
डॉ. इंगीता चड्ढा (ठक्कर), ऑस्ट्रेलिया
बेशुमार दर्द
खंडहर के सन्नाटे… कुछ बोल रहे हैं,
जुगनू बनकर रिश्ते… छलक रहे हैं।
गूँजती थी जो बांसुरी,
उसी राग को अब मन खोज रहा है,
रीते-रीते कमरे…
मौन से दोस्ती करना सीख रहे हैं।
नादान दिल, ख़्वाहिशों के सिलसिले दोहरा रहा है,
खुशरंग ख़्वाब… सच्चाई से हारते जा रहे हैं।
इंतज़ार करते-करते
अश्क़ अब लहू-लुहान हो चले हैं,
साँसों की भीख माँगकर
हम ज़िंदगी के गुनहगार बनते जा रहे हैं।
थी कमी वक़्त की…
या इरादे ही कमज़ोर थे?
इसी सोच में मन अब भी व्यथित है।
न समझ पाए,
वो साथ था… या बस एक भ्रम पलता रहा?
पर इस दिल को…
अब बस बेशुमार दर्द मिलता रहा।
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