उत्तरी भारत के नगरों में भाषा समस्या पर कुछ टिप्पणियाँ

तोमिओ मिज़ोकामि,

प्रोफ़ेसर एमेरिट्स

 ओसाका यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज़

[प्रायः भारत की भाषा समस्याएँ उसकी बहुभाषिकता और भारतीय भाषाओं में द्वन्द्व का स्मरण कराती हैं। दक्षिण भारत में गड़बड़ फैलाने वाले हिंदी विरोधी आंदोलनों के विषय में हम सब जानते हैं। परंतु हिंदी की भी अपनी निजी समस्याएँ हैं, जो यद्यपि भाषा वैज्ञानिक तथा सामाजिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं, भाषा वैज्ञानिकों का ध्यान उतना आकर्षित नहीं करतीं जितना भाषाओं की बहुलता। भाषागत विविधता हिंदी में भी है। हिंदी विरोधी आंदोलन तथा ‘अंग्रेज़ी हटाओ’ अभियान जैसे विषय प्राय: राजनीतिक हैं।

       मेरा यह लेख उत्तर भारत के नगरों की द्विभाषिकता अथवा बहुभाषिकता से संबद्ध है। अनिवार्यतः हिंदी की समस्याएँ उससे जुड़ी हुई हैं और उसमें विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों के अनुरूप कुछ सामाजिक विश्लेषणों पर पहुँचने का प्रयास भी किया गया है।]

    जब हम उत्तरी भारत के बुद्धिजीवियों से हिंदी में बात करते हैं तो प्रायः हम इस प्रकार प्रशंसित होते हैं—“आपकी हिंदी मुझसे काफ़ी अच्छी है।” अथवा “आप मुझसे अच्छी हिंदी जानते हैं।” मनुष्य का स्वभाव है कि यदि कोई विदेशी किसी व्यक्ति की मूल भाषा में दक्ष है, तो वह व्यक्ति उस विदेशी की प्रशंसा करने में संकोच नहीं करेगा। परंतु, उदाहरण के लिए, जर्मन बुद्धिजीवी किसी विदेशी की प्रशंसा करते हुए यह कभी नहीं कहेंगे—“Thr Deutsch ist besser als mein Deutsch.” या “Sie sprechen Deutsch besser als ich.” इसी प्रकार फ्रांसीसी बुद्धिजीवी भी कभी किसी विदेशी को यह नहीं कहेंगे—“Vous parlez francais mieux que moi.” कोई जापानी बुद्धिजीवी भी किसी विदेशी को, चाहे वह विदेशी जापानी भाषा में कितना ही प्रवीण क्यों न हो, यह नहीं कहेगा—“Anata wa watashi yorimo nihongo ga ojozu desune.”

भारत के अन्य भागों में भी, जैसे बंगाल में, बुद्धिजीवी किसी ग़ैर-बंगाली से कभी नहीं कहेंगे कि—”आपनार बंगला आमार चेये भालो।” हालाँकि, यदि विदेशी बंगला भाषा बोलता है, तो इससे बंगाली लोग बहुत प्रसन्न होंगे। यदि ग़ैर-तमिल भाषी तमिल ध्वनियों का शुद्ध उच्चारण नहीं करते, तो तमिल भाषी लोग इससे प्रसन्न नहीं होते।1 तब केवल हिंदी-भाषी “आप मुझसे अच्छी हिंदी जानते हैं।” सरीखा वाक्य क्यों बोलते हैं? इसका अभिप्राय क्या यह है कि वे केवल हमारी झूठी प्रशंसा कर रहे हैं? मैं मानता हूँ कि उत्तर भारतीय खुले दिल के हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर भारत के हिंदी-भाषी संसार के श्रेष्ठतम झूठे प्रशंसक हैं। यह देखा जा सकता है कि हिंदी भाषा का एक विशेष स्तर या शैली (साहित्यिक भाषा) उन लोगों के लिए भी उतनी ही ‘विदेशी’ अथवा प्राय: उतनी ही अबूझ है जितनी कि किसी हिंदी सीखने वाले के लिए। अतः उनका विदेशियों की प्रशंसा करना अनिवार्यतः शत-प्रतिशत केवल प्रशंसा भाव ही नहीं होता अपितु इसमें कुछ सत्य भी होता है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से कम लोग परिचित हैं।2

हिंदी के बोलचाल के रूप को प्राय: ‘हिन्दुस्तानी’ के नाम से पुकारा जाता है। इस नाम का प्रचलन अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में हुआ था। इस भाषा-रूप की कई परिभाषाएँ दी जा सकती हैं, किंतु प्राय: इस बात पर सहमति है कि यह उत्तरी भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के द्वारा समान रूप से बोली जाने वाली भाषा रही है। उच्च हिंदी तथा उर्दू हिन्दुस्तानी की साहित्यिक अथवा सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के दो भिन्न माध्यम मात्र हैं। साहित्यिक हिंदी (उच्च हिंदी) की अधिकांश शब्दावली संस्कृत से है तो उर्दू की अरबी-फ़ारसी से। बोलचाल के स्तर पर दोनों भाषाओं में बहुत कम अंतर है। सुनीति कुमार चटर्जी ने हिन्दुस्तानी (उनकी वर्तनी में ‘हिन्दुस्थानी’) की परिभाषा देते हुए उसे “हर रोज़ के प्रत्यक्ष जीवन के व्यवहार की हिंदी जो अत्यंत संस्कृतपूर्ण नहीं है” कहा है।3

