
बुद्ध पूर्णिमा
इस अंक में अनीता वर्मा- संपादकीय, डॉ. मँजु गुप्ता, रेखा राजवंशी- ऑस्ट्रेलिया, डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे-, नीदरलैंड, कल्पना लालजी- मॉरीशस, डॉ० अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’- प्रयागराज, प्रीति अग्रवाल- कनाडा, श्रुत कीर्ति अग्रवाल, अजेय जुगरान, सरस दरबारी, शैल- लखनऊ, डॉ रुपाली गर्ग- मुंबई, चेतना भाटी- इंदौर, शकुंतला मित्तल- गुरुग्राम, संगीता चौबे पंखुड़ी- कुवैत, लीला तिवानी- नई दिल्ली, लता सिंघई- अमरावती, डेज़ी ग्रोवर एवं, आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर- उज्जैन की रचनाएँ सम्मिलित की गई हैं।
संपादकीय
अनीता वर्मा

बुद्ध और मन
महात्मा बुद्ध का जीवन दर्शन और उनके विचार आज ढाई हजार से अधिक वर्षों के बेहद लंबे अंतराल बाद भी उतने ही प्रासंगिक हैं। वर्तमान समय में हम बहुत सी मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जूझ रहे हैं जिसके मूल में जीवन में समस्याओं का समाधान ना ढूँढ सकना और फिर अवसाद में चले जाना। बुद्ध ने कहा कि जीवन दुख है। मनोविज्ञान भी चिंता (भय, बेचैनी) की बात करता है। बुद्ध ने कहा कि दुख आसक्ति के कारण होता है। मनोविज्ञान में भी कुछ ऐसी ही अवधारणाएँ हैं। हम इस उम्मीद में चीज़ों से चिपके रहते हैं कि वे हमें कुछ लाभ पहुँचाएँगी। बुद्ध ने कहा कि दुख को समाप्त किया जा सकता है। निर्वाण की बौद्ध अवधारणा भी की
अस्तित्व की स्वतंत्रता से काफी मिलती-जुलती है। वास्तव में, स्वतंत्रता का उपयोग बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म से मुक्ति या कर्म के प्रभावों से मुक्ति के संदर्भ में किया गया है। स्वतंत्रता हमारे अस्तित्व का एक तथ्य है, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। बुद्ध कहते हैं कि सभी दुख लालच, घृणा और भ्रम की तीन “कड़वी जड़ों” या “जहर” से उत्पन्न होते हैं। हमें स्वयं को इनसे धीरे-धीरे मुक्त करना होगा।मेरी ये कविता पिछले वर्ष बुद्ध पूर्णिमा पर मन की उहापोह की स्थिति में लिखी गई थी।
मन चाँद सा
कभी ओट में
कभी प्रत्यक्ष
कभी उत्तर
कभी यक्ष
कभी अधूरा सा
कभी पूरे में अधूरा
कभी चमकता हुआ
कभी अबूझ सा बुझा हुआ
कभी आज में
कभी कल में
और कभी जल में
कभी कल-कल में
कभी ताल में
कभी बेताला सा
कभी गत में
कभी विगत में
अब होना होगा निर्लिप्त
समभाव तथागत
मन हो जा तू बुद्ध
स्वच्छ साफ़ विशुद्ध
डॉ. मँजु गुप्ता

बुद्ध पूर्णिमा
ढल रहा है सूर्य
हो रहा है सूर्यास्त
उजाला अपनी चादर समेट जा रहा है उसके पीछे-पीछे
अनुगता पत्नी-सा
जैसे राम के पीछे लक्ष्मण
निकले हों, अयोध्या त्याग
अँधेरा अपने पंख पसार, घिर रहा है धीरे-धीरे
घेर रहा है रिक्त स्थान
यह लो, आकाश में दिखने लगे नन्हे-मुन्ने तारे
नन्हे, मासूम बच्चों से पलक झपकाते
टिम-टिम करते
निहारते बुद्धपूर्णिमा का गोलगप्पे-सा गोल-मटोल चाँद
अँधेरे की नीलवर्णी झील में खिलता पद्म कमल
जिससे झर रही है चाँदनी रुपहले पराग-सी
आशीष मुद्रा में, वरद हस्त उठाए
चाँदनी के प्रभामंडल में जगमगाते
महात्मा बुद्ध- दे रहे हैं सारी दुनिया को
धैर्य, सहिष्णुता, शांति, संतोष, करुणा, मैत्री और
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का शुभाशीष
यह कोरोना वायरस का लॉक डाउन या बंदिश नहीं
अनन्त करुणा का प्रसार है
बुद्ध की असीम करुणा की झंकार है
इंसान को इंसानियत की ओर लौटाने का पाठ है
बड़े-बड़े मकान अब बन गए हैं घर
जिनमें छोटे-बड़े सभी सदस्य जुड़ रहे हैं परस्पर
बतिया रहे हैं आपस में गुटरगूँ करते
दुनिया की अर्थहीन भागमभाग और अंधाधुंध कश्मकश के
चक्रव्यूह से निकल
रच रहे हैं उज्ज्वल भविष्य
लिख रहे हैं नए युग की रामायण
गृहत्याग नहीं
लगता है- लौट आए हैं राजा राम अयोध्या
विहग-गण चहचहाकर गा रहे हैं स्वस्तिगान
नीलाम्बर दे रहा है आशीष
