
धर्मपाल महेंद्र जैन
*****
मेरे भीतर कितने ‘मैं’ हैं
मेरे भीतर कितने ‘मैं’ हैं जाने-अनजाने।
कितने ‘मैं’ नए, किंतु कुछ बहुत पुराने।
एक मैं हूँ बच्चा बचपन का।
एक मैं हूँ ज्ञानवान पचपन का।
एक मैं हूँ युवा, कठिन चुनौती भी संभव।
एक मैं हूँ अधेड़, धारे ख़तरों के अनुभव।
मैं हूँ प्रेम अनंत और घृणा भी।
मैं गति, प्रगति और स्थिर प्रज्ञा भी।
मैं साहस, जिजीविषा, नैराश्य भरा भी।
सुख-दुख में ख़ुश-संतापी, अन्यमना भी।
कितने-कितने कोणों पर मैं तुड़ा-मुड़ा।
कितना टूटा-बिखरा पर मैं पुनः जुड़ा।
मैं राग गहन गूंजा भीतर से।
मैं बहा अश्रु बन भाव समर से।
जन्म-जन्म भिन्न मैं आत्म एक।
रक्त, भेद, देह, बुद्धि, मन, विवेक।
मैं भीतर अभय, अमर, चिर प्रशांत।
लौकिक, जरा-मृत्यु से भयाक्रांत।
सृष्टि का पूर्ण मुखरित मन हूँ।
मैं ऊर्जा का अन्त्य विखंडन हूँ।
मैं कैसा ‘मैं’, प्रश्न यही है।
मेरे भीतर कितने ‘मैं’ हैं, पता नहीं है।
***** ** *****