
– डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन
घाट
चल रहा हूं
नित्य मैं कांवर उठाए
ढो रहा हूं
नित्य प्यासे अंध तापस
जनक-जननी काल एवं कामना को
सामने लहरा रहा तालाब
जिसमें तृप्त होने को छलकती लालसाएं
और पक्का घाट
जिसपर पांव रखना
सीढ़ियां विश्वास की खुद ही बनाए
पर वहां दुश्मन छिपे हैं रक्तलोलुप
झाड़ियों में
शाप जिनको लग नहीं पाता
किसी प्यासे पथिक का
जा मिला परिवेश भी
चोरी छिपे हर धनुर्धर से
और पानी हो रहा बंदी उन्हीं का।
प्यास मेरी
और मेरे आश्रितों की
रक्त को पानी बनाने ठेलती है
घाट मानों जाल फैलाए हुए
बस सांस रोके
मुस्कराता आज मेरी अवशता पर
जानता वह
कुंभ भर जाने से पहले
जब जरा हुंकार लेगा,
चीख उसमें स्वर मिलाने के लिए
तत्क्षण बढ़ेगी।
और मेरा खून
पत्थर के लिए बूंदें गिराकर
जा मिलेगा दुश्मनों से,
फिर वहां कर्तव्य
मिट्टी से मिलेगा
अंध तापस की तृषा
हर चीख का संस्पर्श पाने
क्षार बन-बनकर उड़ेगी
तापसी रोती रहेगी।
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(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)