सिंहली संस्कृति
एम. नधीरा शिवंती
ऐसा विश्वास किया जाता है कि राजकुमार विजय और उसके 700 अनुयायी ई. पू. 543 में श्रीलंका में जहाज से उतरे थे। ये लोग “सिंहल” कहलाते थे। क्योंकि पहले पहल “सिंहल” की उपाधि धारण करने वाले राजा सिंहबाहु से इनका निकट संबंध था। (सिंह को मारने के कारण यह राजा “सिंहल” कहलाया)। विजय ही श्रीलंका का पहला राजा था और उसने जिस राज्य की स्थापना की। वह करीब 2358 वर्ष तक कायम रहा। बीच में एकाध बार चोल या पांड्य के राजा ने इस पर अधिकार कर लिया। किंतु देर-सबेर सिंहलियों ने उन्हें देश से निकाल बाहर किया।
कृषि
सिंहलियों को धान की खेती और सिंचाई, दोनों का ज्ञान था। उनका मुख्य भोजन चावल था। जिसका उत्पादन ही वहाँ के आर्थिक तथा सामाजिक ढाँचे का निश्चयकारी सिद्धान्त था। इसके सिवा कुछ अन्य अनाज तथा दालों की भी खेती की जाती थी। इन अनाजों से बना भोजन उनका मुख्य आहार था। राजाओं तथा रईसों का भोजन, उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार, अधिक मूल्य का और उत्तम किस्म का होता था। समय बीतने पर, विशेषकर यूरोपीयों के आने के बाद, भोजन के संबंध में भारी परिवर्तन हो गया। अलसी, सरसों तथा गरी इत्यादि से तेल निकाला जाने लगा तथा ईख, रुई, हल्दी, अदरक, काली मिर्च, मसाले तथा फलों के वृक्ष भी बड़ी संख्या में उगाए जाने लगे। खेती के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाने लगा और पाँच दौग्ध पदार्थों का नियमित प्रयोग किया जाने लगा। तालाब बनाने में सिंहली दक्ष थे और उनके बनाए कितने ही तालाब आज भी विद्यमान हैं। वे नहरें भी बनाते थे।उन्होंने एक बड़े भूभाग पर सिंचाई की व्यवस्था कर रखी थी।
समाज
अपने पूर्वजों के दाय के रूप में सिंहली लोग अनेक भारतीय रीति-रिवाजों और संस्थाओं की स्मृति अपने साथ लेते आए होंगे। उनके सिवा समाज संबंधी भारतीय विचारधारा तथा वर्गों की ऊँच-नीच भावना भी उनके साथ चली आई होगी। कलिंग, मगध, बंगाल आदि के आर्यों से संपर्क रहने के कारण उन्हीं के समानांतर सिंहली संस्कृति के भी विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस संस्कृति का मूलाधार जातिभेद था। जो समय बीतने पर अत्यंत जटिल हो गया था। बौद्ध भिक्षुओं में जाति संबंधी नियमों तथा बंधनों का प्रचलन नहीं रह गया था। जातिभेद के आधार पर बौद्ध संघ का विभाजन अपेक्षाकृत हाल की घटना है। पिता ही परिवार का अधिपति और स्वामी होता था और माता के प्रति सर्वाधिकार सम्मान प्रदर्शित किया जाता था। महावंश में राजा अग्गबोधि अष्टम (801-812 ई.) की अनन्य मातृभक्ति का उल्लेख है। प्राचीन सिंहलियों में आज की ही तरह एक स्त्री-पुरुष-विवाह की प्रथा थी। हाँ, राजाओं के अवश्य अनेक रानियाँ तथा रखेलियाँ होती थीं। किंतु उनमें से केवल दो को ही राजमहिषी का पद प्राप्त होता था। नामकरण, अन्नप्राशन, कर्णवेध आदि संस्कार उस समय भी प्रचलित थे जैसे आज हैं। सिंहलियों में प्राय: बौद्ध भिक्षुओं तथा ऊँचे वर्ग के लोगों के मृत शरीरों को जलाने की प्रथा थी। किंतु अन्य मृतकों के शव जमीन में गाड़ दिए जाते थे।
