– अनिल वर्मा, ऑस्ट्रेलिया

कब तक ?

कल तक आँख में चुभन थी
आज देखता हूँ यहाँ नज़ारा ही बदला है

सोचता हूँ
प्रकृति ने दोनों आँखें आगे लगायी हैं ताकि कदम आगे चलें
तो चल कर देखूँ
बदलाव की छाती में बद-अलाव है, बदलाव है या बदला है

ताकतवर के हाथ में इतिहास अट्टहास करता है
और अतीत के मलबे में दबा मृतप्राय सच
मिथक और मिथ्या पर पलते इतिहास का
उपहास करता है

कब तक पीछे देखते हुए हम आगे चलेंगे
कब तक अपनी कुण्ठित भावनाओं को तर्क से छलेंगे
कब तक धर्म के नाम पर कोंपल जलाएँगे
कब तक वादों में,
वादों – विवादों – अपवादों में उलझ कर
घृणा की खाद से फसल उगाएँगे
कब तक अतीत की कलम से भविष्य लिख पाएँगे
कब तक फ़ॉल्टलाइंस पर हम बस्तियाँ बसाएँगे

कब तक ?
आख़िर कब तक?

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