
मराठी कवि अनिल: एक साहित्यिक अर्थात् शैक्षणिक दिग्गज
~ विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र
आज, ८ मई, आत्माराम रावजी देशपांडे, जिन्हें कवि ‘अनिल’ के नाम से जाना जाता है, की पुण्यतिथि है। उनका जन्म ११ सितंबर १९०१ को विदर्भ के अकोला जिले के मूर्तिजापुर में हुआ था और वे ८ मई १९८२ को इस दुनिया से विदा हुए। अनिल न केवल मराठी साहित्य के एक महान कवि थे, बल्कि अपारंपरिक शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। उनकी कविताओं ने मराठी साहित्य को नई दिशा दी, वहीं उनके शैक्षणिक कार्यों ने देश की नीतियों को प्रभावित किया। आइए, उनके जीवन और कार्यों पर एक नजर डालें।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
अनिल का जन्म मूर्तिजापुर में एक साधारण परिवार में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अमरावती के हिंदू हाईस्कूल से पूरी की। उस समय वर्हाड के पांढरपेशा समाज में पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में प्रवेश लेने की होड़ सी थी। अनिल भी इस परंपरा का हिस्सा बने और आगे की पढ़ाई के लिए पुणे गए। उन्होंने १९१९ में इलाहाबाद से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और १९२४ में फर्ग्युसन कॉलेज से दर्शनशास्त्र में बी.ए. की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की और १९२५ में एलएल.बी. पूरा किया। कुछ समय के लिए उन्होंने कोलकाता के शांतिनिकेतन में नंदलाल बोस के मार्गदर्शन में भारतीय चित्रकला का अध्ययन भी किया, जो उनके सौंदर्यबोध को दर्शाता है।
शिक्षा पूरी करने के बाद अनिल ने अमरावती में वकालत शुरू की। बाद में उन्हें मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में सब-जज के पद पर नियुक्ति मिली। इस तरह उनके जीवन का एक हिस्सा कानून और प्रशासन को समर्पित रहा, लेकिन उनकी आत्मा कविता और साहित्य में रमी थी।
साहित्यिक यात्रा की शुरुआत
अनिल ने १९३० में कविता लेखन शुरू किया। उनकी पहली कविता संग्रह ‘फुलवात’ १९३२ में प्रकाशित हुई, जिसने मराठी साहित्य जगत का ध्यान आकर्षित किया। उस समय ‘रविकिरण मंडल’ के कवियों का प्रभाव था, जिनकी कविताएँ संस्कृतनिष्ठ, पांडित्यपूर्ण और अलंकारों से भरी होती थीं। इसके विपरीत, अनिल की कविताएँ सरल, सहज और भावनाओं से ओतप्रोत थीं। ‘फुलवात’ में उनकी पंक्ति “हृदयीं लावियली फुलवात” ने पाठकों के दिल को छू लिया। इस संग्रह ने उन्हें एक अलग पहचान दी।
१९३५ में उनकी मुक्तछंद में लिखी कविता ‘प्रेम और जीवन’ प्रकाशित हुई। इसके बाद १९४० में ‘भग्नमूर्ती’, एक चिंतनात्मक खंडकाव्य, सामने आया, जिसमें उन्होंने कला और संस्कृति पर गहरे विचार व्यक्त किए। अनिल ने मुक्तछंद का प्रयोग किया, जिसने साहित्य जगत में विवाद पैदा किया। कुछ आलोचकों ने इसे गद्य कहकर खारिज किया, लेकिन अनिल ने अपने छंदशास्त्र के गहन अध्ययन के आधार पर इसका बचाव किया। उनका कहना था कि मुक्तछंद मराठी भाषा की स्वाभाविक लय और परंपरा के अनुरूप है।
कविता में सामाजिक चेतना
अनिल की कविताओं में सामाजिक जागरूकता और चिंतन का गहरा प्रभाव दिखता है। उनके काव्य को दो प्रमुख चरणों में बाँटा जा सकता है:
1. ‘फुलवात’ (१९३२) से ‘पेर्ते व्हा’ (१९४७)’: इस चरण में उनकी कविता में प्रेम की नई व्याख्या और सामाजिक परिवर्तन की भावना दिखती है। ‘पेर्ते व्हा’ संग्रह की कविता ‘बंड’ में वे सामाजिक समता के लिए संघर्ष की बात करते हैं:
“धुळीत मिळविण्यास तडाक्यांत साम्राज्यें अंधारयुगांचीं,
स्थापायास अधिराज्य समतेचे।”
उनकी कविता “उद्या! तुझ्यामधेंच फाकणार ना उषा?” आशावाद का प्रतीक है।
2. ‘सांगाती’ (१९६१) से ‘दशपदी’ (१९७६)’: इस चरण में उनकी कविता अधिक परिपक्व और प्रयोगात्मक हुई। ‘दशपदी’ में उन्होंने दस पंक्तियों का नया काव्य रूप विकसित किया, जो भारतीय काव्य परंपरा में एक अनूठा योगदान है। इसमें निसर्ग का सुंदर चित्रण और कवि का उससे तादात्म्य झलकता है।
उनकी कविताओं की विशेषताएँ
– लयबद्ध नादमयता: शब्दों की मधुर लय।
– सौंदर्यानुगामी संयत शब्दकला: सौंदर्य और संयम का संतुलन।
– सामाजिक चिंतन: गरीबी, अन्याय और परिवर्तन की तीव्र भावना।
उदाहरण के लिए, ‘गरीब आणि पावसाळा’ में वे समाज के दुख को इस तरह व्यक्त करते हैं:
“इकडे पाणी, तिकडे पाणी,
वरखाली पाणी पाणी,
दीनवाणी झोपडी कशीतरि तग धरुनी केविलवाणी।”
शिक्षा क्षेत्र में योगदान
कविता के साथ-साथ अनिल ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे १९४८-१९५२ तक भारत सरकार के सामाजिक शिक्षा विभाग के निदेशक रहे और १९५२ से नेशनल फंडामेंटल एजुकेशन विभाग के निदेशक बने। उन्होंने यूनेस्को की साक्षरता प्रसार समिति में भारत का प्रतिनिधित्व किया और १९६२ में पेरिस में आयोजित बैठक के अध्यक्ष चुने गए। उनके प्रयासों से अपारंपरिक शिक्षा, प्रौढ शिक्षा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रमों की नींव पड़ी।
सांस्कृतिक और संस्थात्मक योगदान
अनिल ने १९५८ में मालवन में आयोजित अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने विदर्भ साहित्य संघ और अखिल भारतीय मराठी साहित्य महामंडल जैसी संस्थाओं के माध्यम से महाराष्ट्र की सांस्कृतिक एकता को मजबूत किया। महाराष्ट्र के निर्माण के समय स्वतंत्र विदर्भ की माँग से उत्पन्न विभाजन को कम करने के लिए उन्होंने साहित्यिक संस्थाओं को एक मंच पर लाने का कार्य किया।
व्यक्तिगत जीवन और प्रकाशन
अनिल और उनकी पत्नी कुसुमावती के बीच पत्राचार ‘कुसुमानिल’ नामक पुस्तक में संकलित है, जो मराठी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखता है। उनकी कविताएँ कभी एकसमान नहीं रहीं; वे हर बार नए प्रयोग करते थे। ‘सांगाती’ में उन्होंने “आज अचानक गाठ पडे” जैसे भाव व्यक्त किए, तो ‘दशपदी’ में गहरे चिंतन और विषाद को स्थान दिया। उनकी कविताओं में संगीत, शिल्प, पुरातत्व और दर्शन का प्रभाव दिखता है, जो उनके व्यापक ज्ञान का परिचायक है।
कवि अनिल एक ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने अपनी सरल और भावस्पर्शी कविताओं से मराठी साहित्य को समृद्ध किया। उनकी कविताएँ न केवल सौंदर्य का शोध करती हैं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का स्वप्न भी बुनती हैं। शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान ने उन्हें एक बहुआयामी व्यक्तित्व बनाया। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उनके इस अमूल्य योगदान को याद करते हैं।
उनकी पंक्तियाँ—
“उद्या! तुझ्यामधेंच फाकणार ना उषा? तुझ्यामधेंच संपणार ना कधी तरी निशा?”
( कल, उषा की किरण से उज्जवल होगा तेरा जीवन
निशा का अंत करेगा तेरे जीवन )
—हमें आशा और प्रेरणा देती रहेंगी।
कवि ‘अनिल’ जिन्हें उनकी दशपदी कविता संग्रह हेतु साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था। उनकी पत्नी कुसुमावती देशपांडे भी मराठी की चर्चित लेखिका है। कवि अनिल ने कुसुमावती से प्रेम विवाह किया था। तत्कालीन समय उन्हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा। उन दिनों की याद में कवि अनिल द्वारा लिखित ‘आणीबाणी’ कविता काफ़ी चर्चित रही। इस मराठी बेहद खूबसूरत दशपदी कविता का हिंदी भावानुवाद सादर प्रस्तुत है।
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‘आणीबाणी’
कुछ राते इतनी अंधियारी थी
काजल बन जाता
समय ऐसा भी आया था
कुछ भी नहीं बचता,
तूफान ऐसा उठा था,
पतवार छूट जाती
तुन्द लहरों ने ऐसा घेरा था
जीवन नाव बच नहीं पाती
पागल बनकर कहीं बहक जाता
इतना नहीं था ध्यान
जलकर भस्म होता
किसी भी क्षण
हर दांव हार जाता था
मन करता फेक दूँ दाव
दिल पर इतने पड़े थे घांव
सोचता छोड़ दूँ तेरा गांव
कैसे निभाया कुछ पता नहीं
समझ आता नहीं था
मेरे पास कुछ नहीं था
सिर्फ तेरा हाथ मेरे हाथों में था।
~ कवि अनिल
मूल मराठी कविता ‘आणीबाणी’ का हिंदी अनुवाद – विजय नगरकर