– विनोद पाराशर

तुम्हारी नज़र में

तुम्हारी नज़र में
जो मैं हूँ
वो मैं नहीं हूँ।
जो मैं नहीं हूँ
दरअसल-
मैं वही हूँ।
मेरा
-मुस्कराता चेहरा
-शानदार पोशाक
-चमचमाते जूते
देखकर-
जो तुम समझ रहो हो
वो मैं नहीं हूँ।
जो मैं नहीं हूँ
दरअसल-
मैं वही हूँ।
जानना चाहते हो-मुझे!
झाँको-इन सुर्ख आँखों में!
जागो-स्याह रातों में!
पढ़ो-मेरे अंतर्मन को!
सुनो-अंदर के क्रंदन को!
मत देखो-सिर्फ़ इस तन को!
दरअसल-
तुम्हारी नज़र में
जो मैं हूँ
वह मैं नहीं हूँ
जो मैं नहीं हूँ
मैं वही हूँ।

***** ***** *****

One thought on “तुम्हारी नज़र में – (कविता)”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »