
‘मानस’ में रामभक्त के मापदंड
प्रो.आलोक गुप्त, पूर्व प्रोफेसर, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी के सदाचार और भक्ति को अन्योन्याश्रित बताया है। वैसे तो इसमें कोई नवीनता नहीं लगती लेकिन तत्कालीन परिवेश में विविध पंथों, संप्रदायों में भक्ति की प्रतिष्ठा के संदर्भ में देखने पर इसकी गंभीरता को समझा जा सकता है। ज्ञानमार्ग, योगमार्ग और भक्तिमार्ग के अटपटे पंथों के बीच तुलसी ‘घोर नैराश्य’ के समय हिंदू जाति को दुराव, छिपाव से मुक्त राम भक्ति का सरल, सहज मार्ग दिखाते हैं इसके लिए सीधा मन, सीधे वचन और सीधे कार्य अपेक्षित हैं –
“सूने मन, सूने वचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुवर प्रेम प्रसूति।।“
‘रघुवर प्रेम प्रसूति’ के लिए सरलता, सहजता और निश्छल मन का बार-बार उल्लेख करते हैं। यह सच्चाई आज तो दुर्लभ है ही, उसे समय भी सहज सुलभ नहीं थी। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का यह अवलोकन उचित है कि ‘ जीवन में बढ़ते हुए पाखंड से वे विशेष व्यथित थे इसका निवारण कैसे हो इसी के प्रयास में तुलसीदास ने अपनी सारी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि राम का नाम लेने से, राम की कथा सुनने से, राम के शील स्वभाव का चिंतन करने से और राम की भक्ति करने से अंतःकरण में जो कुछ भी विकृतियों आ गई हैं वे अवश्य दूर होंगी।'(तुलसी की साधना, पृ. 106) इसलिए वे राम भक्त के लिए जहाँ अवसर मिलता है, मर्यादा, शील और सदाचार का उल्लेख करते हैं। यह अनायास नहीं था। मध्यकाल में राजनीतिक – सामाजिक परिस्थितियों में भारतीय समाज की विघटनकारी स्थिति के लिए वे शील, सदाचार और मर्यादा की दिशा दिखा रहे थे। राम वन गमन प्रसंग मानस और कवितावली दोनों में है। कवितावली का एक पद इस संदर्भ में देखा जा सकता है। राम, सीता और लक्ष्मण वन मार्ग में चले जा रहे हैं। ग्रामवासी उन्हें देखते हैं और उनकी स्थिति पर दुख व्यक्त करते हैं। इसी संदर्भ में ग्रामवधुओं के निरीक्षण और उनके पवित्र प्रेम को भी तुलसीदास ने पदबद्ध किया है। एक पद की पहली दो पंक्तियों में राम के रूप सौंदर्य का चित्रण है लेकिन उस रूप लावण्य से अधिक ग्रामवधुएं राम के प्रेम भाव से सीता को देखने पर मुग्ध हैं। राम की इस क्रिया के कारण राम उनके मन को मोहते हैं, अपने आकर्षक शरीर सौष्ठव मात्र से नहीं। उनके मन को सीता को प्रेम से देखना मोहता है। तुलसी एक ही पंक्ति में राम के सीता के प्रति प्रेम और ग्राम वधुओं के प्रेम की पवित्रता को भी व्यंजित कर देते हैं। ऐसे प्रसंगों और पंक्तियों से तुलसी का काव्य समृद्ध है –
“सीस जटा,उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौहैं।
तून, सरासन बान धरे, तुलसी बन मारग में सुठि सोबैं।।
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम, त्यौं हमरो मन मोहैं।
पुछति ग्राम बधू सिय सों ‘कहौ साँबरे से, सखि, राबरे को हैं?”
‘रामचरितमानस’ गोस्वामीजी की अन्यतम कृति है। व्यापक दृष्टिकोण, समाज, जीवन अनुभव की संपन्नता, राम के प्रति अनन्य भक्ति का यह ऐसा ग्रंथ है जिसने उत्तर भारत ही नहीं,भारतवर्ष के समस्त समाज को दिशा दृष्टि प्रदान की है। गोस्वामी जी ने राम कथा को आधार बनाकर अपने समय के समाज में फैले मत-मतांतरों, पाखंडों, मानवीय दुर्बलताओं को समझते हुए राम भक्ति के ऐसे मार्ग के अनुसरण के लिए दिशा संकेत किया जिसके लिए द्वंद मुक्त मन और सदाचार परम आवश्यक है। एक लोकनिष्ठ कवि के रूप में उन्होंने राम कथा को अपने व्यापक उद्देश्य (समाज हित एवं मूल्यों की प्रतिष्ठा) के लिए संशोधित किया, या कहें कि उतना ही अंश लिया जितना उस समय के योग्य था। लंका में रावण वध के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक और फिर वानरों, विभीषण एवं निषाद की विदाई के साथ मानस पूर्ण हो जाता है। राचरितमानस के वस्तु संघठन के पीछे की दूरदृष्टि, रचना पद्धति के साथ यदि अवांतर प्रसंग- कथाओं की हार माला के संगुफन पर दृष्टि डालें तो इस महाकवि के लोक से जुड़ाव के परिचय के प्रमाण सहज मिल जाएंगे। उदाहरण के लिए बालकांड का मंगलाचरण और वंदना को ले सकते हैं। गणेश, श्रीहरि, शिव, ब्रह्मा और गुरु की वंदना तो परंपरा में निहित है, वे गुरु के चरणों की धूल के महात्म्य को बताते हैं। कपास के समान आसक्तरहित संत जनों को वंदन करते हैं जिनके संसर्ग से दुष्ट जन भी सुधर जाते हैं। वे संत के साथ खल वंदना भी करते हैं। तर्क है कि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहचाने’ बिना गुण-दोष को जाने अनुकरण या त्याग संभव नहीं है। सत्संगति से विवेक जागृत होता है और संत -असंत की पहचान हो जाती है। उन्हें निंदकों- कुटिलों के स्वभाव का गहरा परिचय था इसके प्रमाण भी मिलते हैं। इसलिए वे दुष्ट जनों के परिहास को स्वाभाविक मानते हैं लेकिन उन्हें दृढ़ आस्था और विश्वास था कि संत प्रकृति के व्यक्तियों को यह कथा मधुर लगेगी। विनम्रतावश अपने को कवि की कोटि में नहीं रखते। स्वयं को काव्य तत्व से अनभिज्ञ कहते हैं लेकिन यह विश्वास है कि इस अज्ञानी की कथा निर्मल बुद्धि वाले अवश्य सुनेंगे –
“कवि न होउं न बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू।।
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
कबित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।
भनति मोर सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनहहिं सुमति जिन्हके बिमल बिबेक।। (बालकांड -9) “
मंगलाचरण और वंदना का प्रसंग जिस तरह से समायोजित किया गया है उसमें कवि की विनम्रता, मूल्य निष्ठा के साथ दुष्ट प्रकृति एवं मानव स्वभाव की गहन समझ स्पष्ट हो जाती है। इस सारे संदर्भ में ‘कबि न होउं न बचन प्रबीनू’ में विनम्रता से अधिक मंद गति व्यंग्य का पुट है, इसके पुनर्पाठ की आवश्यकता है। साँग रूपक की व्यंजना इस ओर ही संकेत करती है।
“कबि कोबिद अस हृदय बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी।।
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।सिर धुनि गिरा लगति पछिताना।।
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।
जौं बरषै बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकता मनि चारू।।“
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों ने तुलसी की समन्वयवादी दृष्टि की सराहना की है तो इसके साथ ही उनकी राम भक्ति की एकनिष्ठता और प्रगाढ़ता किसी तरह कम नहीं है। आराध्य देव के प्रति पूर्ण समर्पण और तन्मयता भक्त कवियों की विशिष्टता रही है। तुलसी का राम के प्रति निर्द्वंद्व समर्पण इसी प्रकार है –
“जाके प्रिय न राम बेदैही ।
तजिये ताहि कोटि बैर सम, जदपि परम सनेही।“
राम कह सकते हैं कि ‘सिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहि भावा’ और यह आराध्य देव की लीला भी है लेकिन तुलसी अपने आराध्य देव के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। उनके काव्य में चातक के प्रतीक का विपुल उपयोग इसका प्रमाण है। लेकिन जितनी सहज भक्ति मानी जाती है उतनी नहीं होती, वह प्रयत्नसाध्य है। तुलसीदास इसे स्पष्ट भी करते हैं। भक्त के सरल, सहज सदाचारी रूप को ग्रहण करने के लिए राम भक्त को भी अपने को अनुशासित करना होगा। कथा के बीच में तुलसी इसके लिए अवसर निकाल लेते हैं और खूबी यह है कि यह अतिरिक्त प्रकरण नहीं लगता। 14 वर्ष के वनवास के लिए सीता और लक्ष्मण सहित राम ऋषि के आश्रम पहुंचते हैं, उनसे विनम्रता से निवास योग्य स्थल पूछते हैं। अध्यात्म रामायण के प्रभाव में तुलसी में इस प्रसंग में अध्यात्म रंग चढ़ा दिया है।( योगेंद्र प्रताप सिंह, रामचरितमानस लोकभारती टीका, पृष्ठ 442) तुलसी साहित्य के अध्येता जानते हैं कि राम काव्य के लिए उन्होंने वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त अध्यात्म रामायण, महारामायण, श्रीमद्भागवत, हनुमन्नाटक एवं प्रसन्नराघव इत्यादि ग्रंथों से प्रेरणा ली थी। यह प्रसंग अध्यात्म रामायण से लिया है। राम के वाल्मीकि ऋषि से पूछने पर कि कहाँ रहूँ , ऋषि संकोच भाव से उत्तर देते हैं कि जहाँ आप नहीं हों वह स्थान बता दें तो मैं आपको स्थल बताता हूँ। राम की अनंत शक्ति और सामर्थ्य की व्यंजना करने पर भी प्रश्न का उत्तर तो देना ही होगा! वाल्मीकि उन्हें ऐसे ‘निकेत’ के बारे में बताते हैं जहाँ वे सीता और लक्ष्मण के साथ आनंदपूर्वक रह सकें। गोस्वामी जी के अनुसार वह स्थल भक्त का हृदय है। वे ऐसे भक्त के हृदय में निवास करने के लिए कहते हैं जिसमें वे भी सभी गुण विद्यमान है जिनके कारण वह प्रभु वत्सल बन सकता है। स्पष्ट है कि ऐसी भक्ति के लिए मनुष्य को अनुशासन सीखना होगा। वे प्रकारांतर से राम भक्त के लिए मापदंड रखते हैं। जिसमें मन, क्रम, वचन की एकता हो और यह सहज साध्य नहीं होती।
“जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ।।
तिन्ह कें हृदय सदन सुख दायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।
जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकताहल गुन गन चुनउ राम बसहु मन तासु।। “(अयोध्याकांड।। 128।।)
जिनके सागर रुपी श्रवण आपकी कथा रूपी नदियों से भरपूर हों तो भी परिपूर्ण नहीं हों ऐसे का हृदय ही आपका निवास स्थल हो सकता है। उसके नेत्र चातक की तरह आपके रूप बिंदु की अभिलाषा रखते हैं जो इसके लिए समुद्र, नदी और तालाब का भी निराधार कर देता है। आपके ब्रह्म रूपी राम -यश निर्मल मानसरोवर की भांति हैं और जिसकी जिह्वा हंस के समान है जो राम नाम रूपी मुक्ता- फल को ही निरंतर चुनता रहता है। स्पष्ट है कि गोस्वामी जी भक्त को उच्चभूमि पर प्रस्थापित करते हैं। पाखंडपूर्ण परिवेश में शील, सदाचारी, सतकर्म करने वाले ही राम भक्ति के योग्य हो सकते हैं। उपमा और रूपकों के उपयोग करते हुए वे ऐसी कसौटी प्रस्तुत करते हैं उस पर वही मनुष्य खरा उतर सकता है जिसकी नासिका प्रभु के पवित्र सुंदर सुगंधयुक्त प्रसाद का सेवन करती है, जो उनको अर्पण करके भोजन करता है और वस्त्र आभूषणों को उनका प्रसाद समझ कर धारण करता है। जो देवता, गुरु, ब्राह्मण को प्रणाम करता है, नित्य आपके चरणों को पखारता है और आपसे भी अधिक गुरु को महत्व देता है, ऐसे भक्त का हृदय आपके निवास के सर्वथा योग्य है। इन विविध कार्यकलापों तक तुलसी नहीं रुकते, जो इनके साथ असद् वृत्तियों को संयमित करने वाले को उसे राम भक्त के रूप में प्रतिष्ठा देते हैं-
“काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोबत सरन तुम्हारी ।।
तुम्हहिं छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषिहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहिं राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।
स्वामि सखा पितु मातु गुर, जुन्ह के सब तुम तात।
मन नंदुर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।“ (अयोध्याकांड।।130।।)
स्पष्ट है कि इस अवांतर प्रसंग को राम कथा में इस तरह गूंथा गया है कि वह स्वाभाविक अंग लगता है। एक बड़ा कवि काव्य की ऊँचाई तक तो ले ही जाता है, परोक्ष रूप से समाज के समक्ष भी आदर्श प्रस्तुत करता है। तुलसीदास की काव्य कला इस अर्थ में बेजोड़ है। जब- जब समाज में विश्रृंखलता दिखाई देगी, तब-तब ये मापदंड मनुष्य को सदाचारी और परोपकारी बनाने का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
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(समवेत अंक 24, जुलाई – दिसम्बर 2024 संपादक – डॉ नवीन नन्दवाना में प्रकाशित आलेख)