डॉ. इंगीता चड्ढा (ठक्कर), ऑस्ट्रेलिया

मन कहता है

मन कहता है.
एक कहानी लिखूँ।
ना कोई मोहब्बत की दास्तान,
ना ही प्रकृति के रंगों की कहानी।
ये है समाज में सड़न की तरह फैली हुई
रंगभेद की कड़वी सच्चाई की कहानी।
मेरी साँवली सलोनी सहेली कहती मुझसे:
“मैं बदक़िस्मत हूँ,
मेरा काला रंग ही मेरी परेशानी है।”
वो हैरान है!
कि तिरस्कार की सज़ा तो मिली है,
पर उसने तो कोई गुनाह ही नहीं किया।
जब उसकी माँ भी कहती है:
“वो कोयले-सी काली है,
काश रूई की गोली-सी पैदा होती!”
तो वो चुप रह जाती है,
क्योंकि ये भी तो कुदरत की मेहरबानी है।
वो कहती है:
हर कोई उसे समझाता है,
“Fair & Lovely खरीद लो,
पाउडर या लिपस्टिक लगा लो,”
पर नहीं जाता उस ‘काली मिट्टी’ जैसा रंग।
दुकानदार भी कहते हैं:
“रंग-बिरंगे कपड़े या आभूषण,
काले रंग पर अच्छे नहीं लगते।”
गली के छोकरे हँसते हैं:
“काली तो होती है नौकरानी,
उसे रानी कैसे बनाए कोई?”
मेरी साँवली सलोनी सहेली कहती मुझसे:
“मेरे हुनर को कोई नहीं पहचानता,
ना मेरी काबिलियत को कोई देखता है।
बेलगाम समाज बस गोरे रंग को सहलाता है।”
और अब,
मैं — उसकी गोरी सहेली,
कुछ कहना चाहती हूँ।
मैं भी इस ‘गोरी चमड़ी’ के कलंक को
मिटाना चाहती हूँ।
दिल में कई हसरतें लिए
मैं भी ऐसे ही दमनकारी रास्तों से गुज़री हूँ।
हाँ, मैं गोरी हूँ!
इसलिए शायद सुंदर भी कहलाती हूँ।
पर प्यार के लिए मैं भी तरसती हूँ।
आईने में खुद को देखकर इतराती भी हूँ,
मगर सच्चाई से घबराती हूँ।
बेशर्म समाज की भूखी नज़रों से
मैं भी रोज़ भागती हूँ।
तेरा और मेरा हर अंग एक सा,
खून का रंग भी एक सा लाल।
तो फिर ये काले और सफेद के भेद की
बीमारी कब जाएगी?
मन कहता है,
सखी, अब साथ-साथ चलते हैं।
रंगभेद की दीवारें तोड़ते हैं।
संसार में एक नई रौशनी लाते हैं।
अब सिर्फ़ इंसानियत के रंग में ढल जाते हैं।

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