डॉ. इंगीता चड्ढा (ठक्कर), ऑस्ट्रेलिया

चाय नहीं तो चाह नहीं

मेरा घरोंदा… और मेरी चाय,
कितना मदहोश नशा है ये।
चलो फिर,
उगते और डूबते सूरज के साथ
चाय पीते हैं।
रिमझिम बारिश,
और तेरा मादक ख़याल,
शायद तभी तो,
अकेले चाय पीना भी,
अकेलापन नहीं लगता।
दोस्त,
तेरे वादों की गूंज को,
मैंने चाय की दावत भेजी है,
अगर मिल बैठें साथ,
तो महफ़िल भी हो सकती है।
जब भी रूठे,
तो कह दिया,
“बेवफ़ा चाँद को,
अब कभी नहीं पीएँगे चाय।”
पर जब चाँदनी लाई तुम्हारा संदेश —
तो दिल ने बग़ावत कर ली!
लो फिर…
बहते चले चाय पर
नए-पुराने क़िस्से।
हम कहते चले,
वो सुना-अनसुना करते गए।
उबाल दिया नाराज़गी का पानी,
मिला दी ख़ुशियों की चीनी,
अदरक की ख़ुशबू और
मौसम का असर भी है।
बदमाश अदाएँ तो
इस चायपत्ती की हैं!
ज़रा दूध क्या मिलाया,
शरमा कर लाल हो गई है!
इंगी,
ये है ज़िंदगी की वो ख़ूबसूरत चाय,
कभी नरम, कभी गरम!
बस हर चुस्की में
एक नई कहानी,
एक नया मज़ा…
चलते चलते,
पिलाती चलती है।

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