किन्हीं कम प्रसिद्ध कविवर के काव्य-संकलन को जब साहित्य के श्रेष्ठ सम्मान से पुरस्कृत किया गया तो मन में जिज्ञासा जागी कि तनिक उनकी कविताओं का आस्वादन किया जाए। हम भी तो देखें कि आख़िर श्रेष्ठ साहित्य कैसे रचा जाता है। ढूँढने पर तो प्रभु के दर्शन भी हो जाते हैं फिर ये तो इंसान ठहरे और वह भी आज के तकनीकी युग के, जहाँ गूगलदेव के सौजन्य से आपकी पूरी जन्मकुंडली सार्वजनिक विवेचन हेतु उपलब्ध रहती है। हमें भी इनकी पुरस्कृत शीर्षक कविता मिल गयी जिसे पढ़कर अपने कला-आग्रही मन को संवेदनाओं के उच्चतम स्तर पर ले जाना पड़ा। उच्चतम इसलिए क्योंकि यह उस पुरस्कृत कविता में सहजता से उपलब्ध नहीं थी। शब्दों की जुगाली के स्वाद से मस्तिष्क की नसें सुन्न पड़ गयी। कुछ देर तक शब्द दिमाग में ता-ता थैया करते रहें फिर जाकर स्थिर हुए तो किसी बिखरी हुई पहेली की तरह इन्हें जोड़कर इनसे एक तस्वीर बनाने की कोशिश की। ये अलग बात है कि इस कोशिश में मस्तिष्क पर अनावश्यक दवाब पड़ने के कारण भयंकर सिरदर्द शुरु हो गया।

कवि अपनी कविता में क्या कहना चाह रहे हैं, यह बात समझने में इतना समय लग गया जितना समय किन्हीं प्रसिद्ध चित्रकार के चित्र को समझने में लगता है। बिना सिर-पैर की अथवा कूड़ा-कचरा कहकर मैं उनकी कला का अपमान नहीं कर सकती हूँ इसीलिए शब्दों की थोड़ी हेराफेरी करनी पड़ रही है। वैसे भी कला के अलग-अलग रुप होते हैं और उनके बारे में टिप्पणी करने से पहले आपको सचेत होना पड़ता है अन्यथा लोग आपकी समझ पर ही प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। भले ही सामने वाले को भी उस कला का सीधा-सादा अर्थ समझ नहीं आया हो किन्तु आपके सामने वे ऐसी लच्छेदार भाषा में अपनी बात कहते हैं कि आपको अपनी  नज़रों के सामने मौत के कुँए के भीतर गोल-गोल घूमते मोटर चालक की और खौलते तेल से भरी कढ़ाई में विद्युतीय गति से गोल-गोल हाथ घुमाने वाले जलेबी के सृजनकर्ता हलवाई के हाथों की याद आ जाती है। जलेबी की तरह घुमावदार शब्दों की भूलभूलैया में खोकर आपको अपनी कला-ग्राह्यता एवं उसके विवेचन-विश्लेषण करने की न्यूनता का बोध अंदर से कचोटने लगता है।

कई बार संकोचवश आप ऐसी कला की प्रशंसा कर देते हैं जो सीधे-सादे अर्थ में व्यर्थ की कलाकारी से अधिक कुछ नहीं होती है। ऊपर से कला पारखी होने का स्वांग रचते हुए, टुड्ढी पर हाथ धरकर गहन चिन्तन का अभिनय करते हुए, भीतर उपजती खीज, ऊब और अन्य मिश्रित भावनाओं के बवंडर से जूझते हुए, एकटक उस कला को निहारने वाले, उसमें समाहित अदृश्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं।  प्रशंसा के इन्द्रधनुषी पुल बाँधने का प्रयास करते हैं और समझ के इस विचित्र खेल में विफल रहने गूढ़, गंभीर और गहरी बात जैसे विशेषणों को अपनी ढाल बनाकर चुपके से वहाँ से खिसक लेते हैं। बस यही हाल कविताओं का भी है। अंतर बस इतना है कि वहाँ कूची से रंगों की कलाकारी है तो यहाँ शब्दों से कलम की कलाकारी। अब समझ आ गया तो ठीक वरना आपकी समझ गई तेल लेने क्योंकि उन्हें तो बस अपनी समझ का डंका पिटवाना है और प्लास्टिक जितनी मज़बूती न होते हुए भी अपनी लेखनी का लोहा मनवाना है। हमारी-आपकी समझ से उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है और पड़े भी क्यों? उन्हें तो पुरस्कार चाहिए और पुरस्कार सीधे-सादे अर्थवान कृतियों को नहीं मिला करती। पुरस्कार पाना एक कला है, इसमें महारत हासिल करने वाले महान कलाकार कहलाते हैं और इस कला को न समझने वाले औसत अथवा साधारण की श्रेणी में गिने जाते हैं। पुरस्कार को, उसे पाने वाले रचनाकार को और पहेलीनुमा पुरस्कृत कविताओं के इस संसार को हमारा बारम्बार नमस्कार!

-आराधना झा श्रीवास्तव

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