हवा में जैसे लौट आए हैं प्राण
मानो मिल गया हो उसे
ऑक्सीजन का पूरा सिलिंडर
तुम भी हो जाओ आत्मस्थ, आत्मलीन
अमृत कहीं बाहर नहीं
तुम्हारे भीतर है
सागर मंथन नहीं
अब जरूरत है- आत्ममंथन की
देवासुर दोनों ही तो तुम्हारे भीतर हैं
इस देवासुर संग्राम में
जीतेगा फिर से इंसान
क्योंकि कर लिया है उसने
अपने अंतस् में छिपे
अमृतकलश का संधान
***** ***** *****
रेखा राजवंशी, ऑस्ट्रेलिया

बुद्ध
बनने लगता है
इंसान जब बुद्ध
इच्छाओं, वासनाओं
कामनाओं से परे
लोभ, मोह, क्रोध
के पाश से मुक्त
संतुष्टि की चादर ओढ़े
ईश्वर का रूप धरे
जीवन और मृत्यु
अपना पराया
दिल नहीं दुखाता
मान और अपमान
ईर्ष्या और द्वेष
कुछ नहीं सताता
न शेष रहता है मन
न शेष रहता है तन
बचती है बस आत्मा
जो आतुर है
समाविष्ट हो जाने को
परमात्मा से
***** ***** *****
डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे, नीदरलैंड

शांति पुंज
चमक उठा था ज्ञान का दीप,
गया की धरती पर एक दिवस,
जब एक राजकुमार जाना शाश्वत सत्य को,
वह बन गया मानवता का आकाशदीप।
ना ताज, ना सिंहासन, ना तलवार,
केवल संवेदना और करुणा थी उसके पास,
उसने मानव जीवन के दुख और दर्द के कारण को जाना,
और दिखाया उसने मुक्त होने का प्रकाश।
“अप्प दीपो भव” — बनो स्वयं प्रकाश,
हर अंधकार से खुद लड़ो,
ना क्रोध, ना लोभ, ना मोह में पड़ो
बस ध्यान और शांति का मार्ग पकड़ो,
बोधिवृक्ष की छाँव में
जन्मा जो अमर विचार,
वो बुद्धत्व है — जो हर युग में
कराए स्वयं से साक्षात्कार।
आज बुद्ध पूर्णिमा पर
हम प्रण करें यही,
कि हिंसा के इस युग में
बने हम भी शांति पुंज।
***** ***** *****
कल्पना लालजी, मॉरीशस

गौतम बुद्ध के उपदेश
(1 ) गौतम बुद्ध
शत्-शत् प्रणाम
तुझे नमन
(2) बुद्ध पूर्णिमा
हुये अवतरित
बैसाख माह
(3) प्रेम ही काफी
पाने को सब कुछ
कर संतोष
(4) जन्म लुंबिनी
महापरिनिर्वाण
कुशीनगर
(5) शांति मन में
खोज रहा है कहाँ
बन नादान
(6) मिले न शांति
पढ़ ले जितना भी
बन इंसान
(7) दर्द मिलना
है स्वाभाविक यहाँ
कर्म बताते
(8) ले पहचान
अहंकार का अर्थ
हो खत्म ध्रणा
(9) जीत मृत्यु को
कलियुग में जन्मे
करो स्वीकार
(10) शक्तिशाली भी
रखता है सामर्थ्य
करता क्षमा
(11) जीवन जीना
आसान नहीं बंधू
है टेढ़ी खीर
(12) आत्मविश्वास
सबसे अच्छा साथी
हम सब का
(13) हैं खूबियाँ भी
इंसान में कमियाँ
ढूंढिये मत
(14) भाग्य हमारा
हमीं तो हैं लिखते
संजो जीवन
(15) कर न ईर्ष्या
न करना क्रोध तू
हे शांत मन
***** ***** *****
डॉ० अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, प्रयागराज

गौतम बुद्ध
(दोहावली)
शाक्य वंश में जन्म है, कहलाये सिद्धार्थ।
संन्यासी के वेश में, किये सदा परमार्थ॥
माता माया थी महा, शुचि शुद्धोधन तात।
जन कर माता चल बसी, व्यतित हुये दिन सात॥
जरा, मरण दुख देख कर, मन में हुई विरक्ति।
सांसारिक सुख त्याग कर, बुद्ध दिये अभिव्यक्ति॥
सत्य मार्ग के खोज में, गृह त्यागे इक रात।
यशोधरा राहुल तजा, धर संन्यासी गात॥
ज्ञान प्राप्त करके बने, महा तथागत बुद्ध।
सांसारिक माया तजे, आत्म ज्ञान कर शुद्ध॥
महा बुद्ध जग को दिये, शुभ आष्टांगिक राह।
सम्यक जीवन मार्ग हो, त्याग सभी निज चाह॥
बौद्ध धर्म उपदेश शुभ, है प्रासंगिक आज।
महिमा जिसकी व्याप्त है, जग में दूरदराज॥
बुद्ध पूर्णिमा पर्व पर, मन को करलें शुद्ध।
श्रद्धा सेवा भाव से, नमन करें हम बुद्ध॥
प्रीति अग्रवाल, कनाडा
***
एक थी यशोधरा
नीरव रात्रि
एकांत में निकले
खोजने सत्य
सिद्धार्थ महल से
न कोई विदा
यशोधरा से माँगी
न कोई संकेत
जिससे जान पाती
नन्हा राहुल
छोड़ मैया सहारे
यशोधरा के
मन में निरन्तर
यही टीसता
क्या मैं बनती बाधा
साथ न देती
क्या यही सोचकर
निकल पड़े
वो बिना कहे-सुने
क्यों मन मेरा
पहचान न पाए
यही मनाऊँ
पावें ज्ञान प्रकाश
मोक्ष के द्वार
जन हित में खोलें
हूँ बड़भागी
उनकी अर्धांगिनी
प्रेम पात्र बनी मैं!!
***** ***** *****
श्रुत कीर्ति अग्रवाल

शांति का मार्ग
हर तरफ बह रहीं खून की नदियाँ,
उफ्फ, ये करूण चीख़-पुकार!
हृदय को छलनी कर गया उसके,
विधवा-विकलांगों का हाहाकार!!
जीता कलिंग पर हार गया वह,
कहाँ खो गई विजय-हुंकार?
त्याग चला फिर अशोक सम्राट,
वो तीर-धनुष भाले तलवार।
अर्थ विहीन ये ताज-सिंहासन,
मन उद्विग्न, कुछ भी नहीं ठीक।
तभी सामने पड़े दिखाई,
गौतम बुद्ध शांति-करूणा के प्रतीक।।
अक्षुण्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई,
महेंद्र-संघमित्रा सी संतानों के संग।
फिर शिलालेखों पर अंकित कर गया, शांति मार्ग सबसे उत्तंग।।
कुछ भी बदले पर सत्य अटल यह,
हर युग के संदर्भ में।
शांति का ही संदेश छिपा है,
हर-एक धर्म के गर्भ में।।
मँहगा बहुत है दंभ-अभिमान,
बेमोल बिका करता है प्यार।
निश्छल मुस्कानें और सेवाभाव,
चलो खरीदें हम इस बार।।
वसुधा अपनी कुटुंब सरीखी,
किसी का मन ना क्लांत हो।
धरती आकाश समुंदर का क्रोध भी,
हे ईश्वर सब शांत हो,
हे ईश्वर सब शांत हो।।
***** ***** *****
अजेय जुगरान

बुद्ध के नाम पर धर्म-जाति घृणा के विरुद्ध
जो बुद्ध स्वयं सनातन में पलते
कभी ना स्वयं को बौद्ध ईश कहे
ज्ञान ध्यान मध्य मार्ग खोज गए
उनके ही नाम से घृणा पूर्ण शपथ
ये कौन सा मार्ग ये कौन सा पथ?
जिस बुद्ध को सनातन में रहते
जन-जन मन से भगवान कहे
नित प्रार्थना में उनका नाम जपे
उनके ही नाम से हिंसा पूर्ण शपथ
ये कौन सा मार्ग ये कौन सा पथ?
जिस बुद्ध को सनातनी भी भजते
हर भारती भक्त हरि अवतार कहे
धर हृदय उनका अष्टांग मार्ग चले
उनके नाम से क्यूँ अतिपूर्ण शपथ?
ये कौन सा मार्ग ये कौन सा पथ?
ये आज के अति प्रिय बोधहीन भिक्षुक
बिन बुद्ध मार्ग चले और बिन क्रोध तजे
धर्म जाति घृणा फैलाते सत्ता के इच्छुक
दे रहे राग-द्वेष शिक्षा-दीक्षा बुद्ध विरुद्ध
ये शठ विशुद्ध मद में करते बुद्धपथ अशुद्ध।
सरस दरबारी
***
महाभिनिष्क्रमण
आखिर चले ही गए तुम
हाँ बताया था तुमने
जीवन का ध्येय…
विश्व का उद्धार
बोध की पिपासा
बहुत से कारण थे
बस मैं ही नही थी…
पिछले जन्म से
चाहा था तुम्हें सुमेध
भद्रा बनकर वादा लिया था
अगले जन्म में साथ का
क्या खूब निभाया…
तेरह वर्षों की तपस्या
का प्रसाद था ‘राहुल’
उसका मोह भी न रोक सका
साथ दिवसीय प्रसूता को छोड़
चले गए थे, रोता, निरीह…
हाँ बताया था,
सुनाया था फरमान
जाना चाहते हो
लोक कल्याण के लिए
भला स्त्री की इच्छा का
कब रहा है मान..!
नही रोका था मैंने
तुम्हारी प्राथमिकताएँ
तै थीं
और हमारा
प्रारब्ध..!
तुम लौटे थे
छ वर्ष पश्चात
तुम ही आये थे मिलने
नही पखारे थे तुम्हारे चरण
क्योंकि
पूर्ण समर्पण और त्याग से उपजा
स्वाभिमान
अब भी शेष था
***** ***** *****
शैली, लखनऊ
***
निरपराध
रात्रि के इस तिमिर में क्यों
गृह-कपाट अधखुले पड़े,
शय्या की सिलवट कहती है
मेरे स्वामी बस अभी उठे
थी चकित, पादुका यहीं पड़ी
क्या प्रियवर नंगे पाँव चले?
हैं सेवक कहाँ, कहाँ दासी
थी कौन विवशता उत्पाती
किसने प्रिय को अकुलाया था
नंगे पाँवों दौड़ाया था?
हर कक्ष भवन का खोज लिया
स्वामी का दर्शन नहीं हुआ
व्याकुल आवाज लगाती थी
शिशु को गोदी में भी लिये हुए
उन्मत्त सदृश कुछ कहती थी।
हरकारे दीप जला कर के
चहुँ ओर गुहार लगाते थे
युवराज कहाँ हैं, कहाँ गये
गहरा अन्वेषण करते थे,
थे पिता विकल, माता रोती
पत्नी तो ठगी, मौन बैठी
था रुदन मूक आँखे सूजीं
वह विह्वल हृदय सोचती थी
संग मेरा नहीं सुहाता था
सौंदर्य नहीं मन भाता था
यदि पुत्र जन्म पर क्षोभ हुआ
पत्नी-सुत पर कुछ रोष हुआ
यदि इंगित भर तुम कर देते
पथ का ‘रोड़ा हूँ’, कह देते
क्षण भर न रुकती जीवन में
सब छोड़ चली जाती वन में
बच्चे को साथ लिये जाती
जिस विधि बनता समझा लेती
सीता ने जैसे त्याग किया
सुत सौंप, भूमि में धंँस जाती
मैं बंधन नहीं, सहचरी थी
हित चिंतन में, रत रहती थी
मन में यदि कोई संशय था
निष्ठा पर प्रश्नचिह्न यदि था
यों छिप कर तुम क्यों चले गये
सुत को अनाथ कर छोड़ गये?
अपनी उन्नति, अपनी मुक्ती
अपना निर्वाण, युक्ति अपनी
यह स्वार्थ नहीं तो फिर क्या है?
अन्याय नहीं तो यह क्या है?
था मन में यदि विराग पहले
लाये क्यों मुझे वरण करके
सम्भोग किया शिशु जन्माया
पति बन कर मुझको ठुकराया?
वंचक से भाग गये वन में
सोते में छोड़ गये ठग के
गृह-त्याग तार्किक और ध्रुव था
वैराग्य तुम्हारा यदि दृढ़ था
सुविचारित था संकल्प अगर
था कोई नहीं विकल्प अगर
दिन के प्रकाश में तुम जाते
कारण समझाते, तब जाते
बच्चे को पिता विहीन किया
मेरा सुहाग भी मेट दिया
सबसे जघन्य यह कृत्य किया
अपराध बिना ही दण्ड दिया
***** ***** *****
डॉ रुपाली गर्ग, मुंबई
***
महात्मा बुद्ध
महात्मा बुद्ध महान आत्मा,
अहिंसा के पुजारी,सत्य के साधक,
एक नए दृष्टि कोण से सीखा जीवन का मार्ग,
आत्म संयम और आत्मज्ञान के साथ है परमात्मा।
घृणा है विनाशकारी,
दुःखी होना है मानव जीवन का आचरण,
प्रसन्न होकर निभाएं हर संकल्प,
करुणा,विश्वास सुंदर जीवन के लिए है हितकारी।
आत्मा है सर्वज्ञ और आनंदमय,
अंदरुनी शक्ति नए आयाम दिखाएं,
क्रोघ, घमंड,लालच और नफरत
रहते दूर तो खुद पर करते हमेशा विजय।
महात्मा बुद्ध की कृपा से,
आदर्शों के मार्ग को अपनाकर,
हर जीव को सफल बनाकर,
अहिंसा को दूर करें जीवन से।
लीना शारदा, जकार्ता, इंडोनेशिया
***
गौतमबुद्ध : धनुषाकार पिरामिड
है
दूत
अहिंसा
तथागत
गौतमबुद्ध
संयम संदेश
बुद्ध पूर्णिमा जंम
नौवें है अवतार
तज राज सुख
चुना संन्यास
सत्य खोज
है भिक्षु
बौद्ध
जो
*****
चेतना भाटी, इंदौर
कहानी
स्वाभाविक रहो
उन्हें बागवानी का शौक रहा सदा से। तो वह अपने आसपास उपलब्ध संसाधनों से अपना काम करती रहतीं। विभिन्न खाली बोतलों-डिब्बों आदि से उनके गमले बन जाया करते थे, मिट्टी-रेत और दूसरी चीजों की व्यवस्था भी अपने आसपास से ही कर लिया करती थीं। बगीचे के लिए खाद भी गोबर का उपयोग करती या फिर अपने रसोई घर के कचरे से भी उनकी खाद तैयार हो जाया करती थी।
कीटनाशकों के लिए भी वे अपने पुराने तौर-तरीके ही अपनाया करती थी, जैसे की कभी राख का छिड़काव कर दिया या ऐसे ही प्याज-लहसुन पीसकर पानी में डाल कर रख दिया कुछ दिन और फिर पौधों पर स्प्रे कर दिया उसका पानी या फिर नीम की पत्तियों को पानी में उबाल कर ठंडा करके उस पानी को स्प्रे कर दिया और बन गया उनका कीटनाशक।
बच्चे यह सब देखते तो बड़ा मजाक बनाते माँ का- “अरे माँ, आप यह सब क्यों मेहनत करती रहती हैं। आजकल तो सब कुछ मिलता है ऑनलाइन। हम तो अपने घर में सब ऑनलाइन मंगा लेते हैं- गमले,मिट्टी,खाद और पौधे तक भी और फटाफट लगाकर सजा लेते हैं अपनी बालकनी। इतने बढ़िया-बढ़िया पौधे लगा रखे हैं हमने, बहुत सारे विदेशी पौधे हैं जो आपने कभी देखे भी नहीं होंगे। खाद भी ऐसी आती है आजकल की रात को डालो और सुबह यह बड़ा फूल हो जाता है। खाद की पेंसिल्स भी आती है, जिन्हें कि हम गमले में गाढ़ देते हैं तो रोज-रोज, बार-बार खाद डालने की झंझट भी खत्म हो जाती है। ऐसे ही कीटनाशक भी मिलते हैं एक से बढ़कर एक।”
उन्हें शाबाशी देते हुए मन ही मन सोचती वे- “आजकल के ये बच्चे और उसे पर इंटरनेट का तड़का! लेकिन ठीक है जैसी उनकी मर्जी। वे जैसे चाहे वैसे रहें उनका क्या? “
माँ अपना काम करती रहतीं। उन्होंने चुन-चुन कर वही साधारण सहज उपलब्ध पौधे लगाए थे अपने बगीचे में जो कि उनके आसपास ही मिल जाया करते थे और जिनकी साज- संभाल में भी कोई बहुत ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता था।
तो ऐसे ही खूब हरी-भरी हो गई थी उनकी अपनी बगिया। जिसमें वह जुटी रहतीं और बड़ी प्रसन्न मन रहतीं।
इस बार जब बच्चे आए छुट्टियों में घर पर, तो बहू बोली- “माँ आपका गार्डन कितना अच्छा है ना, हमारा तो पूरा खराब हो गया।”
“देखभाल करनी पड़ती है संभालना पड़ता है।”
“अरे हमने भी बहुत किया बहुत मेहनत की लेकिन वह नहीं बचा।”
इस सबके बीच उनका बेटा खामोश खड़ा हुआ सब सुन रहा था। जबकि वह पहले जब आता था तो कितने विदेशी पौधों के नाम और उनकी वैरायटी बताता रहता था।
उन्होंने इसे महसूस किया और बोली- “यही तो है बुद्ध की शिक्षा। आज बौद्ध पूर्णिमा है ना तो याद आ गई उन्हीं की दी हुई शिक्षा कि- जीवन को हमेशा सरलता- सहजता- जागरूकता से जिया जाना चाहिए। हमारे आसपास कितने छोटे-मोटे सुख बिखरे पड़े रहते हैं जिनकी और हमारा ध्यान नहीं जाता। हम बड़े और भव्य की ओर आकर्षित हो उन्हें ललचायी नजरों से देखते हैं,जो कि हमारे दुख का कारण होता है। क्योंकि अहंकार का यही आकर्षण है कि उसे छोटी-मोटी आसान बातें पसंद नहीं होती, उन्हें दुष्कर और बड़ी – महानता में ही रस आता है। जैसे कि तुम्हें लगता है हमारे पास तो पैसा है, तकनीकी है, ज्ञान है, तो हम तो कुछ भी कर सकते हैं तो इन छोटी-मोटी चीजों पर क्यों अपना समय बर्बाद करें? क्यों ना कुछ भव्य- बड़ा महान किया जाए? जबकि छोटे-छोटे एक-एक कदम से ही बड़ी ऊंचाइयों को बड़ी आसानी से खुशी-खुशी नापा जा सकता है।
शकुंतला मित्तल, गुरुग्राम
***
तू ही अपना दीपक बन
कभी कुछ न कहा उन्होंने ज़ोर से,
ना डराया, ना रुलाया किसी को।
बस देखा, और समझ लिया –
कि दुख, हर इंसान की कहानी है।
वो राजा थे, पर मोह त्याग दिया,
क्योंकि एक बूढ़ा, एक रोगी, और एक शव
पूछ बैठा ज़िंदगी से सवाल।
उत्तर था – मुक्ति भीतर है,
बाहर तो केवल भ्रम।
उन्होंने धर्म नहीं बाँटा,
संप्रदाय नहीं गढ़े,
उन्होंने कहा –
“हर कोई चल सकता है रास्ते पर,
अगर वह देख सके
कि रास्ता पैरों में नहीं,
अंतःकरण में है।”
न चमत्कार दिखाए,
न किसी ईश्वर का डर दिया,
बस समझाया –
कि करुणा, मौन, और संतुलन ही
सच्चा धर्म है।
जब दुनिया चीख रही थी शक्ति के लिए,
बुद्ध मुस्कुरा रहे थे
किसी पेड़ के नीचे,
जहाँ पत्तियों की सरसराहट में
शांति थी –
बिना किसी कीमत के।
संगीता चौबे पंखुड़ी, कुवैत

तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न बुद्ध
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न ! बुद्ध ।
थी पिपासा उर तुम्हारे इस जगत कल्याण की ।
चल दिए थे अर्ध -रात्रि खोज में निर्वाण की ।।
एक कोलाहल मचा था मन समंदर के तले ।
परिजनों को भी लगा पाए नहीं थे तुम गले ।।
जब तुम्हें करना पड़ा था स्वयं से ही युद्ध ।
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न ! बुद्ध ।।
पुत्र -पत्नी मोह से वंचित हुए थे तुम स्वयं ।
तज दिये तुमने गृहस्थी और अपने सब प्रियं ।।
तुम हुए खंडित कहीं से तोड़ने उस तार को ।
क्या सफल थे रोकने में भावना के ज्वार को ।।
क्या तुम्हारा कंठ उस पल था नहीं अवरुद्ध ।
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न ! बुद्ध ।।
वेदना की घाटियों में तुम विचरते ही रहे ।
इस जगत के शूल जैसे प्रश्न सब तुमने सहे ।।
क्षुब्ध होकर निर्जनों में जब अकेले तुम चले ।
पीर के बादल सघन सब अश्रुओं में थे ढले ।।
कटु उपालम्भों को सुन कर तुम नहीं थे क्रुद्ध ।
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न ! बुद्ध ।।
जग हितों में यंत्रणा का कटु गरल तुमने पिया ।
ध्यान संयम त्याग तप का आचरण जग को दिया ।
जब मिला निर्वाण तुमको पूजने यह जग लगा ।
सत्य के क्षिति पर परम संज्ञान का सूरज जगा ।।
युक्त होकर दिव्य आभा से हुए तुम शुद्ध ।
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न ! बुद्ध ।।
लीला तिवानी, नई दिल्ली
***
1. अपना दीपक आप बनो
दीप दिखाते राह जगत को,
हरते हैं अंधियारा,
अपने दीपक आप बनो तुम,
फैलेगा उजियारा।
कभी किसी पर आश्रित होकर,
किसने है यश पाया?
अपने पर विश्वास करे जो,
उसने संबल पाया।
कभी लता जो लिपट पेड़ से,
हरी-भरी रह पाती,
पेड़ गिरा तो लता लटककर,
सीधी भू पर आती।
लाखों तारे आसमान पर,
टिके स्वयं के बल पर,
पशु-पक्षी स्वच्छंद स्नेह से,
उड़ते नील गगन पर।
गौतम बुद्ध ने जीवन-धन को,
कैसे श्रेष्ठ बनाया?
अपना दीपक आप बने वो,
जग को भी चमकाया।
स्वरचित और मौलिक
*****
2. बुद्धं शरणम गच्छामि
लुंबिनी में शुद्धोधन-महामाया के घर, पुत्र सिद्धार्थ का जन्म हुआ,
लाल के तेजोमय मुख को देखकर, हर नर-नारी धन्य हुआ।
सातवें दिवस हुई मां की मृत्यु, मौसी गौतमी ने पाला,
दिव्य गुणों से भूषित थे वे, मोह-माया ने न भरमाया।
पत्नी यशोधरा-नवजात शिशु को, छोड़ रात्रि को गमन किया,
सत्य की खोज में अर्पित होकर, मोक्ष-प्राप्ति का जतन किया।
कई वर्षों की कठिन साधना, एक दिवस थी फलित हुई,
बोध गया में बोधि तरु तले, दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई।
पालनकर्ता मां गौतमी के नाम से, गौतम बुद्ध वे कहलाए,
अपने गौरवमय कठोर तप से, नए प्रतिमान वे गढ़ पाए।
शुक्ल तिथि वैशाख पूर्णिमा, जन्मदिवस गौतम बुद्ध का है,
उस दिन ही निर्वाण दिवस भी, बोध दिवस भी उस दिन है।
नमन कोटि शत महा संत को, असीम गौरवमी अनंत को,
बुद्धं शरणम गच्छामि, बौद्ध धर्म के हुए प्रवर्त्तक का।
स्वरचित और मौलिक
लीला तिवानी
नई दिल्ली
3. राहुल का खुला ख़त
कोटि नमन हे पूज्य पिताश्री,
पुत्र राहुल मैं पूछ रहा,
धर्मपत्नी-नवजात पुत्र को,
त्याग गमन किया कहो कहां?
