घर के अहाते में क़दम रखते ही गुड्डी की नज़र बरामदे में टंगे हुए डंडों पर झूलते नए पर्दों पर गई । प्रतिदिन की तरह विद्यालय से लौटते ही वह सीधे आँगने से सटे बाहर वाले गुसलख़ाने की ओर गई, नए तौलिए को टंगा हुआ देखकर उसने अनुमान लगा लिया कि संभवत: आज घर में अतिथि देवता का आगमन होने वाला है । वैसे गुसलख़ाने में नया तौलिया टंगा होना संयोग मात्र भी हो सकता है मगर ऐसा अक्सर तभी होता है जब घर में मेहमान आने वाले हों। उसके कवि मन को मानो कल्पना के विशाल पंख लग गए । वह ध्यान से घर में हुए हर सूक्ष्म परिवर्तन पर अपनी पैनी दृष्टि डाल रही है । आँगन की तुलसी हो या मेहमान कक्ष की कुर्सी वह सबके मन के भाव पढ़ लिया करती है ।
घर की चारदीवारें अपनी कायापलट पर इतराते हुए आपस में बतिया रही हैं और आँचल की तरह उनके सिर को ढँकने वाली छत का मन आह्लादित होकर अपनी छाती में टंगे पंखों के संग पूरे उत्साह से गोल-गोल घूम रहा है। ठीक वैसे ही जैसे गोल-गोल घूम रही है माँ अपनी गृहस्थी की चाक की धुरी बनकर । गुड्डी, माँ के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ लेना चाहती है लेकिन माँ इतनी व्यस्त है कि कहीं क्षण भर से अधिक टिक ही नहीं रही । चकरघिन्नी जैसी गोल-गोल घूमती जा रही है माँ और जो भी उनके संपर्क में आ रहा है वह उनके तनाव के ताप को महसूस कर सकता है ।
इस गहमागहमी से दूर अपनी ही दुनिया में मग्न है वह क्रोशिया की मेज़पोश जिसे हफ़्तों बाद आज संदूक की कालकोठरी से आज़ादी मिली है । कीटनाशक सफेद गोली की गंध से मुक्ति पाकर आज उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं है । न जाने कितने दिवसों की लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् यह सुखद क्षण उसके प्रारब्ध में आया है इसीलिए वह इसे जी भरकर जी लेना चाहता है । प्राकृतिक सुगंध वाले वायु को अपनी इच्छा और सामर्थ्य भर अपने फेफड़ों में समा लेना चाहता है । क्रोशिया का यह श्वेत धवल मेज़पोश अपने अस्तित्व से जुड़े इस कठोर यथार्थ से भलीभाँति परिचित है कि वह सजावट की वस्तु है अतएव विशेष अवसरों पर ही उसकी उपयोगिता सिद्ध होती है शेष समय में संदूक की उसी कालकोठरी में बन्द होना उसकी नियति है। उसकी अकड़ी हुई काया को जब जलपान की मेज़ पर औंधे मुँह लिटाया गया तो वह अपने जालीदार पैरों को पसारते हुए हवा में हौले-हौले हिलाने लगा। हवा के हल्के झोंकों से उसकी जालीदार काया में सनसनाहट सी हुई और उसका रेशा-रेशा आनन्द से भर गया । ठीक वैसा ही आनन्द अतिथि कक्ष में रखी उस लकड़ी के पलंग को भी मिल रहा है जो आज छोटी गुलाबी फूलों वाली नई चादर को ओढ़कर फूले नहीं समा रहा है । ऐसा लगा रहा है मानो सभी गुड्डी के साथ अपने इस आनन्द को साझा कर रहे हैं और इनके मन की बात को सुनकर गुड्डी भी आनन्द भाव से भरती जा रही है ।