चूँकि हिन्दुस्तानी के विकास एवं प्रचार में मुसलमानों का देन अधिक रहा है, इसकी पूर्ण शब्दावली में अरबी-फ़ारसी की ओर झुकाव स्वाभाविक है। कह सकते हैं कि उच्च हिंदी इसके शुद्धिवादियों (स्वभावत: हिंदू ही) की कृत्रिम उपज है जिन्होंने संस्कृत के बहुसंख्यक शब्दों को अपना लिया है। यही कारण है कि उच्च हिंदी बोलचाल के हिंदी-रूप से काफ़ी भिन्न है।

यद्यपि हिंदी-उर्दू की समस्या को केवल धार्मिक-सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखना उचित नहीं होगा (उदाहरण के लिए कई हिंदू विशेषत: कायस्थ उर्दू में सुशिक्षित हैं)। किंतु प्राय: यह एक ऐसा तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी हिंदुओं की तथा उर्दू मुसलमानों की सांस्कृतिक भाषा मानी जाती है। हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक झगड़ों से बचने के लिए तथा उसके अखिल भारतीय स्तर पर प्रचलन के कारण महात्मा गाँधी ने हिन्दुस्तानी का एक समान भाषा के रूप में समर्थन किया था। परंतु हिन्दुस्तानी उच्च स्तर की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम न बन सकी, क्योंकि वह केवल आधारभूत संप्रेषण की एक भाषा थी। अतः सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उच्च हिंदी और उर्दू द्वारा भिन्न-भिन्न मार्गों का अपनाया जाना एक अनिवार्य प्रक्रिया थी। इसके अतिरिक्त भारत विभाजन (1947) ने भी हिंदी-उर्दू के विवाद पर एक निर्णयात्मक प्रभाव डाला, क्योंकि उसके बाद अब भारत ने राजभाषा के रूप में हिंदी को तथा पाकिस्तान ने उर्दू को स्वीकार कर लिया। भारत में अब भी उर्दू एक प्रयोजनीय भाषा है, किंतु पाकिस्तान में हिंदी का प्रयोजन नहीं है। इस मोड़ ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द अप्रचलित होने लगा है। “मैं घर जा रहा हूँ।” जैसा हिन्दुस्तानी का एक साधारण वाक्य भी हिंदुओं द्वारा हिंदी का तथा भारतीय मुसलमानों और पाकिस्तानियों द्वारा उर्दू का वाक्य कहा जाता है।

       अब, जबकि हिंदी (देवनागरी में लिखित) को भारतीय संविधान द्वारा स्वीकार किया गया है, साहित्यिक हिंदी क्रमश: संस्कृतनिष्ठता की ओर बढ़ रही है। यह शिक्षा तथा जनसंप्रेषण का माध्यम है। किंतु जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिकांश हिंदी भाषी अब भी उस साहित्यिक हिंदी में पूर्ण दक्ष नहीं हैं। इससे ज्ञात होता है कि भाषा शिक्षण कितना समयसाध्य है। संस्कृतनिष्ठता वाला अतिवादी प्रचार भाषा की प्रकृति को हानि ही पहुँचाता है। भाषा के बोलचाल वाले तथा लिखित रूप के अंतर को मिटाने की दिशा में सदा ही सक्रिय कदम उठाने चाहिए।

शुद्ध हिंदी प्रायः बोलने में उपहासास्पद मानी जाती है तथा हिंदी को सरल बनाने के सुझाव अधिकतर उन वक्ताओं द्वारा दिए जाते हैं जो अपनी ओर से इस दिशा में कोई प्रयास नहीं करते।

प्रो० वारान्निकोव; रूस के प्रख्यात हिंदी विद्वान ने हिंदी को सरल बनाने के इस विचार की आलोचना करते हुए निरंतर प्रयोग द्वारा उच्च हिंदी से परिचित होने का सुझाव दिया है।4 हिंदी के विदेशी छात्रों को यह समझने में समय लगेगा कि ‘परिचय’, ‘प्रश्न’, ‘सुविधा’ आदि जैसे मूलभूत शब्द भी दैनिक बोलचाल में यदा-कदा ही प्रयुक्त होते हैं। अधिकांश विदेशी व्याकरण के माध्यम से हिंदी सीखते हैं। किसी भी विदेशी भाषा को सीखने का यह सुगम मार्ग है। अतः वे बोलचाल की अपेक्षा लिखित भाषा से अधिक परिचित होते हैं। तब, यह अपरिहार्य है कि आरंभ में उनकी हिंदी पुस्तकीय हो। चेकोस्लोवाकियन भारतीय भाषा विद्वान प्रो० ओडोलेन स्मेयकल ने कहा है कि वे चेकोस्लोवाकिया में पढ़ाई गई शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा में अधिक पारंगत हैं।5 मूल हिंदी भाषियों को हिंदी सीखने वाले उत्साही विदेशी छात्रों के साथ खिचड़ी भाषा की अपेक्षा उच्च स्तर की हिंदी में अधिक निष्ठा के साथ बातचीत करनी चाहिए।