खुला ख़त मैं लिख रहा जिससे,
शीर्घ्र ही वायरल हो जाए,
दुनिया के साथ ही शायद,
आप तक भी ये पहुंच पाए।
मैंने सुना है पिता पुत्र की
छत्रछाया है पालक है,
फिर क्या कारण कहो पिता से,
रहा दूर यह बालक है।
सबसे पहले पिता गोद ले,
बड़े प्यार से दुलारता है,
उसकी अपनी माता से,
जग से पहचान कराता है।
आपने ऐसा किया या नहीं,
उसका मुझे कोई गम नहीं,
लेकिन मेरी माता का दुःख,
इससे भी कोई कम नहीं!
बिना बताए आप रात्रि में,
हम दोनों को त्याग गए,
क्या इतना भी सोचा आपने,
दिए उन्हें कितने कष्ट नए!
क्या माता को बोल के जाते,
राह का रोड़ा बन जाती!
भारत की गौरवमई नारी,
उसमें गौरव ही पाती।
आप गए थे बोध-प्राप्ति को,
गृहस्थी में भी यह संभव था,
ऐसे बहुत प्रसंग हुए हैं,
आपके लिए यह मुश्किल था?
ख़ैर हुआ जो उसको भूलें,
आखिर पिता-पुत्र ही तो हैं,
हमें गर्व है खुद पर पिताश्री,
माता यशोधरा के पुत्र हैं,
गौतम बुद्ध के पुत्र हैं,
हम आपके ही पुत्र हैं।
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लता सिंघई, अमरावती
कहानी
सिद्धार्थ
घर पर कुछ विशेष मेहमान आनेवाले थे, मेहमानों के लिए मांसाहारी भोजन बनने वाला था। बाहर आँगन में खेलते खेलते आठ वर्षीय सिद्धार्थ को किसी पशु की चीत्कार सुनाई दी, उसने इधर उधर देखा कुछ नजर नहीं आया, दौड़कर घर के अंदर गया तो किचन के पिछवाड़े जा उसने देखा तो सिद्धार्थ की चीख निकल गई।
चारो ओर खून ही खून, मांस ही मांस नजर आया। सिद्धार्थ घबराकर भयभीत हो बाहर की ओर भागने लगा, भागते भागते किसी से टकराया। टकराने वाले ने सर पर हाथ रख प्यार से सहलाते हुए पूछा क्या बात है तुम इतना क्यो भयभीत हो? सिद्धार्थ कुछ देर उन्हें पकड़ यू ही खड़ा रहा! फिर सारी बात उसने विस्तार से बताई, और कहा मुझे घर नही जाना, में आपके साथ ही रहूंगा।
भिक्षुक ने हँसते हुए कहा— पहले अपने माता पिता से तो पूछ लो, क्या वे तुम्हारे बगैर रह पाएंगे?
