अनुभौ उतरयो पार!

डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम

कबीर का जीवन ही दर्शन पर आधारित था। उन्होंने जो देखा, उसी को कहा। किसी किताब-विताब के चक़्कर में नहीं रहे। कहते हैं, वे जन्म से ब्राह्मण थे; किंतु ब्राह्मणों में जो जातिगत श्रेष्ठता का नुकीला अहंकार था, उस पर निरंतर शर – वर्षा करते रहे। उन्होंने कटाक्ष किया —

जे तू बाहमन बमनी जाया।
आन बाट ते क्यूँ न आया?

यदि तू स्वयं को जन्म से श्रेष्ठ मानता है तो बता कि तू भी दुनिया में उसी रास्ते से क्यों आया? किसी और पवित्र रास्ते से क्यूँ नहीं आया? तू जन्मजात महान कैसे हुआ??
प्रश्न सुनकर बड़े-से-बड़े अहंकारी ब्राह्मण धूल झाड़ कर अपने रास्ते चल देते थे।

कबीर पले एक मुस्लिम घर में। पर वहाँ भी किसी महानता के दर्शन नहीं हुए। हाँ, तत्कालीन मुसलमानों में तुर्क होने का अहंकार बहुत स्फीत था। अतः कबीर ने स्वयं को महान तुर्क समझने वालों पर भी उसी निर्ममता से प्रहार किया —

जे तू तुरक तुरकिनी जाया।
भीतर खतना क्यूँ न कराया?

माना तू तुर्क और तुर्कनी की संतान है, पर यह बता कि अगर जन्म के कारण ही तू महान है तो तूने संसार में आने के बाद खतना क्यों करवाया? कोख के भीतर ही खतना कराकर क्यों नहीं आया?

अब कौन उत्तर दे? क्या उत्तर दे? कबीर का तो यही प्रत्यक्ष दर्शन था। जब अपनी आँखें हैं और उन पर भरपूर विश्वास है तो और किसी का सहारा क्यों लें? दूसरों से पूछने क्यों जाएँ? उनके अनुभवों पर विश्वास क्यों करें? उन्हें समझ आया कि सच वही है हो आँखों से दीख रहा है। पुस्तकों में लिखा सत्य क्यों मानें? पता नहीं, उनके पीछे कोई सत्य है भी या नहीं! फिर पुस्तक दूसरे का अनुभव है, तुम्हारी अपनी अनुभूति नहीं। लोगों ने ग्रन्थ रट डाले। फिर भी उलझे-उलझे हैं। कहीं कोई सार नहीं। इसीलिए उन्होंने कहा —
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आख़र प्रेम के पढ़े सो पंडित होय।

जो बात बड़े-बड़े पोथे नहीं समझा सके, वह प्रेम की एक अनुभूति ने समझा दी। अतः उन्होंने अपनी अनुभूति को सत्य माना और खुलकर कहा — अनुभो उतरयो पार।

कोई अपना नहीं। केवल अपने द्वारा जाना हुआ सत्य ही अपना है। सत्य भी वह, जो निर्मम है। कबीर पहले नाथपंथी साधुओं के संपर्क में आए। उनका अक्खड़पना, उनकी मारकता, उनके निर्मम व्यंग्य नाथ परम्परा की देन हैं। वे जो उलटबांसियाँ लिखते हैं; इड़ा, इंगला पिंगला की बात करते हैं, सब नाथ परम्परा की देन हैं। परन्तु उन्हें आनंद नहीं मिला। जीवन-सत्य नहीं मिला। सब कागज़ी-कागज़ी रहा। चित्त में स्पंदन नहीं उठा। अतः लिखा —
तू कहता कागद की लेखी।
हौँ कहता आँखिन की देखी।
तू कहता उरझावन हारी
मैं राख्यो सुरझाई रे!

उन्हें प्रतीत हुआ कि सद्गुरु के बिना गति नहीं है। इसलिए वे सद्गुरु को ईश्वर से भी उच्च और महान मानते हैं। वे लिखते हैं —
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो मिलाय।

कबीर जब वैष्णव साधना के संपर्क में आए, तो उन्हें आत्मा-परमात्मा के अभिन्न संबंधों का रहस्य समझ आया। तब समझ आया —

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे कूँ सोभा नहिं देख्या हि परमान।।

और यह भी समझ आया कि परमात्मा को पाने का माध्यम उसके साथ अभेद सम्बन्ध है। उसमें मिल जाना है। विराट में स्वयं को लीन करना है –
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।

परन्तु उस परब्रह्म को पाने का उपाय क्या है? आत्मज्ञान का उपाय क्या है? उसका उपाय है — अपने अहं को मिटाना और उस परम अस्तित्व में मिल जाना। उन्होंने लिखा —
जब मैं था, तब हरि नहीं,अब हरि है, मैं नाहीं।
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या मांहीं।

परन्तु अहंकार नष्ट कैसे हो? उसका एक ही उपाय है — परम सत्ता पर विश्वास। उससे अपने अभिन्न सम्बन्ध का बोध। यह बोध कि हम उसी जल से भरे घट हैं जो जल संसार-समुद्र में व्याप्त है —
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ, जल जल ही समानो, यह तथ कथयो ज्ञानी।

आत्मा-परमात्मा के बोध मात्र से परमात्मा नहीं मिलते। उसके लिए आत्मा को समर्पण करना पड़ता है। उसे पाने के लिए विरह की वेदना में गलना पड़ता है। वे कहते हैं —
हँस हँस कंत न पाइए, जिन पाया तिन रोय।
जे हाँसे ही हरि मिले, नहिं दुहागिन होय।
इसलिए कबीर की आत्मा तड़पती है —
कै बिरहिन को मीचू दे, कै आपा दिखलाय।
आठ पहर का दाँझना मोपे सहा न जाय।

इसी विरह में से, समर्पित प्रेम में से प्रभु- मिलन की राह निकलती है। कबीर के मुख में से सदा राम नाम निकलता है। वे कहते हैं —
मैं तो राम की दुल्हनिया रे!
दुल्हनिया इसलिए कि उसके हृदय में समर्पण है, लय और लीन होने की भावना है। आप इसे भक्ति कह लें, प्रेम कह लें। उसमें लौकिकता की गंध भी नहीं है। प्रतीक और उपमान अवश्य सांसारिक हैं, किंतु यात्रा और गंतव्य आध्यात्मिक है। यहाँ तक कि उनके राम भी दशरथ सुत राम न होकर निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं। इसलिए कबीर को निर्गुणिया संत कहा जाता है ।

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