
धर्मपाल महेंद्र जैन
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ग़ुस्सैल हवा
हवा ऐसी नहीं थी कभी
कि सरपट दौड़ने लगे धरती पर
वायुयान-सी तेज़
अंधी हो जाए और ज़मींदोज कर जाये
यौवन से भरे पेड़
उड़ा ले जाए घरों की छतें
ढहा जाये अंधड़ में फंसी दीवारों को।
हाइवे फ़ोर ओ वन पर दौड़ रही गाड़ियाँ
सहमी-सहमी ठहरी खड़ी हैं
ताकि वे ज़मीन से जुड़ी रहें
भागते-भागते कहीं उड़ नहीं जाए।
हवा ऐसे गुज़रती है तो काँपने लगते हैं
बंद क़िताबों के पन्ने
गिर-गिरकर टूटने लगते हैं शब्द
जीभ पर आने से पहले।
भूमिगत बेसमेंट की फ़र्श पर औंधे लेटकर
वक़्त को धीरे-धीरे जाते हुए देखना
बहुत खलता है हमें।
फिर भी एक उम्मीद बाक़ी है
बीत जाएँगे ये दिन।
दो दिनों से चेतावनियाँ थीं हर कहीं
बस्तियाँ ख़ाली हो रही थीं
बेघर होकर लोग
एक ही दिशा में दौड़ रहे थे
सुरक्षित होने के लिए।
सब जानते थे हवा बिफरती है तो
बिखेर देती है सब कुछ वर्षों से सहेजा।
सब जानते हैं
पर कोई समझना नहीं चाहता
कि हवा ग़ुस्सैल क्यों है!
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