मुझे नही पता, जहाँ मेहमानो को खुश करने के लिए, जीभ के स्वाद के लिए पशुओं को मारा जाता हो वहाँ मुझे नहीं रहना।
समझा -बुझाकर भिक्षुक (बोद्धय सन्यासी) ने सिद्धार्थ को घर पहूंचा दिया।
सिद्धार्थ के घर के पास बौद्ध लोगों का मठ था। अक्सर माँ के साथ जाता था।वहाँ विराजित भगवान बुद्ध की प्रतिमा देखता तो घंटो निहारता, घर जाने का उसका मन नही करता।उसके आकर्षण का कारण वह बुद्ध की शांत, मनोहारी प्रतिमा थी।
सिद्धार्थ स्वभाव से शांत, करुणामय पशु पक्षी से प्रेम करने वाला था। उसे मठ में आते भिक्षुक वहाँ विचरण करते पशु पक्षी अपनी और आकर्षित करते। माँ अक्सर भगवान बुद्ध की जीवन के बारे में कंहानी के रूप में बताया करती।
सिद्धार्थ घर तो आ गया, मगर वह अब अनमना गुमसुम सा रहने लगा।वह रोज उस संन्यासी को देखता, और भाग कर उनके पास जाता, एक ही बात कहता मुझे अपने साथ ले चलो।
सिद्धार्थ को उदास देख और उदासी का कारण जान माता पिता ने सिद्धार्थ के लिए मांसाहार छोड़ दिया, उससे कहा कि अब घर पर कभी मांसाहार नही बनेगा, पर सिद्धार्थ का मन तो घर से उचट गया था।
सिद्धार्थ अपने निर्णय पर कितना अटल है, देखने हेतु एक दिन संन्यासी ने उसे तेल से भरा कटोरा दिया और कहा कि घर के अंदर हर कमरे में इसे लेकर जाओ, पर एक बूंद तेल नहीं गिरना चाहिए। माता पिता को भी कुछ निर्देश दिए, बेटे को जो मोहित करे ऐसा घर सजाओ, घर को खूब सजाया गया, सिद्धार्थ की पसंद के खाने की महक आ रही थी, मनपसंद खिलौने भी उसके कमरे में रखे गए।
सिद्धार्थ ने अपने माता पिता और भिक्षुक के सामने शर्त रखी, कहा ठीक है अगर में इस परीक्षा में पास हो गया तो मुझे आप दीक्षा देंगे, आप दीक्षा लेने देंगे।
सिद्धार्थ सारे घर में तेल से लबालब भरे कटोरे को ले घुमा, मगर एक बूंद भी तेल नहीं गिराया, सारा ध्यान अपने लक्ष्य पर ही रहा। भिक्षुक एवं माता पिता समझ गए कि अब सिद्धार्थ को अपने लक्ष्य से भटकना संभव नही है, इस सत्य को जान ज्ञान के मार्ग पर चलने के लिए खुशी खुशी प्रेम से विदा कर दिया। भिक्षुक के साथ विदा करते समय किसी की आंखों में कुछ खोने की पीड़ा थी तो किसी की आंखों में ज्ञान पिपासा की चमक….।
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डेज़ी ग्रोवर

बुद्ध
शांत, तुम शीतल हो
आत्मज्ञानी, तुम भूतल (संसार) हो,
प्रेम, करुणा का सागर तुम,
जीवन रहस्यों की गागर तुम,
माध्यम मार्ग _ मार्ग दर्शक तुम,
आर्य सत्य_ प्रदर्शक तुम,
मीठी वाणी, मीठी दृष्टि,
निर्वाण प्राप्ति के साधक तुम,
तुम शुद्ध,तुम अवरुद्ध
केवल तुम प्रबुद्ध हो
हाँ तुम बुद्ध हो
हाँ तुम बुद्ध हो।
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आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर, उज्जैन
लघुकथा :
स्वधर्मे
अप्रैल माह खत्म होते ही मणि ने कैलेंडर का पृष्ठ बदला। कुछेक दिनों बाद बुद्ध पूर्णिमा की छुट्टी पर उसकी दृष्टि जा रुकी। बुद्ध शब्द खींचकर उसे कई-कई वर्ष पीछे अतीत में ले गया।
वे भी क्या दिन थे, जब स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में से बुद्ध और उनसे जुड़े प्रसंग अक्सर पढ़ाए जाते थे। एक छोटी कक्षा में तो डाकू अँगुलिमाल और बुद्ध की कथा भी थी। बुद्ध की शिक्षाएँ बड़ी प्रेरणास्पद हुआ करती थीं। वह कॉलेज में पहुँची तो एक विषय था – भारतीय षड्दर्शन, जिसमें सांख्य, वेदांत, जैन, बौद्ध आदि दर्शनों पर एक तुलनात्मक अध्ययन था।
विवाह के पश्चात महाराष्ट्र में रहते हुए अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वेरुल की बौद्ध गुफाएँ देख वह चकित रह गई थी। उसके नगर और आसपास के जिलों में अधिकांश जनसंख्या बौद्धधर्मीय थी।
ऐसे ही एक शाम चाय पीते-पीते मणि के मुख से निकला था, ‘मुझे बौद्ध धर्म बहुत अच्छा लगता है। इच्छा होती है, बौद्ध हो जाऊँ?’
सुनकर आमोद हतप्रभ रह गए थे। पूछ बैठे, ‘तुमने अपने धर्म को पूरी तरह से समझ लिया क्या?’
मणि निरुत्तर हो उनके मुख की ओर देखने लगी।
‘सुनो!’ आमोद ने एक गहन दृष्टि उसपर डालते हुए कहा था, ‘जिस धर्म में जन्म लिया है न, पहले अपने उस धर्म को पूरा समझ लो।’
कुछ क्षण विचारमग्न रहने के बाद उनका प्रश्न था, ‘गीता तो नियमित पढ़ती हो न?’
‘जी!’
‘श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या कहा था, भूल गईं? स्वधर्मे ..?’ आमोद की प्रश्नवाचक दृष्टि मणि को भेदने लगी।
मणि के मुख से अनायास निकल गया था, ”स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥’
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संपूर्ण पत्रिका संग्रहणीय है.
उत्तम संपादन और संपादित रचनाएं प्रशंसनीय.
संपादक एवं रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं
अत्तदीप भव!