       भाषा संस्कृति के साथ गहराई से संबद्ध होती है। अतः भाषा की व्यक्तिगत शैली स्वयं व्यक्ति की ही संस्कृति की द्योतक होती है। इसलिए जहाँ सांस्कृतिक स्थिति का प्रश्न हो वहाँ शुद्ध हिंदी की, चाहे औपचारिक ही क्यों न हो, आवश्यकता होती है। मैं दिल्ली में एक भारतीय परिवार के यहाँ गया। बातचीत के बीच मुझे शौचालय जाने की आवश्यकता हुई। मैंने उच्चतर माध्यमिक पाठशाला में पढ़ने वाले उस परिवार के एक लड़के से कहा- “मैं लघुशंका करना चाहता हूँ।” मुझे शौचालय की ओर ले जाने के स्थान पर वह मेरे लिए पानी भरा एक गिलास ले आया, अर्थात् हिंदी माध्यम वाले स्कूल में पढ़ते हुए भी उसे ‘लघुशंका’ शब्द नहीं मालूम था। इससे ज्ञात होता है कि शिक्षण संस्थाओं में परिष्कृत भाषा पूरी तरह से पढ़ाने का अभाव है। एक और अनुभव को भी उद्धृत किया जाए। अपने एक पड़ोसी का टेलीफ़ोन प्रयोग में लाने के पश्चात् मैंने फ़ोन करने का दाम चुकाना चाहा, परंतु पड़ोसी ने इसे लेना अस्वीकार कर दिया। फिर भी मैंने देना चाहा। मैं ऐसी सरल हिंदी में अपना कथन सुविधा से दोहरा सकता था- “लीजिये न, अच्छा नहीं लगता, लीजिए न।” किंतु केवल एक परिवर्तन लाने के लिए और अपने सांस्कृतिक स्तर के उपयुक्त कुछ प्रभावशाली अभिव्यक्ति लाने के लिए मैंने कहा- “मुझे अपनी सभ्यता का पालन करने दीजिए।” श्रोता मेरी इस हिंदी पर आश्चर्यचकित हो गए।

उच्च स्तर की हिंदी के प्रयोग में केवल निम्न स्तर की हिंदी ही एक बाधा नहीं है। उच्च स्तर की हिंदी के प्रयोग में सामान्य हिंदी सहित प्राय: अंग्रेज़ी भी बाधक बनती है। मैं अंग्रेज़ी पर अगले खंड में विचार करूँगा।