रसोईघर में प्रतिदिन उपयोग में आने वाले स्टेनलेस स्टील के बर्तन आज एक कोने में अलसाये से ऊँघते नज़र आ रहे हैं। काँच की क़ैद से मुक्त होकर चीनी मिट्टी के सुन्दर सुघढ़ कोमल कायाधारी बर्तनों के आभामंडल प्रसन्नता की चमक से शोभायमान हो रहे हैं । वाह! आज तो चौका बासन के दिन भी फिर गये हैं ठीक उसी तरह जैसे कमरों के दरवाज़ों के पीछे ठुके हुए खूँटों पर टंगे कपड़ों के दिन फिर गये हैं । कई दिनों से खूँटी पर लटके हुए कपड़ों के दुखते कंधों पर लकड़ी के पाटन से हल्की मालिश की गयी है और फिर रगड़-रगड़कर साबुन से धोकर उनकी अकड़ी हुई पीठ को रस्सी का टेक दिया गया है जहाँ वे हवा के संग झूल रहे हैं। आँगन की इन्हीं रस्सियों पर कल तक हवा के संग झूला झूलते हँसते-खिलखिलाते कपड़े तह करके आलना के डंडों पर विश्राम कर रहे हैं । कमरे में बिछावन पर इधर उधर औंधी पड़ी किताबें आज अनुशासित विद्यार्थी की तरह अपने लिए निर्धारित अलमारी में सज्ज एवं सुव्यस्थित हैं मानो विद्यालय के प्रधानाध्यापक महोदय के औचक निरीक्षण का समय निकट हो ।
आज तो घर के साथ-साथ माँ की काया में भी कई सुखद परिवर्तन नज़र आ रहे हैं । माँ के झाड़ू जैसे रुखे बालों को तेल से सहलाया और पुचकारा गया है । अनियंत्रित लटों की उलझनों को सुलझाकर उन्हें ख़ूबसूरत संवरे हुए जूड़े की परिधि में एकीकृत किया गया है । कमर में खोंसी हुई और घुटनों चढ़ी सूती साड़ी की जगह माँ ने अलमारी में इस्तरी करके रखी हुई पीले रंग की शिफ़ॉन की सुन्दर साड़ी पहन ली है । आँखों में खिंच गयी है काजल की रेखा और माथे पर चमक रही है गोल-गोल लाल बिंदी । कानों में सोने के झूमके अल्हड़ सहेलियों सी माँ के गालों के संग अठखेलियाँ कर रही हैं । कलाइयों में सजी-सँवरी काँच की चटख रंग की नई चूड़ियाँ आपस में कानाफूसी कर रही हैं मानो मोहल्ले भर की चुगली करनी शेष हो। ये सारे सुखद परिवर्तन अतिथि आगमन के अनुमान को सत्य सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है । मगर कौन? इसका उत्तर प्राप्त होना शेष है किन्तु इन सुखद परिवर्तनों की गति देखकर तो यह निश्चित ही है कि इस रहस्य पर से पर्दा शीघ्र उठने वाला है।
वैसे इस रहस्योद्घाटन में गुड्डी की दिलचस्पी कम ही है क्योंकि उसके लिए तो अतिथि आगमन का समाचार ही सुख प्रदान करने वाला है। अतिथि देवो भव: ! आज ही तो हिन्दी अध्यापिका ने इस पर विस्तार से चर्चा की थी और बताया था कि अतिथि देवता तुल्य होते हैं जिनका यथोचित सम्मान किया जाना चाहिए। कई बार अतिथि बिना किसी पूर्व सूचना के आ जाते हैं किन्तु ऐसे अप्रत्याशित अतिथियों को भी आप बिन बुलाए मेहमान की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं क्योंकि अतिथि का अर्थ ही है जिनके आगमन की कोई निर्धारित अथवा निश्चित तिथि न हो। संभव है ऐसे ही किसी अतिथि के आगमन की सूचना पाकर माँ उनके स्वागत हेतु यथोचित उपक्रम में जुटी हुई है। वैसे भी गुड्डी के लिए तो अतिथि देवता की तरह ही हैं क्योंकि उनके आगमन की सूचना मात्र से ही घर में उत्सव सा माहौल बन जाया करता है। दैनिक रुप से प्रयोग में लाए जाने वाली वस्तुएँ तात्कालिक विश्राम पाती हैं और अवसर विशेष हेतु सहेज कर रखी हुई वस्तुएँ अपने होने का औचित्य सिद्ध करती हैं। दिनचर्या में नवीनता का भाव आता है और रसोईघर में डिब्बों में बंद सामग्री चूल्हे की आँच पर धीमे-धीमे पकती हुई अपना विशेष स्वाद पाती हैं। घर के सदस्यों को सामान्य भोजन के स्थान पर पकवान का भोग लगता है और वस्तुत: साधारण दिवस भी उल्लासपूर्ण उत्सव लगने लगता है।
इस आतिथ्य उत्सव के आनन्द के भाव तो बाबूजी के दैदीप्यमान मुखमंडल पर भी स्पष्ट रुप से परिलक्षित हो रहे हैं। पिछले कई दिनों से संध्याकालीन जलपान में सत्तू पीने वाले बाबूजी को आज सूजी का गरमागरम हलवा, घर में बने और कड़ाही भर तेल में ताज़ा-ताज़ा नहाकर निकले आलू के करारे चिप्स के साथ लौंग इलायची के संग अदरक वाली चाय का स्वाद मिलने वाला है। बाबूजी के चेहरे पर इस स्वादिष्ट आस की प्रसन्नता देखने योग्य है।
बड़े भइया कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं, संभवत: मिठाई लाने के लिए बाहर निकले हुए हैं। लगता है माँ ने छोटे भइया को भी किसी काम से बाहर भेजा हुआ है। माँ ने पलंग पर हम दोनों बहनों के लिए रोज़ाना पहनने वाले कपड़ों की जगह सफ़ेद और गुलाबी रंग की एक जैसी दो रेशमी फ़्रॉक निकालकर रखी हुई है जिसे देखकर हम दोनों बहनों के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। दीदी ने आगे बढ़कर वही सफ़ेद रंग की फ़्रॉक उठा ली जिस पर उसका मन आया हुआ था। वैसे दीदी गुलाबी रंग की फ़्रॉक भी उठाती तो गुड्डी का मन उसी के लिए ललच उठता। अब क्या दीदी जिसे भी पसंद करती है, गुड्डी का मन उसी पर आ जाता है। माँ उसके मन और स्वभाव को जानती है इसीलिए वह जब भी बाज़ार जाती हैं तो दोनों बहनों के लिए एक जैसी फ़्रॉक खरीद लेती हैं बस रंग अलग-अलग जिससे कोई विवाद न हो मगर गुड्डी के चंचल मन को तो दीदी की ही फ़्रॉक अधिक प्यारी लगती है। उम्र में बड़ी होने के कारण बहुधा बड़प्पन की अपेक्षा के भार से दबी हुई दीदी मन मसोसकर गुड्डी को अपनी फ़्रॉक पहनने दे दिया करती है और गुड्डी भी बिना विवेक का प्रयोग किया उसे अपने ज़िद की जीत समझकर पहनकर इतराने लगती है। घर में सबसे छोटी होने के लाभ को पाने का कोई भी अवसर वह अपने हाथ से जाने नहीं देती है मगर आज बिना ज़िद किए उसने चुपचाप गुलाबी रंग की फ़्रॉक पहन ली क्योंकि उसे पता है कि आज माँ बहुत व्यस्त है और ऐसे में न जाने किस बात पर उनके भीतर बाहर फूटने को आतुर ज्वालामुखी विस्फ़ोट कर जाए कह नहीं सकते हैं।
रसोईघर से स्वादिष्ट व्यंजनों की सुगंध ने पेट में चूहों की उछलकूद को और तीव्रता प्रदान कर दी है। दीदी तो झट से माँ का हाथ बँटाने रसोईघर की ओर चल दी मगर गुड्डी की दिलचस्पी व्यंजनों को चखने में अधिक है। माँ जब भी कुछ बढ़िया पकाती है गणेश जी की तरह सबसे पहले गुड्डी को ही उसका भोग लगाती है क्योंकि वह बिना किसी भय अथवा संकोच के स्वाद को लेकर ईमानदार प्रतिक्रिया दिया करती है। दीदी उसकी प्रतिक्रिया को सुनकर अक्सर चिढ़ जाती है। दीदी को लगता है कि गुड्डी को कुछ पकाना तो आता नहीं बस खोट निकालना आता है। दीदी कुछ भी कहे मगर माँ तो गुड्डी की प्रतिक्रिया ध्यान से सुना करती है, उसे कभी नहीं झिड़कती बल्कि, वापस रसोईघर में जाकर उसे सुधारने की कोशिश में जुट जाती है। माँ की इस आदत से गुड्डी को बहुत कुछ सीखने को मिलता है इसीलिए जब विद्यालय में शिक्षक उसे किसी गृहकार्य में हुई त्रुटि के लिए टोकते हैं तो वह उनकी बातों का बुरा नहीं मानती अपितु पूरे जी-जान से उसे सुधारने में जुट जाती है। ठीक वैसे ही जैसे अतिथियों की वाहवाही पाने की आस में माँ अभी जुटी हुई है विविध व्यंजनों की तैयारी में।
माँ की व्यस्तता देखकर गुड्डी सोचने लगी कि इन देवतातुल्य अतिथियों का आगमन हम बच्चों के लिए तो उल्लास लाता है किंतु माँ के लिए अतिरिक्त कार्यभार। माँ की चढ़ी हुई त्यौरियाँ स्पष्ट बता रही हैं कि अंतर्मन के भाव किस ताप पर उबल रहे हैं किन्तु एक कुशल अभिनेत्री की तरह माँ के चेहरे पर दिखाई दे रहे ये भाव अतिथियों के आते ही पलटी मार लेंगे। रेखाएँ माथे पर सिलवटें बनाने के स्थान पर होठों के दोनों किनारों पर आसन जमाकर बैठ जाएँगी। माँ के मुखमंडल पर मुस्कुराहट की रेखाएँ खिंचते देखना गुड्डी को सबसे अधिक प्रिय है। जब तक अतिथि रहेंगे तब तक सब कुशल मंगल रहेगा किन्तु उनके जाते ही माँ के चेहरे की रेखाएँ विस्थापित होकर भृकुटी पर विराजमान हो जाएँगी और माँ के भीतर उबल रहे भावों के ताप से हम भाई-बहनों एवं बाबूजी के आनन्द-कुसुम को कुम्हला जाएँगी।
अपने सीमित जीवनकाल के अनुभव के आधार पर गुड्डी इस तथ्य से भलीभाँति परिचित हो चुकी है कि अतिथियों के आगमन की तैयारी हेतु जितना श्रम किया जाता है उतना ही श्रम उनके गमन के बाद भी करना होता है। उनका आना उल्लास लाता है और जाना हंगामे का सबब बन जाता है। आने और जाने के बीच का जो क्षण है वही आनंददायक है। सारा स्वाद उसमें ही है। उनकी लायी हुई मिठाईयों का स्वाद, माँ की हँसी का स्वाद, घर में बने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद, बाबूजी के स्वभाव में आई नरमी का स्वाद और मेहमानों के दुलार का स्वाद। जब तक मिल रहा है चख लो क्योंकि इस महान सामाजिक एवं पारिवारिक चलचित्र का उत्तरार्ध एक्शन और ड्रामे से भरपूर होने वाला है।
माथे पर त्यौरी के साथ-साथ माँ की ये सुंदर सजीली साड़ी भी घुटने से ऊपर चढ़ेगी, कमर में खोंसी जाएगी और फिर युद्धस्तर पर जूठे बर्तनों के ख़िलाफ़ यलगार का बिगुल फूँका जाएगा। मेहमानों ने जो ऊधम मचाया है उसका सारा हिसाब-किताब किया जाएगा और एक-एक कचरे ने गिन गिन कर बदला लिया जाएगा। सारे नए पर्दे, नए बर्तन, नई सजावट पवित्रता की अग्निपरीक्षा से गुज़रेंगे और फिर सूखने के बाद अपनी पूर्वस्थिति में पाए जाएँगे। बाबूजी फिर शाम को सत्तू पीते नज़र आएँगें। माँ के अधखुले जूड़े की उलझी लटें फिर झाड़ू का आभास कराएगी। गुसलख़ाने में पुराने तौलिए टँगे नज़र आएँगे। मेरी प्रिय सहेली स्टेनलेस स्टील की थाली फिर से इतराएगी और चम्मच-कटोरे संग झनझनाएगी। लकड़ी का यह पलंग फिर अपने पुराने मित्र फीके रंग वाले चादर के संग सुख-दुख बतियाएगा और अपनी सुन्दर बुनावट पर मुग्ध होता झालर पर इतराता क्रोशिया का मेज़पोश संदूक की कालकोठरी में मन मसोस कर बंद हो जाएगा। किसी छोटी सी बात पर माँ-बाबूजी एक दूसरे पर तानों का तीर चलाएँगे, रुठेंगे, मुँह फुलाएँगे और हम टुकुर टुकुर उन्हें ताकते हुए चुपचाप ये सब घटित होते देखते जाएँगे। खूंटी के पीछे फिर से कपड़े टंगे नज़र आएँगे और आँगन में टंगी तार फिर से हवा संग कपड़ों को झुला झुलाएँगी, शीशे की अलमारी में सिपाही से सजे पुस्तक पलंग पर पसरे नज़र आएँगे और गुड्डी मन ही मन ‘अतिथि देवो भव:!’ दोहराएगी और अतिथि देव के पुनर्आगमन की प्रार्थना देवी माँ को सुनाएगी।
–आराधना झा श्रीवास्तव
