
अमर्त्य
हंसा दीप
बीज और दरख़्त के फासलों को रौंदने में कामयाब नोआ की निगाहें अपनी सोच में वह सब देख लेतीं जो वह देखना चाहती थी। एक-एक शब्द को बोर्ड से मिटाती उँगलियाँ उन्हें मस्तिष्क तक पहुँचाने की कोशिश करतीं। शब्दों की कला में उलझता दिमाग जड़वत हो जाता।
चाक और डस्टर की उड़ती धूल गले से नीचे उतर जाती और अनगिनत शब्दों से भरे बोर्ड चितरे हुए दिखाई देते, कुछ इस तरह जैसे वे सारे शब्द नृत्य कर रहे हों, बगैर ध्वनि के। वह मौन उसे बहुत चिढ़ाता। भाषा विहीन होंठों के अक्षर आकार लेते। पंख फैलाते उसके हाथ वह करना चाहते, जो कक्षाओं में रोज होता। बहुत प्रयास के बाद अपनी लकीरों को आड़ी-तिरछी करके लिखे हुए के अनुरूप बनाने की कोशिश अनवरत जारी रहती।
अंग्रेजी के छब्बीस अक्षरों का ज्ञान तो था उसे, पर बोर्ड पर लिखे शब्दों के जत्थे उसके दिमाग को जकड़ लेते। वह कुछ समझ ही न पाती। उसी के नीचे, वैसे ही आकार बनाती मगर खामोश-सा, जो कुछ कह न पाता। एक नहीं, ऐसे कई आकार। ये सारे आकार आँखों को दिखाई देते, कानों को सुनाई न देते। किसी जटिल पहेली में उलझी वह, निराशा के घने बादलों से बचते-बचाते अपनी मन:तुष्टि कर लेती।
कक्षा में बिताई ये घड़ियाँ उसकी अपनी होतीं। सफाई के तमाम संसाधनों से भरी उसकी हाथगाड़ी बाहर दरवाजे पर होती। मानो कोई पहरेदार खड़ा हो, जो कह रहा हो- “मालिक अंदर हैं, सफाई चल रही है, और कोई अंदर नहीं आ सकता।”
वैसे भी इस समय तक सारी कक्षाएँ खाली हो जाती थीं। अपने मनपसंद समय के टुकड़े को भीतर गहरे तक उतारती नोआ उन पलों में प्रोफेसर बन जाती। सामने की खाली कुर्सियों पर उसे हलचल दिखाई देती। एक के बाद एक कैंपस में घूमते छात्र वहाँ बैठे दिखाई देते। उससे सवाल करते, अपनी पेशानी पर जोर डालते हुए वह जवाब देती। पोडियम पर हाथ टिकाकर अगले सवाल की प्रतीक्षा करती।
यह रोज का सिलसिला था। इन क्षणों की वह बेसब्री से प्रतीक्षा करती जब खाली कक्षाओं को साफ करते हुए वह पढ़ाने का अभिनय करती। तब उसके बिखरे बाल तह किए हुए, सलीके से जूड़े में बँधे होते। सफाई के लिए पहना अपना एप्रिन निकाल कर रख देती। धुले-साफ कपड़ों में व्यक्तित्व पर गरिमा होती। सूरज अपने घर जाते हुए उसके हाथ रोकता, तब कहीं जाकर वह उन कक्षाओं से बाहर निकल पाती।
यह जगह उसके भीतर बस गयी थी। अलग-अलग कक्षाओं में अनगिनत कुर्सियाँ और मेजें। हर कुर्सी पर एक सपना। हजारों छात्रों के लाखों सपने। सपनों की दौड़ में पढ़ने वालों के साथ पढ़ाने वाले भी थे। इस दौड़ में नोआ का यह अभिनय उसे वैसी ही संतुष्टि देता मानो किसी भूखे को पाँच पकवान परोस दिए गए हों। तब उसकी प्रोफेसर बनने की दमित इच्छा को पूरा करने के लिए शरीर का हर अंग प्रयास करता। प्रोफेसर जैसे हाव-भाव तन-मन दोनों पर दिखने लगते।
कई सालों से शिक्षण संस्थान के इसी विभाग में उसकी ड्यूटी एक सफाई कर्मचारी की थी। विभाग में कई लोग आए और चले गए। नोआ की पोस्टिंग वहीं रही। कई प्रोफेसर उसे जानते थे। उन सब में उसकी पसंदीदा थीं, प्रोफेसर अनम। विनम्र और शिष्ट। कभी किचन में तो कभी हाल-वे में हाय-हलो हो जाता- “कैसी हो नोआ?” इतनी मीठी उनकी आवाज जैसे शक्कर घुली हो।
नोआ भी उस मिठास को कायम रखने की कोशिश करती- “मैं ठीक हूँ, धन्यवाद। आप कैसी हैं?”
बस इतनी-सी बात होती। ज्यादा से ज्यादा कभी-कभार मौसम के बारे में बात हो जाती- “ठंड बढ़ने लगी है।”
“है न, कभी-कभी तीखी हवाएँ भी मौसम को ठंडा कर देती हैं। हैव ए गुड डे!”
“यू टू।”
इतना कहकर अनम अपने ऑफिस की ओर बढ़ जाती। नोआ ने हमेशा अनम के चेहरे पर ऐसी गहरी मुस्कान ही देखी थी। ऐसा लगता मानो कुदरत ने अनम का चेहरा ही ऐसा बनाकर भेजा हो। खुशहाल और ओज से भरपूर। अनम ही नहीं पूरा विभाग नोआ के लिए जाना-पहचाना-सा था। नोआ भी तो सबको अपने आस-पास, कभी इस हाल-वे में तो कभी उसमें, कभी लिफ्ट में तो कभी वॉशरूम के बाहर काम करते दिख जाती। अपने नाम के साथ उसका मुस्कुराता व्यक्तित्व हर किसी का ध्यान बरबस ही खींच लेता।
नोआ के रहते विभाग का जर्रा-जर्रा चमकता। आलमारियों के हैंडल से लेकर दरवाजों पर लगे शीशों तक। झकाझक-चकाचक। कुछ इस तरह कि अपना चेहरा देख लो उनमें। कक्षा के तमाम बड़े-बड़े कमरों के एक कोने में कम्प्यूटर लगे थे। मॉनीटर और वायरों की ऐसी साँठ-गाँठ थी कि कौन-सा वायर, कहाँ जाकर खत्म हो रहा था, यह देखने में वायर के साथ-साथ दिमाग भी उलझ जाता। हर वायर को सावधानी से उठाकर धूल हटाने की कोशिश करती वह। कोई वायर इधर से उधर न हो जाए, इसी का डर लगा रहता।
नोआ को आश्चर्य होता कि ये प्रोफेसर लोग इतनी देर तक खड़े होकर कैसे पढ़ा लेते होंगे! पुरुष और महिलाएँ बराबरी की संख्या में। खास तौर से महिलाओं से उसे बहुत रश्क होता। ऊँची एड़ी के जूते, सजे हुए नाखून, सलीके से लहराते बाल और बिजनेस सूट में उन सबका व्यक्तित्व इतना आकर्षक होता कि वह स्वयं को उनके परिधान में देखने लगती।
सोचती, अगर वह भी ऐसे कपड़े पहने तो अच्छी लगेगी। कहाँ से खरीदेगी, यह तलाश जरूरी है। दुनिया भर के स्टोर्स हैं आस-पास में, लेकिन इतने अच्छे कपड़े उसने कहीं देखे नहीं। छुट्टी के दिन मॉल जाकर ढूँढेगी और फिटिंग रूम में पहन-पहन कर देखेगी। कपड़ों के अनुकूल बाल भी तो होने चाहिए, ऐसे ही लहराते हुए। किसी हेयर सलून को भी तलाशना होगा। कोई ऐसा सलून, जो सस्ता भी हो और इन बिखरे, रूखे बालों को सुसभ्य तरीके से खुले छोड़ दे। एड़ी वाले जूते नहीं पहनेगी वरना कभी भी गिर पड़ेगी और फिर सब हँसेंगे।
अनायास ही मुस्कान आ गयी नोआ के चेहरे पर। प्रैक्टिस जरूरी होगी। करत-करत अभ्यास, सब सीख जाएगी। व्यक्तित्व निखारने का काम तो वह निश्चित रूप से कर लेगी लेकिन दिमाग का काम कैसे करेगी! उसका दिमाग खाली है। ठन-ठन-गोपाल!
यहीं आकर उसकी कल्पना रेशमी धागों में उलझ जाती थी। इतनी गाँठें लग जातीं कि चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता नहीं मिलता- “दिमाग तो बट्ठर ठहरा, इतनी पढ़ाई की नहीं, फिर पढ़ाएगी कैसे!” फिर सारा सोचना बंद और उसके हाथ तेजी से फर्श चमकाने में लग जाते।
एक दिन नोआ अपने रोज के अभ्यास को बोर्ड पर दोहरा रही थी कि अनम ने दरवाजे पर दस्तक देकर कहा- “नोआ, मैं अपनी चाबियाँ कहीं भूल गयी, क्या मैं ढूँढने के लिए अंदर आ सकती हूँ?
“जरूर।” हड़बड़ाती, खिसियाती-सी नोआ ने अनम के लिए अपनी गाड़ी हटाकर रास्ता बनाया।
“थैंक गॉड, यहीं मिल गयीं, वरना सारी कक्षाओं में ढूँढने जाना पड़ता।”
नोआ जानती थी कि अनम ने उसे बोर्ड पर लिखते हुए देख लिया है। उसने अपनी सफाई में कुछ कहना उचित समझा- “मैं बोर्ड पर लिख कर देख रही थी कि मेरे अक्षर कैसे दिखते हैं!”
अनम मुस्कुरा दी। शायद नोआ यह नहीं जानती थी कि अनम की तेज निगाहों ने पहले भी कई बार उसे कक्षा में लिखते हुए देखा था। उसने खुशी जताई- “अरे वाह, क्या बात है नोआ! तुम्हारी यह सीखने की ललक मुझे बहुत अच्छी लगी। जरूर लिखो, अभ्यास करते-करते अक्षर सुंदर आकार ले लेंगे।” कहते हुए वह चली गई।
नोआ कह न पायी, वह अक्षरों को नहीं, अपने सपनों को आकार देना चाहती थी। वह सपना जो अनम और उन सब प्रोफेसरों के व्यक्तित्व को देखते हुए लगातार मस्तिष्क पर सवार रहता था। ऐसा सपना जिसका कोई ठोस ओर-छोर नहीं था, जिसकी मौत तय थी।
फिलीपीन्स से हाई स्कूल पास होने के बावजूद कैनेडा में उसे सफाई का काम करके गुजारा करना पड़ता था। अगर कोई समय पर मदद कर देता तो वह भी इस यूनिवर्सिटी में भरती हो जाती। होने को तो अब भी हो सकती है, क्रेडिट कार्ड से उधार लेकर। इतने छात्र यहाँ हैं, क्या एक छात्र वह नहीं हो सकती! सब हँसेंगे, एक अधेड़ उम्र की छात्रा को देखकर। हँसने वाले हँसते रहें। वह खूब मेहनत करेगी। अच्छे नंबर लाएगी, तब सभी चकित होकर उसे देखते रह जाएँगे।
अपने ही हाल पर सवाल भी करती, जवाब भी देती और फिर लंबी साँस खींचकर सफाई करते हाथों की गति बढ़ा देती।
फिलहाल नोआ को एक ही बात का सुकून था कि आने वाली पीढ़ी को अपने सामने तैयार होते देख रही थी। ये सब यहाँ से पढ़कर जाएँगे और खूब पैसे कमाएँगे। कल को इनके बच्चे आकर पढ़ेंगे। क्या तब तक वह सफाई ही करती रहेगी!
विभाग के लोग उसकी तारीफ के पुल बाँधते तो वह सोचती, वह जो भी काम करे, पूरे मन से ही करेगी। फिर पढ़ाई ही क्यों न हो। उसकी ये आशाएँ पल भर टिकतीं और फिर अगले ही पल यथार्थ उसकी उम्मीदों के आड़े आ धमकता। हाथ में कलम-चाक नहीं, झाड़ू और पोंछा ही दिखता। अपनी जरूरतों और घर चलाने की प्राथमिकता के चलते वह कुछ और सोच भी नहीं सकती थी।
उसकी अंग्रेजी भी काम चलाऊ थी। थैंक्स, एक्सक्यूज़ मी से काम चल जाता था। वह भले ही नहीं पढ़ पाई, मगर ईश्वर से प्रार्थना करेगी कि कम से कम उसका इकलौता बेटा इस लायक बन जाय कि वह यहाँ खड़ा हो सके। कक्षाओं के इन पोडियम पर, हर उस बोर्ड पर लिखे, जिनकी सफाई नोआ के हाथ करते रहे हैं। सामने भीड़ हो छात्रों की। वह भी इसी हवा में घुल-मिल कर उसे देखती रहे!
आँखों की पोरों में झिलमिलाते सपने कितने मीठे थे!
दिमाग की सरपट उड़ान को थामने के लिए तत्काल उसके हाथ सिर को ठोकते- “क्या सोच रही है वह! यह भी तो हो सकता है कि जल्दी पैसे कमाने के चक्कर में बेटा ग्रेग उसके पापा की तरह कंस्ट्रक्शन के काम में लग जाए। इतना अच्छा भी तो नहीं पढ़ने में, जैसे-तैसे पास भर हो जाता है।” उसकी गर्दन अफसोस के साथ हिलने लगती। ऐसे कोई आसार नजर न आते कि इस जनम में उसका कोई अपना इन कक्षाओं में पढ़ाते हुए दिख सकेगा।
वक्त सरकता गया मगर नोआ का सपना थमा रहा, वहीं का वहीं। उसी शक्ल में, उसी आकार के साथ।
हर शख्स अपनी जिंदगी में आगे बढ़ता रहा। प्रोफेसर अनम वाइस डीन का पद स्वीकार कर हेड ऑफिस चली गईं। अब उन्हें कक्षाएँ नहीं लेनी होती थीं, बल्कि अनेक एकेडेमिक कार्य करने होते थे। अलग-अलग विभागों में दूरियाँ भी इतनी थीं कि फिर कभी अनम और नोआ को मिलने का मौका नहीं मिला। नोआ पैंसठ पार करके रिटायर होने वाली थी। उसकी आशंका सही निकली, उसका बेटा अपने पिता का काम सँभालने लगा था।
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जल्द ही वाइस डीन से डीन के रूप में पदोन्नति पाकर अनम इस जानी-मानी संस्था की सर्वेसर्वा हो गई। कई नियुक्तियाँ, मीटिंग, और अकादमिक कार्यों में उलझी वह समय के साथ काफी मैच्योर हो गयी थी। आज उसके अपने पुराने विभाग का एक रियूनियन कार्यक्रम था जिसमें मंच पर रखी कुर्सियों में एक कुर्सी उसकी थी। वह स्वयं मुख्य अतिथि थी। अनम के इस पुराने विभाग में अब कौन-कौन था, कौन नहीं, इसके बारे में अनभिज्ञता स्वाभाविक थी। सिवाय विभागीय प्रमुख के वह किसी को नहीं जानती थी।
मंच पर पहुँचते हुए सामने से व्हील चेयर को धका कर आगे बढ़ाती एक नवयुवती पर सहज ही अनम की आँखें टिक गयीं। व्हील चेयर पर बैठी महिला को देखा तो अनम को उसका चेहरा जाना-पहचाना लगा। कहाँ देखा था, यह सोचने का समय नहीं था। अपनी उलझनों में उलझी वह आगे बढ़ गयी। मंच पर पहुँचने की जल्दी थी।
पीछे से एक आवाज आयी- “प्रोफेसर अनम”, उसने पलटकर देखा।
“मैम, मैं नोआ।”
“नोआ!” हतप्रभ-सी थी अनम। विस्मृति का हथौड़ा भारी था। यादों की दूरस्थ यात्रा करते हुए झाँका। हाथगाड़ी धकेलते हुए एक सफाई कर्मचारी का चेहरा नजर आया। उम्र की ढलान के बावजूद, वही मुस्कुराता चेहरा- “अरे नोआ!”
“हाँ मैं, सॉरी आपको टोका, बस एक मिनट, आपको किसी से मिलवाना है।” उस नवयुवती की तरफ इशारा करते नोआ बोली।
अनम ने गौर से देखा। नोआ और उस युवती के बीच कोई न कोई रिश्ता होगा। खून के कुछ कतरों की समानता तो थी, पर उम्र का अंतर बहुत था।
“यह मेरी पोती नोऐमी।” वह सुंदर, छरहरी और युवा लड़की मुस्कुराते हुए एकटक अनम को देख रही थी। जैसे वह सब कुछ जानती हो अनम के बारे में। अनम की आँखों में पिछले सारे पल तैरने लगे। वे पल भी जब उसने नोआ को क्लास रूम में बोर्ड पर लिखते देखा था।
“यह आपके उसी विभाग में नई नियुक्ति है। असिस्टेंट प्रोफेसर, नोऐमी नोआ।”
अनम की आँखों से नोआ की आँखों तक तैरते पलों की झलक बहुत कुछ कह गयी थी। अनम ने आगे बढ़कर नोआ को आलिंगनबद्ध किया, बधाई दी और मंच पर पहुँची।
डीन के पद की गरिमा के अनुकूल स्पीच थी उसकी। उसे जो कुछ बोलना था, शुरुआत तो की, लेकिन अंत नोआ के साथ हुआ- “नोआ, हमारी यूनिवर्सिटी की वह छात्र है जो हर दिन अपनी कल्पना में पढ़ती-पढ़ाती रही। नोआ को मैंने कई बार बोर्ड पर लिखते हुए देखा था। मुझे अनुमान था कि यह उनका सपना है, शेखचिल्ली-सा, सिर्फ हवा-हवा में। लेकिन आज समय ने परिभाषाएँ बदल दीं। जिन कमरों को दादी नोआ ने झाड़ा-पोंछा था। बोर्ड को साफ करते हुए उड़ते कणों में छुपी ख्वाहिशों को भीतर तक सोखा था, आज वही अपने रक्त के साथ नई पहुँच बनाने को आतुर है। नोआ ने न पढ़ा, न पढ़ाया, पर खुद को उस जगह से इतना बाँध कर रखा कि यहाँ न रहते हुए भी वह अपनी पोती के जरिए यहाँ रहेगी। उस बोर्ड पर, हर उस कुर्सी-मेज पर जहाँ उसके हाथों ने धूल हटा कर कई प्रतिभाओं को निखरते देखा। ये दीवारें साक्षी रहेंगी उन सभी साँसों की, धड़कनों की, उन सपनों की जो अमर्त्य हैं।”
संस्था की डीन, प्रोफेसर अनम को सुनते हुए नोआ की आँखें भीग आई थीं, आकार लेते शब्दों के अर्थ समझते हुए। पूरी सभा के लोग नोआ के सम्मान में खड़े थे। तालियाँ बज रही थीं।
नोआ का कंठ रूँधा था पर मन उछल कर कक्षाओं की दौड़ लगा रहा था।
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