यह एक गलत धारणा है कि सभी ‘शिक्षित’ भारतीय अंग्रेज़ी जानते हैं। हमें ‘शिक्षित’ शब्द को पश्चिमी अर्थों तक सीमित नहीं करना चाहिए। यद्यपि अंग्रेज़ी शिक्षा, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से भारत में आधुनिकीकरण लाई, फिर भी इस देश में पंडितों द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त और विकसित वेद तथा वेदांतों की एक पारंपरिक शिक्षा-पद्धति भी रही है। हम कह सकते हैं कि भारतीय संदर्भ में इस प्रकार के पंडित भी सुशिक्षित हैं। यह आवश्यक नहीं कि उन्हें आधुनिक पश्चिमी शिक्षा प्राप्त हो। उनकी ज्ञान निधि विदेशी भारतीय भाषा-विद्वानों के लिए अत्यंत सहायक है। साथ ही, हमें मौलवियों जैसे पारंपरिक इस्लामी शिक्षित व्यक्तियों के वर्ग को भी इसमें जोड़ना होगा। हमें विशिष्ट उद्देश्य की दृष्टि से शिक्षा के प्रकार को समझना होगा। इसके लिए सामान्य-सा उदाहरण दिया जाएगा–भारत में कई श्रेष्ठ संगीतकार हैं किंतु उनमें से कई व्यक्ति Beethoven (विख्यात जर्मन संगीतज्ञ) का नाम भी नहीं जानते होंगे। यद्यपि वे लोग पाश्चात्य संगीत से अनभिज्ञ हैं, फिर भी वे श्रेष्ठ संगीतकार तो हैं ही। ‘शिक्षित’ का अर्थ वे लोग नहीं जो अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे हों। पंडितों की अभिव्यक्ति में संस्कृत तथा उच्च हिंदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है तो अरबी, फ़ारसी और उर्दू इस्लामी अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। भारतीय लोग इस प्रकार की शिक्षा अंग्रेज़ी के ज्ञान के बिना प्राप्त कर सकते हैं, यद्यपि विदेशी विद्वानों के लिए असंभव है। अतः भारत में ‘शिक्षित होने के लिए अंग्रेज़ी ही एकमात्र कसौटी नहीं है। उत्तरी भारत के नगरों के सांस्कृतिक और सामाजिक स्तरीकरण के संदर्भ में भाषाओं के विभाजन पर विचार करते समय यह तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए गमपर्ज़ ने उचित ही संकेत किया है6 कि जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली बोली तथा उसकी तुलना में अल्पसंख्यक शिक्षितों द्वारा प्रयुक्त साहित्यिक मुहावरे में सदा ही अंतर रहा है, किंतु हमारे मतानुसार शिक्षितों के बीच भी आपस में बहुत बड़ा अंतर होता है। उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा के प्रकार तथा स्तर को भी ध्यान में रखना चाहिए। हिंदी भाषी क्षेत्र की एक विशेषता है कि ‘शिक्षित’ का अभिप्राय अनिवार्यतः उन लोगों से नहीं जो हिंदी अच्छी तरह लिखना-पढ़ना जानते हैं। अन्य क्षेत्रों में ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए बंगाल को लीजिए, यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि वहाँ शिक्षित वर्ग अंग्रेज़ी को चाहे कितना पसंद करे, बंगला भाषा में पूर्ण रूपेण दक्ष होता है। हिंदी-भाषी क्षेत्र में ऐसे अनेक बुद्धिजीवी हैं जो उच्च स्तर की हिंदी नहीं जानते। यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसा कहने में भी संकोच नहीं करते कि मुझे हिंदी नहीं आती। स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग तीन दशकों के बाद भी कुछ शुद्धिवादियों के उत्साही आंदोलनों के बावजूद उत्तरी भारत में अब भी अधिकांश लोग अंग्रेज़ी को उच्च सम्मान की भाषा मानते हैं। पंडितों और मौलवियों का सम्मान केवल धर्म तथा विद्या के क्षेत्रों में सीमित होकर रह गया है। सामाजिक सम्मान तो प्रायः उन दूसरे संभ्रांतों (Elites) के हाथ में है जिनका शिक्षण अंग्रेज़ी द्वारा हुआ है। स्वभावत: इस प्रवृति का उद्गम इस तथ्य से खोजा जा सकता है कि ब्रिटिश साम्राज्य के लगभग दो सौ वर्षों में अंग्रेज़ी प्रशासन तथा उच्च शिक्षा की भाषा थी। अतः हिंदी की अपेक्षा अंग्रेज़ी का और स्थानीय बोलियों की अपेक्षा हिंदी का उच्च सम्मान है। किंतु यह जानकर आश्चर्य होता है कि कुछेक अंग्रेज़ी-शिक्षितों द्वारा इस बाद वाले तथ्य (यानी हिंदी की प्रतिष्ठा उसकी स्थानीय बोलियों से बड़ी है) की भी उपेक्षा की जाती है। उत्तरी भारत के नगरों (विशेषत: दिल्ली) में अग्रेजी कितनी प्रभुत्वशाली है और नगर वासियों के अवचेतन में कितनी गहराई से बसी हुई है, इसे सरलता से मात्र कुछ सामान्य उदाहरणों (कुछ अपने अनुभवों पर आधारित) द्वारा जाना जा सकता है :-

उदाहरण (1) : दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति तथा प्रोफ़ेसर–कुलपति के विषय में मुझे बताते हुए हिंदी के एक प्रोफ़ेसर ने कहा—“दोनों अच्छी हिंदी बोलते हैं। यह पहले ही विदित था कि वे दोनों हिंदी प्रदेश से आए हुए हैं। अतः इस प्रसंग में किन्हीं अन्य भारतीय भाषाओं की चर्चा नहीं थी तब भी मेरे आदरणीय प्रोफ़ेसर को यह बताने के लिए कि वे केवल अंग्रेज़ी-शिक्षित ही नहीं, अपितु अच्छी हिंदी भी जानते हैं; ‘हिंदी’ शब्द जोड़ना पड़ा था। मेरे एक भारतीय मित्र ने जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के विद्यार्थी थे, एक दिन मुझे यह कहते हुए एक भाषण प्रतियोगिता में आमंत्रित किया था कि “आज हिंदी की भाषण प्रतियोगिता है, चलो मेरे साथ।” वे भी ‘हिंदी’ का उल्लेख करना नहीं भूले, यद्यपि यह स्पष्ट था कि वहाँ भाषण प्रतियोगिता हिंदी के अतिरिक्त किसी दूसरी भाषा में नहीं थी। जापान में जब हम किसी को एक अच्छे वक्ता अथवा अच्छे लेखक के रूप में उल्लेख करते हैं तो हम केवल इतना कहते हैं—“Ano hito wa hanashijozu desu.” अथवा “Ano hito wa bunsho ga umai.” और अक्सर ‘जापानी’ का उल्लेख नहीं करते, क्योंकि यह स्वतः सिद्ध होता है कि वह जापानी में ही बोलता अथवा लिखता है। इसके अतिरिक्त हम अपनी भाषा को ‘जापानी’ नहीं, अपितु ‘कोकुगो’ (राष्ट्रीय भाषा) कहने के आदी हैं। हिंदी के लिए यह विडंबना है कि आपको हर स्थान पर ‘हिंदी’ शब्द प्रयुक्त करना पड़ता है। आकाशवाणी से नित्य सुनाई देता है- “हिंदी में समाचार सुनिये।” जबकि उद्घोषक हिंदी में हो बोल रहा होता है। तार देने का नया फ़ॉर्म केवल हिंदी में छपा है, जोकि अपने आप में एक बड़ा परिवर्तन है, किंतु यह और भी मनोरंजक है कि खिड़की पर लगी तख्ती पर लिखा है: “तार देवनागरी में भी दिए जा सकते हैं” (रेखा प्रस्तुत लेखक की) और मैंने देखा कि वहाँ खड़े अधिकांश लोग हिंदी-फ़ॉर्म पर अंग्रेज़ी वाक्य लिख रहे थे। संस्कार से छुटकारा पाना कितना कठिन है।

