
डॉ. इंगीता चड्ढा (ठक्कर), ऑस्ट्रेलिया
बाबा की साइकिल की कहानी
बाबा की साइकिल की कहानी
बचपन की वो यादें सुहानी,
कितनी खूबसूरत सी —
बाबा की साइकिल की कहानी।
मेरे बाबा की दो चीजें थीं बड़ी प्यारी,
ज़िंदगी की साइकिल की समझदारी
और उनकी साइकिल की सवारी।
बाबा की साइकिल पे बैठती जब उनकी दुलारी,
तब गली-गली फिरती साइकिल की सवारी।
कभी ट्यूशन, तो कभी पाठशाला पहुंचाती,
कभी बाज़ार, तो कभी मेले में घुमाती।
कभी बाग में सखियों संग गीत गाते,
कभी नानी से परियों की कहानी सुनाते —
बड़ी खूबसूरत सी थी बाबा की साइकिल की कहानी।
जवानी की वो बातें थीं निराली,
सालगिरह पर तोहफे में मिली मुझे साइकिल प्यारी।
बाबा की साइकिल से उतरकर अब अपनी साइकिल पर मैं इतराती,
“संभलकर चलना बेटा”, कहते —
बाबा की आंखें भी भर आती।
सजती-संवरती, साथी बन साइकिल मन को लुभाती,
“ट्रिंग ट्रिंग” घंटियां बजाती, ज़िंदगानी के फलसफे दोहराती।
जब बार-बार गिरकर फिर उठ जाती,
तब गिरकर भी संभलने का सबक साइकिल ही सिखलाती।
जब मन चाहे, जहां मर्जी हो — साइकिल मेरी रुक जाती,
तब स्वतंत्रता का आनंद भी तो साइकिल ही कराती।
जब पैडल मार-मारकर थक मैं जाती,
तब कसरत का महत्त्व भी साइकिल ही बतलाती।
जब भागती-थकती मैं मंज़िल तक पहुंचती,
तब मेहनत और सफलता का रिश्ता साइकिल ही समझाती।
जब सिर्फ हवा भरकर साइकिल चलती रहती,
तब पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने की सीख भी वही देती।
जब कभी मैं साइकिल की मरम्मत करवाती,
तब नियमितता और संतुलन की आवश्यकता साइकिल ही तो समझाती।
तो क्या हुआ बाबा,
अब साइकिल थोड़ी हो गई पुरानी,
अब अपनी संतान को दूंगी मैं ये अनमोल निशानी।
अब जब बच्चों की साइकिल की “ट्रिंग ट्रिंग” बजती,
तब बाबा की फिकर का गूढ़ अर्थ भी साइकिल ही समझाती।
“बेटा, साइकिल संभलकर चलाना…”
बाबा की कांपती आवाज़ सुनकर तब मैं हंसती,
पर अब…
“बच्चों, ज़िंदगी की साइकिल संभल के चलाना…”
ये कहते हुए,
अब मेरी भी आंखें भर आती।
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