डॉ. इंगीता चड्ढा (ठक्कर), ऑस्ट्रेलिया

वो जो मेरा मोहल्ला था

वो जो मेरा मोहल्ला था,
उसमें मेरा घर — “मनुस्मृति” था।
घर का कमरा भले ही छोटा था,
मगर खचाखच भरा रहता था…
सबके लिए जगह बना लेता था।
ना कोई अलग-अलग कमरे थे,
ना रसोई, ना ही पढ़ाई का कोना।
पर्दा खींचते ही बैठक,
शयन कक्ष बन जाया करता था।
वो कुछ और ज़माना था…
जब पड़ोसी,
आपका सबसे करीबी परिवार हुआ करता था,
और मोहल्ला ही —
हमारा पूरा पता,
हमारा पूरा संसार होता था।
हर घर से पहली रोटी —
किसी भूखे श्वान का निवाला बनती थी।
और कोई संत —
खाली हाथ नहीं लौटता था।
उस छोटे से कमरे में एक झूला झूलता था,
जो सुनता था —
अख़बार, राजनीति, शेयर बाज़ार की बात,
प्रेम कहानियाँ, सास-बहू की तकरारें,
और कभी-कभी — लोरी भी।
साथी बनकर वो झूला —
हमारे संग खेलता, हँसता, रोता,
और सपने भी देखा करता था।
उस कमरे में एक गोदरेज का फ्रिज होता था,
जो गर्मी में पूरे मोहल्ले को बर्फ़ बाँटता था।
पड़ोसी उसमें बचा हुआ पकवान रख जाते थे…
और छोटू — हलवा चुराकर खा जाता था!
पूरे मोहल्ले में एक ही टेलीफोन हुआ करता था,
घंटी बजती —
और छोटू माया को बुलाने दौड़ता।
कभी कोई बात किसी से छुपती नहीं थी —
चाहे ख़ुशी हो या ग़म…
सब मिल बाँटकर जिए जाते थे।
पड़ोसी की बेटी की शादी होती —
तो पूरा मोहल्ला बाराती बन जाता था।
कहीं मेहंदी, कहीं हलवाई की दावत,
कहीं ढोल, कहीं नाच।
हर घर
मेहमान के स्वागत की तैयारी करता था।
दूरदर्शन पर चित्रहार आता था,
या फिर — क्रिकेट का मैच।
यार-दोस्तों से पूरा माहौल गूंज उठता था।
Fiat मोटरकार में
१०-१२ लोग मज़े से ठसाठस भर जाते थे,
कुछ डिक्की में,
तो कुछ गोद में समा ही जाते थे।
गर्मी की छुट्टियों में
सब ननिहाल जाते थे —
एक छोटी-सी अटेची में
सबका सामान भर जाता था,
और फिर भी चाची का सम्पेत्रु ,
कहीं न कहीं घुस ही जाता था।
आलु- पूरी, अंताक्षरी, के साथ,
रेलगाड़ी सफ़र यादगार बनता था।
आलू-पूरी, अंताक्षरी, और पंखा,
नर्मदा नदी में सिक्का डालकर,
ना जाने कितनी दुआएँ माँगते थे।
अनजान सहयात्री से ऐसे मिलते,
जैसे कोई बिछड़ा यार मिल गया हो।
“राम-राम!” कहते
उनका पता भी जान लेते थे,
और जब स्टेशन छूटता —
यूँ लगता,
जैसे कोई अपना छूट रहा हो…
सारी फैमिली नानी से कहानी सुनती,
चार-छह गद्दों पर सब भाई-बंधु सो जाते,
और फिर भी —
कुछ और टब्बर कंबल में समा ही जाते थे।
वो कुछ और ज़माना था…
चाहे कमरा हो या तस्वीर,
पूरा परिवार एक साथ समा जाता था।
ना कोई अकेलापन,
ना कोई सूना कोना,
हर दीवार,
अपनेपन से खचाखच भरी रहती थी।

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