उदाहरण (2) : यह एक मनोरंजक किंतु खेदजनक उदाहरण है कि एक अंग्रेज़ी वक्ता किस प्रकार इस भाषा से प्रदूषित है तथा एक पत्रकार, जोकि समान रूप से अंग्रेज़ी-शिक्षित है, किस प्रकार निष्क्रिय भाव से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। ‘हवाई कंपनी की एक सहकारिणी’ शीर्षक वाले एक लेख7 में एअर इंडिया के नई दिल्ली दफ़्तर में काम करने वाली बारह युवा यातायात सहायिकाओं में से एक का परिचय उसमें दिया गया था। कुछ प्रश्नों के उत्तर देने के बाद वह कहती है- “और पहली बार नई दिल्ली आने वाले अथवा लंदन के लिए अपनी पहली यात्रा करने वाले कुछ सिख यात्री भी हैं। वे हवाई यात्रा के बारे में कुछ भी नहीं जानते और अंग्रेज़ी बहुत कम जानते हैं। मैं ऐसे आदमियों के साथ पंजाबी में बातचीत करती हूँ और उनकी चिंताओं और भय को दूर करने की कोशिश करती हूँ।” पत्रकारिता के दृष्टिकोण के लिए यह प्रथम पाठ (अर्थात् सामान्य बोध) होना चाहिए कि यदि एक कुत्ता किसी व्यक्ति का काटता है तो यह कोई समाचार नहीं है किंतु यदि एक व्यक्ति किसी कुत्ते को काटता है तो यह समाचार है। यहाँ एक पंजाबी लड़की का पंजाबी लोगों के साथ “उनकी चिंताओं और भय को दूर करने के लिए” पंजाबी में बातचीत करना एक समाचार था। मुझे आश्चर्य है कि इससे सिख भाई अपमानित अनुभव क्यों नहीं करते।

उदाहरण (3) हरियाणा प्रांत के (उस वक़्त के) मुख्यमंत्री श्री बनारसी दास नई दिल्ली में एक सभा में उपस्थित थे। अपने प्रति संबोधित अंग्रेज़ी के स्वागत भाषण को सुनने के बाद उन्होंने हिंदी में बोलना प्रारंभ किया, वह भी हिंदी में बोलने के लिए क्षमा याचना करने के बाद ही। और उन्होंने कहा “दुर्भाग्य है कि अपने ही देश में हिंदी में बोलने के लिए क्षमा माँगनी पड़ रही है।”8 इस हिंदी प्रेमी मंत्री के उदाहरण से पता चलता है कि हिंदी उच्च राजनीतिक स्तरों की भाषा नहीं है। अंग्रेज़ी के इस प्रकार के उन्मुक्त प्रयोग से अवांछित परिणाम निकलते हैं। सर्वप्रथम, हिंदी पढ़ने वाले विदेशी छात्र यथेष्ठ हतोत्साहित हो जाते हैं। गमपर्ज़ ने भी लिखा है9 कि जो विदेशी मूल निवासियों के साथ हिंदी में बातचीत करना चाहते हैं उन्हें बहुत कम अवसर मिलते हैं। आगे वे कहते हैं कि वे (हिंदी-भाषी) उसे (विदेशी) अपने अंत:वर्गीय संबंधों की आत्मीयता से बाहर रखने के लिए भाषागत सीमा का लाभ उठा रहे हों।10 यहाँ एक अन्य दृष्टिकोण की ओर भी ध्यान देना चाहिए- कभी-कभी मूल निवासी वक्ता अपने साथियों के बीच अंग्रेज़ी में अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना चाहता है, अतः यह दिखावे की भावना विदेशी का ‘इस्तेमाल’ करती है। प्रो० कात्सुरो कोगा को बहुत धक्का लगा था जब उन्होंने प्रथम बार एक भारतीय को हिंदी में संबोधित किया और उसका जवाब अंग्रेज़ी में पाया।11 वे इस बात पर खेद प्रकट करते हैं कि अंग्रेज़ी भारत की प्रधान भाषा है तथा भारतीय भाषाएँ, गौण भाषाएँ हैं। जनवरी, 1975 में नागपुर में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रो० क्यूया दोई ने भारतीय दूतावासों में अंग्रेज़ी के बोल-बाले की निंदा की थी।12 अनेक विदेशी प्रतिनिधियों ने भारत के सभी स्तरों पर हिंदी-प्रयोग की असहमति की शिकायत की थी। भारतीयों की ओर से इस पर प्रथम प्रतिक्रिया संसद में सुनाई दी। एक सदस्य ने कहा कि हाल ही में नागपुर विश्व हिंदी सम्मेलन में विदेशी प्रतिनिधियों के मुँह से यह सुनना कि स्वयं संपूर्ण भारत में ही सामान्यतः हिंदी नहीं बोली जाती, लज्जा की बात है।13  

क्योंकि अंग्रेज़ी प्रतिष्ठा (prestige) के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई है, लोगों के लिए समाज में उच्च स्तर पाने की चाह या ऐसी मनोवृति पर नियंत्रण पाना बहुत कठिन है। कभी-कभी हमें दो व्यक्ति आपस में भिन्न भाषाओं में झगड़ते हुए दिखाई देते हैं–एक हिंदी में और दूसरा अंग्रेज़ी में। अंग्रेज़ी वक्ता हिंदी वक्ता से प्राय: अच्छे वेश में होता है, किंतु यह झगड़ा हमारे लिए बड़ा अद्भुत लगता है।

हिंदी भाषी अपनी भाषा में सायास या अनायास ही अंग्रेज़ी के कई शब्द मिश्रित कर लेते हैं। यद्यपि सीमा के अंदर यह स्वीकार्य है, परंतु अन्य भाषाओं से आवश्यकता से अधिक शब्द लेने की प्रवृत्ति भाषा की प्रकृति के लिए हानिकारक है। फिर विदेशी छात्रों को कठिनाई हो सकती है। जब मैं हिंदी पढ़ने लगा था और मेरे दिमाग में हिंदी के शब्द नहीं आते थे, तब मुझे अंग्रेज़ी से सहायता लेनी पड़ती थी। तब “मेन (main) चीज़ तो यह है।” जैसी हिंदी मेरे मुँह से निकलती थी। किंतु उच्च हिंदी से परिचित होने के बाद “मुख्य बात तो यह है कि” जैसी हिंदी का प्रयोग करना मेरे लिए बहुत आसान हो गया था, परंतु भारत में काफ़ी समय तक रहने से अंग्रेज़ी शब्दावली मिश्रित बोलचाल की हिंदी ने मेरी बोलचाल की हिंदी को प्रभावित किया। अब मैं अपने घनिष्ठ मित्रों में यदि स्वाभाविक ढंग से बोलूँ तो “मेन (Main) चीज़ तो यह है” जैसी हिंदी मेरे मुँह से निकलेगी। संयोग से यह उच्च हिंदी से हिंदी सीखने की आरंभिक स्थिति में प्रत्यावर्तन’ है। हिंदी के विदेशी छात्रों के लिए बोलचाल वाली हिंदी का वास्तविक रूप हिंदी शिक्षण को उच्च स्थिति की अपेक्षा इस आरंभिक स्थिति में पाया जाता है।

अब उत्तरी भारत के नगरों में लोगों की शिक्षा अथवा सांस्कृतिक परिवेश के आधार पर भाषा के विभिन्न रूपों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया जाएगा। निम्नलिखित वर्गीकरण वक्ताओं के शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक स्तरों के साथ भाषा के संबंध को स्थूलत: प्रदर्शित करता है। मैंने वक्ताओं को आठ वर्गों में विभक्त किया है। यह वर्गीकरण केवल वक्ताओं की शिक्षा अथवा संस्कृति अथवा भाषा के प्रति उनकी सचेतनता (अथवा अचेतनता) पर आधारित है और उनके सामाजिक स्तर के साथ सर्वदा मेल नहीं खाता। कुछ व्यक्तियों के लिए कई वर्ग एक दूसरे से मिल सकते हैं।

स्थिति अपने समान) वर्ग सहित)वर्गक हिंदीका हिंदीख उर्दू
परिवार अथवा घनिष्ठ मित्रों में (अनौपचारिक) हिंदी अथवा स्थानीय बोलियाँहिंदी अथवा स्थानीय बोलियाँउर्दू अथवा स्थानीय बोलियाँ
सामान्य वार्तालाप (बाज़ार की बातचीत)हिंदी की ओर झुकी हुई हिंदुस्तानीहिंदी की ओर झुकी हुई हिंदुस्तानीहिंदी की ओर झुकी हुई हिंदुस्तानी
व्यवसायहिंदीहिंदी तथा अंग्रेज़ीउर्दू
बौद्धिक वार्तालाप  हिंदीहिंदी तथा अंग्रेज़ीउर्दू
पढ़ना – लिखनाहिंदीहिंदी तथा अंग्रेज़ीउर्दू
“प्रेमचंद अच्छे लेखक हैं” की विशिष्ट अभिव्यक्ति जो उपर्युक्त वर्गों के अनुकूल है।“प्रेमचंद अच्छे लेखक हैं׀”“प्रेमचंद अच्छे लेखक हैं ׀”“प्रेमचंद अच्छे मुसन्निफ़ हैं׀”
‘खा’ उर्दू‘ग’ हिंदी‘घ’ अंग्रेज़ी‘ङ’ हिंदी  ‘च’ बाज़ारू हिंदी अथवा स्थानीय बोलियाँ
उर्दू अथवा स्थानीय बोलियाँहिंदी अथवा स्थानीय बोलियाँअंग्रेज़ीहिंदी अथवा स्थानीय बोलियाँस्थानीय बोलियाँ
उर्दू की ओर झुकी हुई हिंदुस्तानीहिंदुस्तानीहिंदुस्तानीबाज़ारू हिंदीबाज़ारू हिंदी
उर्दू तथा अंग्रेज़ीहिंदी तथा अंग्रेज़ीअंग्रेज़ीहिंदीहिंदी
उर्दू तथा अंग्रेज़ीहिंदी तथा अंग्रेज़ीअंग्रेज़ीहिंदी_
उर्दू तथा अंग्रेज़ीहिंदी तथा अंग्रेज़ीअंग्रेज़ीहिंदी_
“प्रेमचंद अच्छे मुसन्निफ़ हैं׀”  “प्रेमचंद अच्छे राईटर हैं।”“प्रेमचंद इज़ ए गुड राइटर।”“प्रेमचंद अच्छा लिखता है׀”_