विशिष्ट समारोहों के समय कुछ नरेश कीमती पोशाक के अतिरिक्त 64 अलंकार धारण करते थे। रानियाँ तथा राजा की अन्य पत्नियाँ सोने के कीमती आभूषण पहनती थी। जिनमें हीरा, मोती आदि जड़े होते थे। गरीब स्त्रियाँ काँच की चूड़ियाँ तथा अँगूठियाँ पहनती थीं। आधुनिक समय में बहुत से सिंहलियों ने यूरोपीय वेशभूषा ग्रहण कर ली है। वहाँ के राजाओं तथा प्रजा वर्गों को जलक्रीड़ा, नृत्य, गायन, शिकार आदि विविध खेलों तथा कलाओं में अच्छा, आनंद आता था। युद्ध में संगीत का महत्व बना रहता था। पाँच तरह के वाद्य यंत्रों, ढोलों, भेरियों, शंखों, बीनों, बाँसुरियों आदि का उनमें प्राचीन काल से प्रचलन था। स्त्रियाँ एक तरह की ढोलक बजाती थीं। जिसे “रबान” करते थे। सिंहलियों में कठपुतलियों का नाच और नाट्यों का अभिनय होता था जिनके लिए मंच बनाए जाते थे। इनमें से कुछ आज भी विद्यमान हैं। “असाढ़ी” पर्व के समय बहुत लंबा जुलूस निकलता था। जिसमें बड़ी संख्या में हाथी भी सजाए जाते थे। आज भी ऐसा होता है। ग्रहों तथा भूत-प्रेतों की बाधा दूर करने के लिए “बलि पूजा” तथा अन्य कृत्य किए जाते थे, जैसा इस समय भी होता है।
शिक्षा
सिंहली कला भारतीय कला से विशेष रूप से प्रभावित थी। वहाँ चित्रकार, मिस्त्री, राज, बढ़ई, लोहार, कुंभकार, दरजी, जुलाहे, हाथीदाँत का काम करने वाले तथा अन्य कलाविद् होते थे। अभ्रक आदि की परतदार चट्टानों से लंबे, सुडौल टुकड़े तराश लेने की कला में प्राचीन सिंहली बड़े दक्ष होते थे। लोह प्रासाद के अवशेष जो 1600 प्रस्तर स्तंभों पर बना था। इस तथ्य का उज्ज्वल प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। विजय और उसके अनुयायियों को पढ़ने और लिखने की कला का ज्ञान न था। महावंश में उस पत्र की चर्चा है। जो विजय ने पांडु नरेश को भेजा था और उसकी भी जो उसने अपनेभाई मुमित्त को प्रेषित किया था। ब्राह्मी लिपि में लिखे गए बहुत से शिलालेख सिंहल द्वीप में प्राप्त हुए थे। जिनमें सबसे प्राचीन ई. पू. तीसरी शती के थे। इससे स्पष्ट है कि जनता की एक बड़ी संख्या उन्हें पढ़ और समझ सकती थी। शिष्य को गुरु के पास ले जाने की (उपनयन की) प्रथा भी उस समय प्रचलित थी। बारहवीं शती ई. पू. में देहातों में भ्रमणशील अध्यापक रहते थे। जो बालकों को लिखना-पढ़ना सिखलाते थे। लड़कियों को शिक्षा वृद्ध जनों द्वारा दी जाती थी। राजकुमारों की शिक्षा में विशेष सावधानी बरती जाती थी। इस शिक्षा में खेलकूद की तथा शस्त्रास्त्रों की भी शिक्षा शामिल थी। आम तौर से ये विषय पढ़ाए जाते थे-सिंहली, पाली, संस्कृत, तमिल, तथा अन्य भाषाएँ, चिकित्सा विज्ञान, ज्योतिष, पशु-चिकित्सा इत्यादि। लिखने-पढ़ने की क्रिया का आरंभ “त्रिपिटक” की और सिंहली में प्राप्त उसकी टीकाओं की प्रतिलिपि करने से होता था। सिंहल के दो ऐतिहासिक ग्रंथों-दीपवंश तथा महावंश-का निर्माण चौथी तथा पाँचवीं शती ईस्वीं में हुआ था। बाद में त्रिपिटक की पालि टीकाओं तथा विविध विषयों की अन्य पुस्तकों को लिपिबद्ध किया गया। कुछ बहुमूल्य ग्रंथ अनधिकारिक शासक माघ द्वारा 13वीं शताब्दी में, कुछ नरेश राजसिंघे प्रथम द्वारा 16वीं शती में तथा अन्य कई डचों द्वारा 18वीं शती में नष्ट कर दिए गए।
