(मैथिली कविता एवं उसका हिन्दी अनुवाद – आराधना झा श्रीवास्तव)
ज्यों जहाज का पंछी
अपने पंखों से माप देता है सागर
पर संध्याकाल में लौट आता है
पुन: उसी जहाज पर
वैसे ही मेरे मन का पंछी
सरहदों की सैर कर
दिन ढलते ही लौट आता है
अपने घर-आँगन के
कदंब गाछ की फुनगी पर
जिसकी जड़ के पास
माँ रख जाती है एक दिया।
उस दिये में रखी है
प्रतीक्षा की बाती
नेह की तरलता पीकर
जिसमें जल उठती है
उम्मीद की लौ
उस लौ में दिख जाते हैं
माँ के सजल नेत्र
जो तरस रहे हैं निहारने को
अपने प्रवासी संतान का मुख
इस क्षण का मोल
समझती है प्रवासी संतान भी
जिसने बरसों से नहीं देखा
सम्मुख, प्रत्यक्ष और सजीव
अपना घर-आँगन
दरवाज़े की ओट में खड़ी
टकटकी लगाए द्वार को
निहारती ममतामयी माँ।
माँ की लाल-पीली आँखों से
बहने लगती है वेदना की धार
जिस धार के पार बैठे बाबूजी ने
बाँध रखी है आस की एक गठरी
जिससे मटर के दानों सा
ढुलक रहा उनका मोह और ममता
जिसे सबसे छिपाए बैठे हैं
निस्पृह लगने के उपक्रम में
पढ़ने लगते हैं कल्याण पत्रिका
जिसके पहले पन्ने पर ही
पिछले दो घंटों से
जमी हुई है उनकी दृष्टि
कान धरा हुआ है
घर के पास से गुज़रने वाली
उस कच्ची सड़क की ओर
जहाँ से आती-जाती
गाड़ियों की चिल्लपों में
सुनाई पड़ जाती है
रिक्शे के खड़खड़ाने की आवाज़
जिसकी मंद पड़ती गति से
उनके धुँधलाते नेत्रों में
आ जाती है जुगनू सी चमक
हृदय में उठने लगता है
भावनाओं का हिलोर
ये सोच कि घर लौट आई है
उनकी प्रवासी संतान
किंतु घर की ड्योढ़ी पर
बिना सवारी को उतारे हुए
गुज़र जाता है रिक्शा
जिसका निर्मोही टायर
निर्ममता से फोड़ देता है
उनकी आस का नारियल
जिसमें से बहने लगती है
उनके मन की पीड़ा
जिसे साँझ की चाय के साथ
घूँट-घूँट पीने लगते हैं बाबूजी
जैसे नोर-झोर हो माँ पी लेती है
बिना नमक सादे चावल का पानी
प्रवासी संतान की प्रतीक्षा में
युग जैसे बीत रहे हैं उनके दिन
और एक दिन रिक्शा आकर
रुक जाता है उनकी ड्योढ़ी पर
खड़खड़ाना छोड़ उतार देता है
अपनी सीट पर सवार
उनके कलेजे के टुकड़े को
जिसके आने की आस में
द्वार के कपाट बन
प्रतीक्षारत हैं दोनों प्राणी
प्रतीक्षा तो प्रवासी संतान को भी थी
अपने जहाज पर पुन: लौटने की
जैसे प्रतीक्षारत था
कदंब की फुनगी पर बैठा
मन का वह आकुल पंछी
अपने घोंसले में डैने पसारने को।