वर्ग ‘क’…. हिंदी-विद्वान अथवा अध्यापक, हिंदी अथवा संस्कृत के स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र, हिंदी लेखक, कवि, आलोचक, हिंदी-पत्रकार, आर्य समाज के नेता, और सनातन हिंदू धर्म के साथ संबंधित पंडित इत्यादि इसी वर्ग में आते हैं। ये उच्च हिंदी में बहुत दक्ष हैं। गमपर्ज़14 के अनुसार हम इस वर्ग को ‘संभ्रांत हिंदी वक्ता’ कह सकते हैं। जब ये ‘संभ्रांत हिंदी वक्ता’ शुद्ध हिंदी के संकुचित प्रचारक बन जाते हैं, तो इन्हें ‘हिंदी वाले’ कहा जाता है, जो कि एक अपमानजनक शब्द है। इस प्रकार की मौजूदगी ही हिंदी क्षेत्र की अन्यतम विशेषता है।

वर्ग ‘का’…. उन लोगों का है जो अंग्रेज़ी में उच्च शिक्षित होने के साथ-साथ हिंदी में भी समान रूप से अच्छे हैं। ये वास्तविक द्विभाषी हैं। ये स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में सहजता से बदल सकते हैं। ये संकीर्णतावादी नहीं होते। ये भारतीय बुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं, किंतु आर्थिक दृष्टि से उनमें से अधिकांश मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग में आते हैं। ‘क’ तथा ‘का’ वर्ग ही ऐसे हैं जो किसी विदेशी से यह नहीं कहेंगे कि “आप मुझसे अच्छी हिंदी जानते हैं।” और जिनसे विदेशी लोग अच्छी हिंदी सीख सकते हैं।

वर्ग ‘ख’…… वर्ग ‘क’ का ही यह उर्दू संस्करण है और वर्ग ‘खा’, वर्ग ‘का’ का। शिक्षित मुसलमान और कुछ शिक्षित हिंदू (जैसे कायस्थ लोग जो उर्दू में शिक्षित हैं) ‘ख’ वर्ग अथवा ‘खा’ वर्ग के अंतर्गत आते हैं। उनकी संख्या कम होती जा रही है।

वर्ग ‘ग’….यह एक ऐसा वर्ग है जो भाषा नीति के प्रति उदार तथा उदासीन है। शिक्षित मध्य वर्ग का अधिकांश इसी वर्ग में आता है। ये वर्ग ‘का’ अथवा वर्ग ‘खा’ के निम्नतर स्तर के लोग हैं। ‘क’ का ‘ख’ और ‘खा’ वर्ग अपने भाषा प्रयोग के प्रति ‘सजग’ हैं किंतु ‘ग’ वर्ग उसके प्रति ‘सुप्त’ है। यद्यपि ये लोग भी द्विभाषी हैं, किंतु स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में नहीं बदल सकते। इन्हें ‘भाषा के अवसरवादी’ कह सकते हैं।

वर्ग ‘घ’…. उन लोगों का वर्ग है जो शरीर से भारतीय और मन से अंग्रेज’ हैं। ये अंग्रेज़ों के समान ही धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं। इन्होंने पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाई है। अंग्रेज़ी को भारत में बनाए रखने के ये प्रबल समर्थक हैं। यद्यपि ये हिंदी समझ लेते हैं पर ‘काम चलाऊ हिंदी’ ही पर्याप्त समझते हैं। ये लोग अधिकांशतः सरकारी प्रशासक, बड़े व्यापारी, डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक, पत्रकार और विश्वविद्यालयों के वे प्रोफ़ेसर हैं जिनके विषय विज्ञान अथवा सामाजिक विज्ञान से संबंधित हैं। ये संभ्रांत अवश्य हैं किंतु भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

वर्ग ‘ग’ और ‘घ’ ही ऐसे हैं जो ‘अंग्रेज़ीयत’ से छुटकारा न पाने के कारण हिंदी के विदेशी छात्रों को (अंग्रेज़ी भाषी भी शामिल हैं) हतोत्साहित करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अंग्रेज़ी को अपनी मातृभाषा मानते हैं—जैसा कि एंग्लो-इंडियन लोगों में पाया जाता है, जो सुशिक्षित भी नहीं, ‘संभ्रांत’ भी नहीं, केवल अंग्रेज़ी में सोचते और जीते हैं, वे निम्नस्तर के ‘घ’ हैं।

वर्ग ‘ङ’…. यह अर्द्ध-शिक्षितों का वर्ग है। ये लोग सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से शिक्षा पाते हैं। ये न तो साहित्यिक हिंदी में प्रवीण होते हैं और न ही अंग्रेज़ी में। किंतु उल्लेखनीय बात यह है कि वर्ग ‘घ’ की अपेक्षा वर्ग ‘ङ’ के लोग ही विदेशी छात्रों के लिए हिंदी सीखने में अधिक सहायक हैं। एक व्यक्ति, जिसने प्राईमरी स्कूल के केवल तीन वर्षों तक पढ़ाई की थी–को ‘दिनमान’ पढ़ते हुए देखना, जिसे वर्ग ‘घ’ या तो पढ़ नहीं सकता या पढ़ना ही नहीं चाहेगा, मेरे लिए एक उत्तेजक अनुभव था।

वर्ग ‘च’…. यह वर्ग अशिक्षित समुदाय का है। ये हिंदी में भी अशिक्षित हैं। उनकी बोली में शिक्षितों अथवा अर्ध-शिक्षितों की बोली की अपेक्षा अधिक विविधता है।

अंतत: हमें वर्ग ‘छ’ को भी देखना होगा।

वर्ग ‘छ’…. यह तथाकथित उन प्रवासी लोगों का वर्ग है जिनकी मातृभाषा हिंदी से इतर है। भाषा की दृष्टि से अल्पसंख्यकों में से दिल्ली में सबसे बड़ा वर्ग पंजाबियों का है, परंतु केवल शिक्षित सिक्ख लोग ही पंजाबी भाषा में जुड़े हुए हैं। अन्य पंजाबियों ने स्वयं को हिंदी परिवेश के अनुकूल ढाल लिया है। जहाँ तक दिल्ली का प्रश्न है, पंजाबियों के बाद कश्मीरियों तथा सिंधियों ने हिंदी स्थिति के साथ पूर्ण मेल बना लिया है। दिल्ली में प्रायः सभी तमिल भाषी और बंगाली शिक्षित हैं। उनका भाषागत जीवन त्रिभुजीय है।

निष्कर्षतः हिंदी क्षेत्र की भाषा समस्या के लिए मुझे कुछ समाधान भी सुझाने चाहिए।

वर्ग ‘ग’ और ‘घ’ को वर्ग ‘का’ की ओर बढ़ना चाहिए। उसके लिए उन्हें अपने अंग्रेज़ी ज्ञान को नहीं छोड़ना चाहिए अपितु उन्हें भारत के साथ अपनी पहचान स्थापित करने के लिए केवल साहित्यिक हिंदी का पर्याप्त ज्ञान अर्जित करना होगा। वर्ग ‘ङ’ तथा वर्ग ‘च’ के लिए शिक्षा तथा संस्कृति के मान में वृद्धि के अवसर प्रदान करने चाहिए। उनका वर्ग ‘क’ अथवा ‘ख’ में स्थानांतरण वांछनीय है।

पाद टिप्पणियाँ

  1. यह डॉ० नोरिहिको उचिदा का निजी अनुभव है।
  2. देखिए, गमपर्ज़ : ‘लैंग्वेज इन सोशल ग्रुप्स’, (कैलिफॉर्निया 1971) पृष्ठ 145.
  3. ‘भारतीय आर्यभाषा और हिंदी’, (दिल्ली, तृतीय संस्करण 1963) पृष्ठ 173.
  4. ‘नवभारत टाइम्स’, (नई दिल्ली, जनवरी 30, 1975).
  5. ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’, (नई दिल्ली, फरवरी, 13, 1975).
  6. ‘लैंग्वेज इन सोशल ग्रुप्स’, पृष्ठ 4.
  7. ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ (अक्तूबर 26, 1975).
  8. ‘नवभारत टाइम्स’ (अप्रैल 13, 1976).
  9. ‘लैंग्वेज इन सोशल ग्रुप्स, पृष्ठ 179.
  10.  वही.
  11.  ‘प्रकाशित मन’, (हिंदी सम्मेलन अंक, दिल्ली, जनवरी 1975).
  12.  वही.
  13.  ‘नवभारत टाइम्स’, (जनवरी 13, 1975).
  14.  हिन्दुस्तान टाइम्स’, (फरवरी 19, 1975).

[इसका मूल लेख ‘जापान क्वाटरली’ (नई दिल्ली, अप्रैल 1976, खण्ड 2, अंक 3) में अंग्रेज़ी में छपा था। उसके आधार पर प्रस्तुत लेखक ने नए सिरे से हिंदी में लिखा है।]

(‘ज्वालामुखी’, अंक 1980 पत्रिका से साभार)

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