महावंश के बहुसंख्यक चिकित्सालयों का उल्लेख होने से साबित होता है कि प्राचीन काल में सिंहल में उच्च संस्कृति विद्यमान थे। ईसा के पूर्व की चौथी शताब्दी में भी गर्भिणी स्त्रियों के लिए प्रसवशालाएँ तथा रोगियों की चिकित्सा के लिए अस्पताल मौजूद थे। राजा बुद्ध दास ने (4थी शती ई.) सिंहलवासियों के लिए प्रत्येक गाँव में चिकित्सा भवन स्थापित किए थे और उनमें चिकित्सकों की नियुक्ति की थी। वह स्वयं कुशल चिकित्सक था और उसने चिकित्सा-संबंधी एक पुस्तक भी लिखी थी। अपंगों तथा नेत्रहीनों के लिए उसने आश्रय स्थान बनवाए थे। पुरातन काल में तथा उसके बाद भी सिंहली चिकित्सा विज्ञान का भारतीय चिकित्सा विज्ञान से निकट संबंध रहा है।
सिंहली राजाओं के समय भारत की तरह वहाँ भी अनियंत्रित राजतंत्र प्रचलित था। राजा ही राज्य का सर्वोच्च सत्ताधिकारी था। आध्यात्मिक विषयों में वह बौद्ध भिक्षुओं से सलाह लिया करता था। राज परिवार से संबंधित मामलों पर विचार होते समय ब्राह्मणों को भी मत प्रकट करने का अवसर दिया जाता था। युद्ध के समय चतुरंगिणी सेना (हाथी, घोड़े, रथ तथा पदाति) का प्रयोग किया जाता था। लड़ाई में धनुष बाण, तलवार, भाला, गदा, त्रिशूल, बरछी, तोमर, गुलेल आदि अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। कभी-कभी जासूसों से भी काम लिया जाता था। कराधान द्वारा जो आमदनी होती थी। उसी से राजा का निजी खर्च, दरबार का खर्च और शासन का खर्च चलता था। अपराधियों को अपराध की गुरुता के अनुसार दंड दिया जाता था।
भारत का प्रभाव
जो सिंहलवासी पहले-पहल श्रीलंका में आकर बसे थे, वे अपने पूर्व निवास उत्तर-पश्चिम भारत से हिंदू धर्म का लोकप्रिय प्रकार लेते आए थे। बाद में कलिंग तथा बंगाल से आने वाले ब्राह्मणों ने वहाँ वैष्णव तथा शैव धर्मों का प्रचार किया। बौद्ध धर्म का प्रचार तीसरी शदी में थेरा महेंद्र ने किया। राजा द्वारा राजधर्म के रूप में स्वीकृत हो जाने पर वह वहाँ का मुख्य धर्म बन गया। बुद्ध का भिक्षा पात्र तथा कुछ अन्य अवशेष उसी शताब्दी में भारत से लाए गए और कुछ स्तूपों का निर्माण किया गया। बुद्ध गया में स्थित महान बोधिवृक्ष की एक शाखा भी उसी वर्ष थेरी संघमित्त द्वारा लाई गई जो आज भी अच्छी दशा में है। कहते हैं, यह संसार का सबसे पुराना ऐतिहासिक वृक्ष है। बुद्ध का दाँत तथा बाल का अवशेष क्रमश: चौथी तथा पाँचवीं शताब्दी में सिंहल लाए गए। सिंहलियों में इनका बड़ा आदर और सम्मान है। बौद्ध धर्म ने, जो समूचे राष्ट्र में व्याप्त है, वहाँ वालों पर अथाह मानवतापूर्ण प्रभाव डाला है। पुर्तगालियों, डचों तथा अंग्रेजों के आगमन ने सिंहली रीति-रिवाजों, धर्म, शिक्षा तथा पोशाक में बहुत परिवर्तन कर दिया है।
सिंहली भाषा
सिंहली भाषा श्रीलंका में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है। सिंहली के बाद श्रीलंका में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा तमिल है। प्राय: ऐसा नहीं होता कि किसी देश का जो नाम हो, वही उस देश में बसने वाली जाति का भी हो और वही नाम उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा का भी हो। सिंहल द्वीप की यह विशेषता है कि उसमें बसने वाली जाति भी “सिंहल” कहलाती चली आई है और उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा भी “सिंहल”।
लिपि
अनेक भारतीय भाषाओं की लिपियों की तरह सिंहल भाषा की लिपि भी ब्राह्मी लिपि का ही परिवर्तित विकसित रूप हैं।जिस प्रकार उर्दू की वर्णमाला के अतिरिक्त देवनागरी सभी भारतीय भाषाओं की वर्णमाला है, उसी प्रकार देवनागरी ही सिंहल भाषा की भी वर्णमाला है।
सिंहल भाषा को दो रूप मान्य हैं – (1) शुद्ध सिंहल तथा (2) मिश्रित सिंहल
शुद्ध सिंहल को केवल बत्तीस अक्षर मान्य रहे हैं-
अ, आ, ऍ, ऐ, इ, ई, उ, ऊ, ऒ, ओ, ऎ, ए क, ग ज ट ड ण त द न प ब म य र ल व स ह क्ष अं।
सिंहल के प्राचीनतम व्याकरण ग्रन्थ सिदत्संगरा (Sidatsan̆garā) का मत है कि ऍ तथा ऐ — अ, तथा आ की ही मात्रा वृद्धि वाली मात्राएँ हैं।
वर्तमान मिश्रित सिंहल ने अपनी वर्णमाला को न केवल पाली वर्णमाला के अक्षरों से समृद्ध कर लिया है। बल्कि संस्कृत वर्णमाला में भी जो और जितने अक्षर अधिक थे। उन सब को भी अपना लिया है। इस प्रकार वर्तमान मिश्रित सिंहल में अक्षरों की संख्या चौवन (54) है। अट्ठारह अक्षर “स्वर” तथा शेष छत्तीस अक्षर व्यंजन माने जाते हैं।
बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और महान दर्शन है। ईसा पूर्व 6 वीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना हुई है। बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी, नेपाल और महापरिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशीनगर, भारत में हुआ था। उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया।
बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय हैं: हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परंतु बौद्ध धर्म एक ही है एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त ही मानते हैं। ईसाई धर्म के बाद बौद्ध धर्म दुनिया का दुसरा सबसे बड़ा धर्म हैं, दुनिया के करीब 2 अरब (29%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग 54 करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है। जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं। हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं। दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं। किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म ‘प्रमुख’ धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं।
भोजन
श्रीलंका के व्यंजनों को कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और अन्य कारकों द्वारा आकार दिया गया है। विदेशी व्यापारियों के साथ संपर्क जो नए खाद्य पदार्थों को श्री लंकन भोजन में शामिल हुए। पड़ोसी देशों के सांस्कृतिक प्रभावों के साथ-साथ अन्य चीजों के बीच देश के जातीय समूहों की स्थानीय परंपराओं ने सभी श्रीलंकाई व्यंजनों को आकार देने में मदद की। भारतीय (विशेष रूप से दक्षिण भारतीय), इंडोनेशियाई और डच व्यंजनों के प्रभाव श्रीलंकाई व्यंजनों के साथ घुलमिल गए। जो अन्य पड़ोसी दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई व्यंजनों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते हैं।आज श्रीलंकाई व्यंजनों के कुछचावल, नारियल और मसाले हैं।
पोशाक
परंपरागत रूप से मनोरंजन के दौरान सिंहली एक सोरोंग (सिंहल में सरमा) पहनते हैं। पुरुष सोरंग के साथ एक लंबी आस्तीन वाली शर्ट पहन सकते हैं। जबकि महिलाएँ टाइट-फिटिंग के साथ शॉर्ट-आस्तीन वाली जैकेट पहनती हैं। जिसे “चित्ताया” कहा जाता है। अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में, सिंहली पुरुष भी पश्चिमी शैली के कपड़े पहनते हैं। जबकि महिलाएँ स्कर्ट और ब्लाउज पहनती हैं। औपचारिक और औपचारिक अवसरों के लिए, महिलाएँ पारंपरिक कंडियन (ओसारिया) शैली पहनती हैं। कंडियन शैली को सिंहली महिलाओं की राष्ट्रीय पोशाक माना जाता है। कई अवसरों और कार्यों में, यहाँ तक कि साड़ी महिलाओं के कपड़ों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके उपयोग का एक उदाहरण श्रीलंकाई एयरलाइंस की एयर होस्टेस की वर्दी है।
लोक कथाएँ और राष्ट्रीय पौराणिक कथाएँ
महावंश के अनुसार, सिंहली निर्वासित राजकुमार विजया और उनका दल के साथ सौ अनुयायियों में से हैं। जो 543 ईसा पूर्व में द्वीप पर पहुँचे थे। कहा जाता है कि विजया और उनके अनुयायी बंगाल के सिंहपुरा शहर से निर्वासित होने के बाद श्रीलंका पहुँचे थे। महावंश में कहा गया कि आधुनिक सिंहली लोगों को उत्तर-पूर्व (बंगाल) के लोगों से सबसे अधिक निकटता से पाया गया। 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में सिंहली की स्थापना के बाद से श्रीलंका के इतिहास में यह सोचा जाता है कि उत्तर भारत से भारतीयों का एक प्रवाह द्वीप पर आया था। इसे सिंहली से इंडो-आर्यन भाषा समूह का हिस्सा होने का समर्थन है।
कला और वास्तुकला
ज्यादातर उदाहरणों में, श्रीलंकाई कला धार्मिक विश्वासों से उत्पन्न होती है। चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला जैसे कई रूपों में इसका प्रतिनिधित्व किया जाता है। श्रीलंकाई कला के सबसे उल्लेखनीय पहलुओं में से एक गुफाओं और मंदिर के चित्र हैं। जैसे कि सिगिरिया में पाए जाने वाले भित्तिचित्र और दम्बुल्ला में मंदिरों और कैंडी में दाँत अवशेष के मंदिर में पाए जाने वाले धार्मिक चित्र। कला के अन्य लोकप्रिय रूपों को दोनों मूल निवासियों के साथ-साथ बाहरी निवासियों से प्रभावित किया गया है। उदाहरण के लिए, पारंपरिक लकड़ी के हस्तशिल्प और मिट्टी के बर्तन पहाड़ी देश के आसपास पाए जाते हैं। जबकि पुर्तगाली-प्रेरित लेसवर्क और इंडोनेशियन-प्रेरित बाटिक उपयोग करने योग्य हो गए हैं। इसमें कई अलग और सुंदर चित्र हैं।
फिल्म और थिएटर
ड्रामाटिस्ट एदीरिवीरा सरचचंद्र ने 1956 में “मानमे” के साथ नाटक के रूप को फिर से जीवंत किया। उसी वर्ष, फिल्म निर्देशक लेस्टर जेम्स पीरिस ने कलात्मक मास्टरवर्क “रेकावा” बनाया। जिसने कलात्मक अखंडता के लिए एक विशिष्ट सिंहली सिनेमा बनाने की माँग की। तब से, पीरिस और अन्य निर्देशक जैसे कि वसंत ओबेसेकेरा, धर्मसेना पथिराजा, महागामा सेकेरा, डब्ल्यू.ए.बी.डी. सिल्वा, धर्मसिरी बंदरानायके, सुनील अरियारत्ने, सिरी गुनासिंघे, जी.डी.एल. परेरा, पियासिरी गुनारत्ने, टाइटस तोटावत्ता, अशोक हंदागमा और प्रसन्ना विथानगे ने एक कलात्मक सिंहली सिनेमा विकसित किया है।
कला प्रदर्शन
सिंहली लोगों की कलाओं को कुछ समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
कांडियन नृत्य में 18 वाननाम (नृत्य दिनचर्या) शामिल हैं। जिसमें हाथी, चील, साँप, बंदर, मोर और खरगोश जैसे विभिन्न जानवरों के व्यवहार शामिल हैं। जो मुख्य रूप से श्री दलादा मालीगंडी कैंडी में वार्षिक जुलूस सहकर्मियों में प्रदर्शन करते हैं।
पाहताराटा नृत्य में महत्वपूर्ण नृत्य शैली है। जो बीमारियों और आध्यात्मिक स्पष्टीकरण के लिए उपयोग कर रही है। इस नृत्य में मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं और दानवों का प्रतिनिधित्व करने वाले मास्क पर नर्तकी है। लोगों को आशीर्वाद देने के लिए आग और पानी जैसे तत्वों का उपयोग करती है।
सबरगमुवा नृत्य में मुख्य रूप से लोगों के मनोरंजन के लिए एक महत्वपूर्ण नृत्य शैली है।
लोक संगीत और नृत्य सिंहली लोगों की जातियों के अनुसार भिन्न होते हैं और क्षेत्रीय बुद्धिमानों में भी कुछ समय – मुख्य रूप से छोटे बच्चों, विशेष रूप से लड़कियों के बीच लोकप्रिय होते हैं। इन कलाओं का व्यापक रूप से सिंहली नव वर्ष की अवधि के दौरान प्रदर्शन किया जाता है।
मार्शल आर्ट
“अंगमपोरा” सिंहली लोगों की पारंपरिक मार्शल आर्ट है। यह मुकाबला तकनीकों, आत्म-रक्षा, खेल, व्यायाम और ध्यान को जोड़ती है। अंगमपोरा में देखी जाने वाली प्रमुख तकनीकें हैं: अंगम, जिसमें हाथ से हाथ लड़ना शामिल है। इलंगम, जिसमें स्वदेशी हथियारों जैसे चाकू और तलवार का उपयोग किया जाता है। 1815 में ब्रिटिश शासन के अधीन आने के बाद अंगम्पोरा लगभग विलुप्त हो गया।
दवा
पारंपरिक सिंहली गाँवों में कम से कम एक मुख्य चिकित्सा कर्मी होता था। जिसे “वेदा महत्ताया” (डॉक्टर) कहा जाता था। ये लोग विरासत द्वारा अपनी नैदानिक गतिविधियों का अभ्यास करते हैं। सिंहली चिकित्सा कुछ उपचारों के विपरीत आयुर्वेदिक पद्धतियों से मिलती-जुलती है, जो प्रभाव को मजबूत करने के लिए वे बौद्ध मंत्र (पिरित) का उपयोग करते हैं।
महावंश के अनुसार प्राचीन काल श्रीलंका के पांडुकभैया (437 ईसा पूर्व -367 ईसा पूर्व) के पास देश के विभिन्न हिस्सों में बने हुए घर और आयुर्वेदिक अस्पताल थे। मिहिंटेल अस्पताल दुनिया में सबसे पुराना है।
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