– मृणाल शर्मा, ऑसट्रेलिया

दोपहर की अकेली पगडंडी

वह दोपहर की एक अकेली पगडंडी,
जो मेरे घर के ठीक पीछे निकलती है,
न जाने कहाँ जाती है ?
बेखौफ उन झाड़ियों में खो जाती है।
मै रोज़ अपने कमरे की खिड़की से,
उसे देखा करता, पीछा करता
घर के पिछवाडे से उन झाड़ियों तक,
पर वह जैसे किसी नियम से बँधी,
रोज ओझल हो जाती है,
न जानें वह अकेली पगडंडी कहाँ जाती है।
कभी कोई राहगीर न दिखा उस संग,
दिखे नहीं चौपाये भी कभी,
फिर भी उसने अपने पर,
अकेलेपन की खरपतवार जमने नहीं दी,
बचाऐ रखा है अपने वजूद को,
न जाने किसके लिये अब तक।
पूस के घने कोहरे को सहती अकेली,
वह बारिश में भीगती है अकेली,
धूप में सूखती है अकेली ही,
फिर भी क्यों कभी नीरस नजर नही आती ?
क्या किसी के आने का वादा है,
जो रखता है उसे ताज़ा-तरीन,
या झाड़ियों के उस ओर,
कुछ है ऐसा जिसके लिए,
यह रोज़ एक वेग से, बिन रूके,
बही चली जा रही है,
वह दोपहर की एक अकेली पगडंडी,
जो मेरे घर के ठीक पीछे निकलती है,
न जाने कहाँ जाती है।

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