मृणाल शर्मा

चिड़ियों को दाना

मै चिड़ियों को दाना,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
यह जबरन झरोखों से,
भीतर घुस आती है
अलमारियों के पीछे
पंखे के ऊपर घोंसले बनाती है
टूटते परिवारों के बीच
अपने परिवार जोड़ती जाती है
मै चिड़ियों को दाना ,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
यह बहुत शोर मचाती है।

अजीब सी कुटुंब प्रेमी
और जुड़ी होती है अपनों से
मै एक को दूँ दाना ,
तो फुर्र से झट पट
सारे कुटुंब में कह आती है ,
फिर घर के , छत के वे कोने ,
जिन्हे कब का भूल चूका हूँ
यह ढूंढ लेती है
दुर्गम और निरस जगहों पर भी
घोंसला बना लेती है
मै चिड़ियों को दाना ,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
यह चूजों को दुलार कर मुझे चिढ़ाती है।

सूखे तिनके, छोटे पंख,
विष्टा , दाने , बिन मांगी चहक ,
सब बिखेरती रहती है
मेरे अख़बार चूसने के समय
अपना नीड संवारती रहती है
चुपचाप , नियम से बंधे ,
और लुड़कते – लुड़कते जीने वालों को ,
चिड़ियाँ तंग कर देती है
मै चिड़ियों को दाना ,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
चिड़ियाँ मौन भंग कर देते है।

ईर्ष्या तो होगी ही,
यह स्वछंदता को पी कर दिनभर,
अपने नीड लौट आती है
इसको बड़ा बरगद नहीं ललचाता
क्या कोई बगीचा नहीं रोचता ?
रोज़ वही अलमारियों के पीछे
पंखे के ऊपर घोंसलों में
फिर लौट आती है
कहती है नीड़ की खुशबू अलग है।
मै चिड़ियों को दाना,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
हमारी लालसायें तो विलग है।

मेरे दिए चुग्गों को
छिप कर खाती है
जैसे आत्मा निर्भरता का दर्पण
मुझे दिखाती है
मुट्ठी भर बिखेरूँ तो चोंच भर उठाती है
लापरवाह, भंडारण नहीं जानती ?
या मुझे लोभी बतलाती है
भूख में भी सुरीली चहक बिखेरती है
मै चिड़ियों को दाना,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
यह मेरे भीतर का आदमी उकेरती है।

एक चिड़िया दूसरी का
घोंसला नहीं तोड़ती
अपना टूटे तो नया बनने तक
हौसला नहीं छोड़ती
कलह और मनमुटाव से अनजान
इसे सामाजिकता का बोध-नहीं
दूसरों से बेहतर बनने का
इसका अपना कोई शोध नहीं
हर जगह अनचाहा प्रेम घोलती है,
मैं चिड़ियों को दाना,
पीने को पानी क्यों दूँ ?
यह हर वक्त मीठा बोलती है।

इसलिए ही हम सबने
वन-बगीचे उजाड़े,
छज्जों से झूलते घोंसले उखाड़े
बंद कर दिया दाना-पानी
चहक खुद-ब-खुद मर रही है
चिड़ियाँ धीरे-धीरे प्रकृति से
पुस्तकों में उतर रही है।

***** ***** *****

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »