं पाती है।
पर परम्परा यही है
परसर्गों को लड़का जैसे पुल्लिंग छोकरे बिल्कुल नहीं भाते।
जब तक कोई इज्जतदार सामने न आए
वे साथ नहीं निभाते।
बुड्ढा को ही देख लो
उसे बुड्ढे कहने में कतई नहीं सकुचाते।

***** ***** *****

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »