
डॉ. मंजु गुप्ता
पुरुष नहीं रोते
तुम रोती हो, हँसती हो, खुलकर अपनी बात कहती हो
तारसप्तक में, कोई बात पसंद न आने पर, गुस्सा करती हो,
खीजती हो, झल्लाती हो, बर्तन पटकती हो
अनंत तरीकों से जताती हो कि तुम्हें नहीं भायी यह बात
पैर पटक, गर्दन उठा, त्योरी चढ़ा, हाथ नचा
और मैं, पसंद- नापसंद जाहिर ही नहीं कर पाता
नहीं कह पाता मन के सहज मनोभाव
छोटी-छोटी बातें शेयर करना,आता ही नहीं मुझे, सीखा ही नहीं कभी
बड़ी-बड़ी समस्याएं सुलझाते-सुलझाते मैं यह सहज कला सीख ही नहीं पाया
न रो पाता हूँ खुलकर, न हँसता हूँ खिलकर
अच्छा- बुरा सारा जहर, भीतर ही भीतर पीता रहता हूँ
क्योंकि मैं पुरुष हूँ और पुरुष रोते नहीं औरतों की तरह
मेरा ब्लडप्रैशर बढ़ रहा है, बढ़ता ही जा रहा है
गुस्सा या नाराज़गी जताने पर, आँसू न निकलने देने पर
मेरा पूरा कंट्रोल है, पर यह रक्तचाप कमबख्त मेरे बस में नहीं
अचानक शूट कर जाता है
दवाइयों से भी बस में नहीं आता किसी तरह
काश हम पुरुष भी सीख पाते हँसना- रोना, गंवई औरतों की तरह
दुख- सुख को सहजता से अभिव्यक्त करना
लेकिन हमें तो सिखाया गया बचपन से, पुरुष नहीं रोते
औरतों की तरह टसुए बहाना शर्म की बात है
पुरुषों का रोना छिः लज्जा की बात है
रोते हुए पुरुष बिल्कुल अच्छे नहीं लगते, नामर्द कहीं के
धरती का रोना- धोना, आम बात है,उनका जन्म से शुरु हुआ रोना
भला कहाँ थमता है जीवन भर ?
तभी शायद इतना बोझ उठा पाती हैं
लचकती हैं पर टूटती नहीं पर,
जब आकाश बरसता है धुआँधार प्रलय आती है, खुद काल बरसता है
मेघ मल्हार, बूँदों की रेशमी छम-छम, झम- झम तो रूमानी बात है
किस्से कहानियों का रोमांस है वरना आकाश का रुदन
काल का करवट लेना है, युग- युग से संचित क्रोध का इज़हार है
मेघ बरसते नहीं, तभी तो ज्वालामुखी फटते हैं, दावानल दहकते हैं
और सहना सब धरती को ही होता है
अपना दुख तो अपना है ही पर तुम्हारा भी तो मेरा ही है
मुझसे अलग कहाँ ?
इसीलिए जब आए रोना रो लेना चाहिए
और हँसी को फूल –सा अधरों पर खिलने दीजिए
मुक्त उड़ने दीजिए तितली- सा
तभी आँसू बन जाते हैं तरल ओस बिंदु
और हँसी फूलों- सी खिलकर मंडराती है तितली- सी कली-कली, डाली- डाली
और गाने लगती है ज़िंदगी,मस्ती से झूमकर